अगीत साहित्य के अलख निरंजन
–डा रंगनाथ मिश्र ‘सत्य’
हिन्दी
साहित्य-जगत में अगीत-विधा, संतुलित कहानी एवं संघीय समीक्षा पद्धति आदि विधाओं के
प्रवर्तन द्वारा अपनी अलग से एक विशिष्ट पहचान बनाने वाले डा.रंगनाथ मिश्र जी ‘सत्य-पथ
के पाथेय’ हैं आपने अपना उपनाम ही ‘सत्य’ रख लिया है | अपने नामानुसार ही वे
बहुरंगी व्यक्तित्व व बहु-विधायी साहित्यकार तो हैं ही, बहु-नामी शख्शियत भी हैं |
भारतेंदु हरिश्चन्द्र, महावीरप्रसाद द्वेदी व निराला जी की भांति युगप्रवर्तक व
अज्ञेय की भांति प्रयोगवादी डा.सत्य के आज तक जितने नामाकरण व नामोपाधिकरण हुए हैं
उतने नामों से साहित्य-जगत में शायद ही किसी को पुकारा गया हो| हो सकता है कि कभी
स्कूलों कालेजों में ‘अ’ मानी ‘अगीत’ के साथ-साथ डा रंगनाथ के पर्यायवाची भी पढाए-पूछे
जाने लगें |
जहां पूर्व न्यायाधीश–साहित्यकार
श्री रामचंद्र शुक्ल जी सत्यजी को ‘साधना का व्रती’.... ‘अदम्य संगठन
कर्ता’...अनुष्ठानधर्मा व योग्यतम संचालक ..का नाम देते हैं तो गीतकार डा चक्रधर
नलिन जी उन्हें ‘युग-प्रवर्तक’ व ‘प्रयोगधर्मी’ का और जंग बहादुर सक्सेना ..’काव्य
का दिशा वाहक’ | प्रोफ.उषा सिन्हा उन्हें ‘अगीत विधा का बट-बृक्ष’ नामित करती हैं
तो रूसी भाषाविद संगमलाल मालवीय- ‘लखनऊ साहित्यिक व्यायामशाला का अखाडेबाज़ चौधरी’
और प्रोफ. नेत्रपाल सिंह ‘साहित्यकार दिवस के प्रेरणा स्रोत’ के नाम से पुकारते
हैं | उनके योग्य शिष्य सूर्य प्रसाद मिश्र ‘हरिजन’ उन्हें ‘सत्य का सूर्य’ का नाम
देते हैं तो श्रीमती स्नेहलता व देवेश द्विवेदी ‘साहित्यिक संत’ का | गुरुवर,
गुरूजी, गुरुदेव नाम से तो वे अपनी अगीत मंडली, शिष्य मंडली, अगीत पाठशाला व अगीत कार्यशाला,
अगीत साहित्य-जगत एवं सारे युवा-साहित्यकार जगत में जाने ही जाते हैं;
जो उनके शिष्य-शिष्याओं, प्रशंसकों, साथियों की लंबी संख्या व उनकी लोकप्रियता की
व्याख्या करता है | सृजन संस्था के अध्यक्ष डा.योगेश गुप्ता उन्हें ‘कर्म-योद्धा’
का नाम देते हैं|
उनके अभिन्न साथी व शिष्य श्री पार्थोसेन उन्हें
’आंदोलनकारी व्यक्तित्व’ कहते हैं वरिष्ठ
वयोवृद्ध सुकवि शारदा प्रसाद मिश्र के वे ‘विलक्षण साहित्य सेवी” हैं | कवयित्री डा मंजू शुक्ला ने उन्हें ‘हिन्दी के
सच्चे सिपाही’ का नाम दिया है और विजय कुमारी मौर्या के लिए वे ‘सत्य का आईना‘
हैं | पट्ट-शिष्य तेज नारायण राही के लिए ‘साहित्य धाम का काव्य संत’ हैं तो स्नेहप्रभा
(दिल्ली) ने उनका लिए ‘एक तपस्वी’ का नाम उद्घोषित किया है | वैदिक विद्वान श्री
धुरेन्द्र बिसरिया जी उन्हें ‘सत्य का साधक’...’संकल्प का धनी‘...’अरुंधती
तारा’...’कर्म-रथी व ‘उद्गीथ का प्रणेता” आदि नामों से नवाज़ते हैं | और भी जाने कितने नाम हैं सत्य जी के | ‘हिन्दी
का सूर्य’...’साहित्य उपवन का अनोखा सुमन”...और कवि अनिल किशोर ‘निडर’ उन्हें इस
'युग का चतुरानन’ पुकारते हैं ...
“खिले अगीत-गीत
हर आँगन,
तुम हो इस युग के चतुरानन |”
और मैं स्वयं डा श्याम गुप्त उन्हें अगीत का
‘कवि-कुल-गुरु’ कहता हूँ तथा आज ‘अगीत का अलख निरंजन‘ |
सतत
परिवर्तनशीलता ही प्रकृति-नटी का स्थिर नियम है, चिर-सत्य है, यही प्रकृति है,
प्राकृतिक बंधन भी है, रूढिवादिता भी, प्रगतिशीलता भी | इसी प्रकार सतत नवीन चिंतन
शैली, कुछ न कुछ सोचते रहना, नया करते रहना, रूढ़िवादी कवि की भांति झोला कंधे पर
डाले परन्तु परिवर्तन के चितेरे की भांति चरैवेति-चरैवेति ...चलते रहना ...आते-जाते
रहना, सारे नगर में ..देश में... सत्य जी का नियम है | अपने बहुमुखी कृतित्वों, सर्वाधिक साहित्यिक
कृत्यों, असंख्य शिष्य-शिष्याओं व युवा कवियों को एवं तमाम साहित्यिक संस्थाओं को
अगीत-परिषद के सह-संयोजकत्व में गतिमान, प्रगतिमान रखने वाला बहुयामी व्यक्तित्व
समाये वे साहित्यिक जगत के विलक्षण व्यक्तित्व ही हैं साथ ही वे ऐसे व्यक्ति व
साहित्यकार भी हैं जिनकी सबसे अधिक आलोचना भी होती है| परन्तु वे अपने
स्वभावानुसार, नामानुसार अपनी ही धुन में चलते जारहे हैं सतत, अनथक, अविराम,
अविचलित, अनासक्त-भाव व सत्य-भाव से | अगति में भी गतिमयता लिए हुए ...अगीत..
गुनुगुनाते हुए .....
“‘सत्य और
संयम
मन
में उत्साह भरें,
जीवन
आशान्वित हो
शान्ति के सहारे,
हिंसा का त्याग करें ;
सबको सुख देकरके
हम गरल पियें ||”
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