अगीत की शिक्षाशाला
{ अगीत विधा कविता में अगीत , लयबद्ध अगीत ,गतिमय सप्तपदी अगीत , लयबद्ध षट्पदी अगीत , नव-अगीत, त्रिपदा अगीत आदि छः प्रकार के अतुकांत छंद प्रयोग होरहे हैं एवं सातवीं विधा 'त्रिपदा अगीत ग़ज़ल' है|)
कार्यशाला १२ ---अगीत का कलापक्ष
यद्यपि अगीत रचनाकार शब्द-विन्यास, अलंकार, रस, लक्षणाओं आदि काव्य के कलापक्ष पर अधिक आधारित नहीं रहता क्योंकि अगीत विधा--क्रान्ति व रूढिवादिता के विरुद्ध से उपजा है तथा संक्षिप्तता, विषय वैविध्य, सहज भाव-सम्प्रेषणता व अभिधेयता से जन-जन संप्रेषणीयता उसका मुख्य लक्ष्य है | तथापि छंद-विधा व गीत का समानधर्मा होने के कारण अगीत में भी पर्याप्त मात्रा में आवश्यक रस, छंद, अलंकार व अन्य काव्य-गुण सहज रूप में स्वतः ही आजाते हैं |
वस्तुतः रचना की ऊंचाई पर पहुँच कर कवि सचेष्ट लक्षणा व अलन्कारादि विधानों का परित्याग कर देता है | रचना के उच्च भाव स्तर पर पहुँच कर कवि अलन्कारादि लक्षण विधानों की निरर्थकता से परिचित हो जाता है तथा अर्थ रचना के सर्वोच्च धरातल पर पहुँच कर भाषा भी सादृश्य-विधान के सम्पूर्ण छल-छद्मों का परित्याग कर देती है | तभी अर्थ व भाव रचना की सर्वोच्च परिधि दृश्यमान होती है | अगीत रचनाकार भी मुख्यतः भाव-संपदा प्रधान रचनाधर्मी होता है अतः सोद्देश्य लक्षणादि में नहीं उलझता | परन्तु जहां काव्य है वहाँ कथ्य में कलापक्ष स्वतः ही सहज वृत्ति से आजाता है, क्योंकि कविता व काव्य-रचना स्वयं ही अप्रतिम कला है | इस प्रकार " अमित अरथ आखर अति थोरे " की अभिधेयता के साथ-साथ अगीत काव्य में ..रस, छंद, अलंकार , लक्षणादि सभी काव्य-गुण प्रचुर मात्रा में पाए जाते हैं | प्रमुख अगीत रचनाकार व अगीत पर विभिन्न साहित्यिक-शास्त्रीय आलेखों के लेखक श्री सोहन लाल सुबुद्ध , श्री पार्थो सेन, डा रंगनाथ मिश्र 'सत्य' एवं डा श्याम गुप्त आदि द्वारा अगीत विधा के विभिन्न भाव व कला पक्षों पर विविध आलेखों द्वारा समय समय पर प्रकाश डाला जाता रहा है | उदाहरणार्थ ----सोहन लाल सुबुद्ध द्वारा---'अगीत काव्य में अलंकार योजना ' व "काव्य के गुण व अगीत '...'हिन्दी काव्य में नारी चित्रण'...डा सत्य के अगीत; एक काव्यशास्त्रीय दृष्टि '.....पार्थोसेन द्वारा..'अगीत कविता व वैचारिक क्रान्ति'.....तथा मेरे द्वारा ( डा श्याम गुप्त)...'विचार क्रान्ति व अगीत कविता'...'समष्टि व जन सामान्य हित काव्य गुण '..एवं 'हिन्दी साहित्य की विकास यात्रा में निरालायुग से आगे विकास की धारा है अगीत '...आदि |
काव्य का कला पक्ष काव्य की शोभा बढाने के साथ साथ सौन्दर्यमयता, रसात्मकता व आनंदानुभूति से जन-जन रंजन के साथ विषय-भाव की रुचिकरता व सरलता से सम्प्रेषणता बढ़ाकर अंतर की गहराई को स्पर्श करके दीर्घजीवी प्रभाव छोडने वाला बनाता है | परन्तु अत्यधिक सचेष्ट लक्षणात्मकता भाषा व विषय को बोझिल बनाती है एवं विषय व काव्य जन सामान्य के लिए दुरूह होजाता है |एवं उसका जन-रंजन व वास्तविक उद्देश्य पीछे छूट जाता है , पाण्डित्याम्बर व बुद्धि-विलास प्रमुख होजाता है | अतः सहज व समुचित कलात्मकता अगीत का उद्देश्य है |
शिल्पसौन्दर्य, शब्दसौन्दर्य व भाव सौंदर्य ( रस, छंद, अलंकार योजना ) द्वारा अर्थ-सौंदर्य की उत्पत्ति (अभिधा, लक्षणा, व्यंजना ) का उपयोग करके अर्थ-प्रतीति द्वारा विषय के भाव व विषय बोध को पाठक के मन में रंजित किया जाता है | इस प्रकार काव्य का कलापक्ष प्रमुखतः तीन वर्गों में विभाजित किया जा सकता है |
(अ ) रस, छंद, अलंकार योजना --शब्द-शिल्प व अनुभूति सौंदर्य |
(ब) काव्य के गुण --माधुर्य , ओज , प्रसाद ---अर्थ व भाव सौंदर्य |
(स्) कथ्य-शक्तियाँ ---अभिधा , लक्षणा , व्यंजना ----शब्द व अर्थ-प्रतीति |
अगीत के कलापक्ष पर समुचित प्रकाश डालने के लिए उपरोक्त तीनों वर्गों पर संक्षिप्त व सोदाहरण विवरण समीचीन होगा |
क्रमश ..कार्यशाला १३.....अगीत में रस छंद अलंकार योजना ......
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