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Wednesday, 4 December 2013

अगीत की शिक्षाशाला........कार्यशाला १३...रसों का परिपाक....

                                 अगीत में रस छंद अलंकार योजना 

                  कार्यशाला १३.....अगीत में रसों का परिपाक.....




                       
अगीत कविता में लगभग सभी  रसों का परिपाक समुचित मात्रा में हुआ है | सामाजिक एवं  
समतामूलक समाज के उदेश्य प्रधान विधा होने के कारण यद्यपि शांत, करुणा, हास्य ..रसों को अधिक देखा  
जाता है तथापि सभी रसों का उचित मात्रा में  उपयोग हुआ है |
 
                   वीर रस का उदाहरण प्रस्तुत है ....
 
" हम क्षत्री है वन में मृगया,
करना तो खेल हमारा  है |
तुम जैसे दुष्ट मृग-दलों को,
हम  सदा  खोजते  रहते  हैं |
चाहे  काल स्वयं सम्मुख हो,
नहीं मृत्यु से डरते हैं हम || "                           ---शूर्पणखा काव्य उपन्यास से ( डा श्याम गुप्त )

      
           रौद्र रस का एक उदाहरण पं. जगत नारायण पांडे के महाकाव्य सौमित्र गुणाकर से दृष्टव्य करें --
 

" क्रोध देखकर भृगु नायक का,
मंद हुई  गति धारा-गगन की;
मौन  सभा मंडप में छाया |
बोले,' कौन दुष्ट है जिसने -
भंग किया पिनाक यह शिव का ;
उत्तर नहीं मिला तो तत्क्षण ,
कर दूंगा निर्वीर्य धारा को || "

            
श्रृंगार रस का एक उदाहरण देखें -----
 

" नैन नैन मिल गए सुन्दरी,
नैना  लिए झुके भला क्यों ;
मिलते क्या बस झुक जाने को |"                        ----त्रिपदा अगीत ( डा श्याम गुप्त )

          
भक्ति रस ---का एक उदाहरण प्रस्तुत है....
 

" मां वाणी !
मुझको ज्ञान दो 
कभी आये मुझमें  स्वार्थ ,
करता  रहूँ सदा परमार्थ ;
पीडाओं को हर दे मां !
कभी  सत्पथ से-
मैं भटकूं 
करता रहूँ तुम्हारा ध्यान | "                         ------डा सत्य

               
हास्य कवि व्यंगकार सुभाष हुडदंगी का एक हास्य-व्यंग्य प्रस्तुत है-----
 

" जब आँखों से आँखों को मिलाया 
तो  हुश्न और प्यार नज़र आया;
मगर जब नखरे पे नखरा उठाया ,
तो मान यूँ गुनुगुनाया --
'
कुए में कूद के मर जाना,
यार तुम शादी मत करना |"

               
वैराग्य, वीभत्स करूण रस के उदाहरण भी रंजनीय हैं-----
 

 मरणोपरांत जीव,
यद्यपि मुक्त होजाता है ,
संसार से , पर--
कैद रहता है वह मन में ,
आत्मीयों के याद रूपी बंधन में ,
और होजाता है अमर | "                       ----डा श्याम गुप्त

"
जार जार लुंगी में,
लिपटाये  आबरू ;
पसीने से तर,
 
भीगा जारहा है-
आदमी |"                                        ----धन सिंह मेहता

"
केवल बचे रह गए कान,
जिव्हा आतातायी ने छीनी ;
माध्यम से-
भग्नावशेष के ,
कहते अपनी क्रूर कहानी | "              ------गिरीश चन्द्र वर्मा 'दोषी '

"
झुरमुट के कोने में,
कमर का दर्द लपेटे
दाने बीनती परछाई;
जमान ढूँढ रहा है 
खुद को किसी ढेर में | "                    ----जगत नारायण पांडे




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