अगीत की शिक्षाशाला....... कार्यशाला १४.
कार्यशाला १४ ....अगीत में अलंकार योजना
अलंकार , साहित्य को शब्द-शिल्प व अर्थ-सौंदर्य प्रदान करते हैं |
साहित्य में आभूषण की
भांति प्रयुक्त होते हैं | यद्यपि प्रत्येक वस्तु, भाव व क्रिया के अनिवार्य गुण-रूप-तत्व ...." सत्यं शिवम्
सुन्दरं " के अनुसार सौंदर्य अर्थात अलंकरण काव्य का अंतिम मंतव्य होना चाहिए , तथापि अलंकारों के
योगदान को नकारा नहीं जा सकता | अतः अगीत में भी पर्याप्त मात्रा में अलंकार प्रयुक्त हुए हैं | मुक्य-मुख्य
शब्दालंकार व अर्थालंकार के उदाहरण प्रस्तुत हैं |
अनुप्रास अलंकार ----
अनुप्रास अलंकार ----
" आधुनिक
कविता की
सटीली, पथरीली, रपटीली -
गलियों के बीच ,
अगीत ने सत्य ही
अपना मार्ग प्रशस्त किया है ;
अनुरोधों, विरोधों, अवरोधों के बीच
उसने सीना तान कर जिया है | " ---- पाण्डेय रामेन्द्र ( अन्त्यानुप्रास )
" शिक्षित सज्जन सुकृत संगठित
बने क्रान्ति में स्वयं सहायक | " ----- डा श्याम गुप्त (शूर्पणखा खंडकाव्य से )
उपमा अलंकार -----
" बिंदुओं सी रातें
गगन से दिन बनें ,
तीन ऋतु बीत जाएँ ,
बस यूँही | " -----मंजू सक्सेना
" बहती नदी के प्रबल प्रवाह सा,
उनीदी तारिकाओं के प्रकाश सा,
कभी तीब्र होती आकांक्षाओं सा,
मैदानों पर बहती समतल धारा सा ,
नन्हे शिशुओं के तुतले बोलों सा ,
यह तो जीवन है | " -----स्नेह-प्रभा ( मालोपमा )
रूपक अलंकार ------
" खिले अगीत गीत हर आनन्,
तुम हो इस युग के चतुरानन |" ---- अनिल किशोर शुक्ल 'निडर'
" कामिनी के पुलके अंग् अंग्,
नयन वाण आकर हैं घेरे | " ---- सोहन लाल सुबुद्ध
" पायल छनका कर दूर हुए,
हम कुछ ऐसे मज़बूर हुए ;
उस नाद-ब्रह्म मद चूर हुए |" --- त्रिपदा अगीत ( डा श्याम गुप्त )
सटीली, पथरीली, रपटीली -
गलियों के बीच ,
अगीत ने सत्य ही
अपना मार्ग प्रशस्त किया है ;
अनुरोधों, विरोधों, अवरोधों के बीच
उसने सीना तान कर जिया है | " ---- पाण्डेय रामेन्द्र ( अन्त्यानुप्रास )
" शिक्षित सज्जन सुकृत संगठित
बने क्रान्ति में स्वयं सहायक | " ----- डा श्याम गुप्त (शूर्पणखा खंडकाव्य से )
उपमा अलंकार -----
" बिंदुओं सी रातें
गगन से दिन बनें ,
तीन ऋतु बीत जाएँ ,
बस यूँही | " -----मंजू सक्सेना
" बहती नदी के प्रबल प्रवाह सा,
उनीदी तारिकाओं के प्रकाश सा,
कभी तीब्र होती आकांक्षाओं सा,
मैदानों पर बहती समतल धारा सा ,
नन्हे शिशुओं के तुतले बोलों सा ,
यह तो जीवन है | " -----स्नेह-प्रभा ( मालोपमा )
रूपक अलंकार ------
" खिले अगीत गीत हर आनन्,
तुम हो इस युग के चतुरानन |" ---- अनिल किशोर शुक्ल 'निडर'
" कामिनी के पुलके अंग् अंग्,
नयन वाण आकर हैं घेरे | " ---- सोहन लाल सुबुद्ध
" पायल छनका कर दूर हुए,
हम कुछ ऐसे मज़बूर हुए ;
उस नाद-ब्रह्म मद चूर हुए |" --- त्रिपदा अगीत ( डा श्याम गुप्त )
यमक अलंकार
-----
" जब
आसमान से
झांका चाँद,
याद आई, आँखें डबडबाईं ,
आंसुओं में तैरने लगा
एक चाँद | " --तथा ..
" सोना,
रजनी में सजनी में सुहाता है,
मन को लुभाता है |
अत्यधिक सोना घातक है ,
कलयुग में सोना पातक है | " ----सुरेन्द्र कुमार वर्मा
उत्प्रेक्षा अलंकार ------
" यह कंचन सा रूप तुम्हारा
निखर उठा सुरसरि धारा में;
अथवा सोनपरी सी कोई,
हुई अवतरित सहसा जल में ;
अथवा पद वंदन को उतरा,
स्वयं इंदु ही गंगाजल में | " ----डा श्याम गुप्त
" क्या ये स्वयं काम देव हैं,
अथवा द्वय अश्विनी बंधु ये |" ---- शूर्पणखा खंड-काव्य से
अगीत में श्लेष अलंकार के उदाहरण की एक झलक देखें -----
झांका चाँद,
याद आई, आँखें डबडबाईं ,
आंसुओं में तैरने लगा
एक चाँद | " --तथा ..
" सोना,
रजनी में सजनी में सुहाता है,
मन को लुभाता है |
अत्यधिक सोना घातक है ,
कलयुग में सोना पातक है | " ----सुरेन्द्र कुमार वर्मा
उत्प्रेक्षा अलंकार ------
" यह कंचन सा रूप तुम्हारा
निखर उठा सुरसरि धारा में;
अथवा सोनपरी सी कोई,
हुई अवतरित सहसा जल में ;
अथवा पद वंदन को उतरा,
स्वयं इंदु ही गंगाजल में | " ----डा श्याम गुप्त
" क्या ये स्वयं काम देव हैं,
अथवा द्वय अश्विनी बंधु ये |" ---- शूर्पणखा खंड-काव्य से
अगीत में श्लेष अलंकार के उदाहरण की एक झलक देखें -----
" दीपक
देता है
प्रकाश ,
स्वयं अँधेरे में रहता है |
सुख-दुःख सहकर ही तो नर,
औरों को सुख देता है | " ---राम प्रकाश राम
"चलना ही नियति हमारी है,
जलना ही प्रगति हमारी है |" ----डा सत्य
संशय या संदेह अलंकार ------
स्वयं अँधेरे में रहता है |
सुख-दुःख सहकर ही तो नर,
औरों को सुख देता है | " ---राम प्रकाश राम
"चलना ही नियति हमारी है,
जलना ही प्रगति हमारी है |" ----डा सत्य
संशय या संदेह अलंकार ------
" सांझ
की गोधूली
की बेला
में ,
प्रफुल्लित चांदनी में ;
अमृत की अभिलाषा लिए ,
निहार रही थी एक टक,
झुरमुट में चकवा-चकवी का मिलन ;
प्रिया प्रियतम से,
मोह का पान कर रही थी ;
या यह कोरी कल्पना थी | " ----- घनश्याम दास गुप्ता
अतिशयोक्ति अलंकार -----
प्रफुल्लित चांदनी में ;
अमृत की अभिलाषा लिए ,
निहार रही थी एक टक,
झुरमुट में चकवा-चकवी का मिलन ;
प्रिया प्रियतम से,
मोह का पान कर रही थी ;
या यह कोरी कल्पना थी | " ----- घनश्याम दास गुप्ता
अतिशयोक्ति अलंकार -----
' नव
षोडशि सी
इठला करके
,
मुस्काती तिरछी चितवन से |
बोली रघुबर से शूर्पणखा ,
सुन्दर पुरुष नहीं तुम जैसा ;
मेरे जैसी सुन्दर नारी,
नहीं जगत में है कोई भी ||" ---- डा श्याम गुप्त ( शूर्पणखा खंड-काव्य से )
मुस्काती तिरछी चितवन से |
बोली रघुबर से शूर्पणखा ,
सुन्दर पुरुष नहीं तुम जैसा ;
मेरे जैसी सुन्दर नारी,
नहीं जगत में है कोई भी ||" ---- डा श्याम गुप्त ( शूर्पणखा खंड-काव्य से )
मुख्यतया अंग्रेज़ी साहित्य के अलंकार --मानवीकरण
व ध्वन्यात्मक अलंकार भी देखें...
" असफलता
आज थक
गयी है
,
गुजरे हैं हद से कुछ लोग ,
उनकी पहचान क्या करें ?
अमृत पीना बेकार,
प्राणों की चाह है अधूरी ,
विह्वलता और बढ़ गयी है |" ------डा सत्य ( मानवीकरण )
" नदिया मुस्कुराई
कल कल कल खिलखिलाई ,
फिर लहर लहर लहराई |" ----- डा श्याम गुप्त -प्रेम काव्य से-ध्वन्यात्मक )
गुजरे हैं हद से कुछ लोग ,
उनकी पहचान क्या करें ?
अमृत पीना बेकार,
प्राणों की चाह है अधूरी ,
विह्वलता और बढ़ गयी है |" ------डा सत्य ( मानवीकरण )
" नदिया मुस्कुराई
कल कल कल खिलखिलाई ,
फिर लहर लहर लहराई |" ----- डा श्याम गुप्त -प्रेम काव्य से-ध्वन्यात्मक )
पुनुरुक्ति-प्रकाश व
वीप्सा अलंकार
------
" श्रम
से जमीन
का नाता
जोड़ें ,
श्रम जीवन का मूलाधार ,
श्रम से कभे न मानो हार ;
श्रम ही श्रमिकों की मर्यादा,
श्रम के रथ को फिर से मोड़ें | " ------ डा सत्य ( पुनुरुक्ति प्रकाश )
" एक रबड़ ,
खिंची खिंची खिंची -
और टूट गयी ;
ज़िन्दगी रबड़ नहीं ,
तो और क्या है ? " -----राजेश कुमार द्विवेदी ( वीप्सा )
श्रम जीवन का मूलाधार ,
श्रम से कभे न मानो हार ;
श्रम ही श्रमिकों की मर्यादा,
श्रम के रथ को फिर से मोड़ें | " ------ डा सत्य ( पुनुरुक्ति प्रकाश )
" एक रबड़ ,
खिंची खिंची खिंची -
और टूट गयी ;
ज़िन्दगी रबड़ नहीं ,
तो और क्या है ? " -----राजेश कुमार द्विवेदी ( वीप्सा )
अन्योक्ति, स्मरण, वक्रोक्ति, लोकोक्ति, असंगति व
अप्रस्तुत अलंकार
------
" बालू से सागर के तट पर ,खूब घरोंदे गए उकेरे |
वक्त की ऊंची लहर उठी जब,
सब कुछ आकर बहा ले गयी |
छोड़ गयी कुछ घोंघे सीपी,
सजा लिए हमने दामन में || " ----- प्रेम काव्य से ( अन्योक्ति )
" अजब खेल हैं, मेरे बंधु !
गड्ढे तुम खोदते हो ,
गिरता मैं हूँ ;
करते तुम हो-
भरता मैं हूँ |
फिर भी न जाने कौन सी डोर ,
खींच लेजाती है तुम्हारे पास ,
मेरे अस्तित्व को;
साँसें तुम्हारी निकलती हैं,
मरता मैं हूँ | " ------ मंगल दत्त द्विवेदी 'सरस' ( असंगति
" घिर गए हैं नील नभ में घन,
तडपने लग गए तन मन ;
किसी की याद आई है,
महक महुए से आयी है | " ---- डा श्रीकृष्ण सिंह 'अखिलेश' ( स्मरण )
" आँख मूद कर हुक्म बजाना,
सच की बात न मुंह पर लाना ;
पड जाएगा कष्ट उठाना | " ---- डा श्याम गुप्त ( वक्रोक्ति )
" ओ मानवता के दुश्मन !
थोड़े से दहेज के लिए,
जलादी प्यारी सी दुल्हन;
ठहर ! तुझे पछताना पडेगा,
ऊँट को पहाड़ के नीचे
आना पडेगा | " ----- विजय कुमारी मौर्या ( लोकोक्ति )
" मन के अंधियारे पटल पर ,
तुम्हारी छवि,
ज्योति-किरण सी लहराई;
एक नई कविता,
पुष्पित हो आई | " ------ डा श्याम गुप्त ( अप्रस्तुत )
----------- क्रमश ...कार्यशाला -१५ ...अगीत में छंद यात्रा.......
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