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Friday 27 November 2015

डा रंगनाथ मिश्र सत्य के हाइकू......डा श्याम गुप्त....

 डा रंगनाथ मिश्र सत्य के हाइकू....


मैं जानता हूँ
तुम्हारी हर चाल
पहचानता हूँ |

कहता नहीं
लेकिन कहना भी
नहीं चाहता |

हंसीं उड़ाते हैं
मेरी सहजता की
वे लगातार

सहजता ही
मनुष्य की होती है
सहज मित्र

 बढजाती है
मनुष्य की आयु भी
प्राणायाम से

जीवन जियो
सच्चाई के साथ ही
सुखी रहोगे

त्याग तपस्या
बेकार न समझें
कभी भी मित्र

चलते रहें
कर्म के पथ पर
सुख मिलेगा

 योग करिए
जीवन सुधारिए
स्वस्थ रहिये 

Friday 6 December 2013

अगीत साहित्य के अलख निरंजन –डा रंग नाथ मिश्र ‘सत्य’....डा श्याम गुप्त



                 अगीत साहित्य के अलख निरंजनडा रंगनाथ मिश्र ‘सत्य’
                          
            हिन्दी साहित्य-जगत में अगीत-विधा, संतुलित कहानी एवं संघीय समीक्षा पद्धति आदि विधाओं के प्रवर्तन द्वारा अपनी अलग से एक विशिष्ट पहचान बनाने वाले डा.रंगनाथ मिश्र जी ‘सत्य-पथ के पाथेय’ हैं आपने अपना उपनाम ही ‘सत्य’ रख लिया है | अपने नामानुसार ही वे बहुरंगी व्यक्तित्व व बहु-विधायी साहित्यकार तो हैं ही, बहु-नामी शख्शियत भी हैं | भारतेंदु हरिश्चन्द्र, महावीरप्रसाद द्वेदी व निराला जी की भांति युगप्रवर्तकअज्ञेय की भांति प्रयोगवादी डा.सत्य के आज तक जितने नामाकरण व नामोपाधिकरण हुए हैं उतने नामों से साहित्य-जगत में शायद ही किसी को पुकारा गया हो| हो सकता है कि कभी स्कूलों कालेजों में ‘अ’ मानी ‘अगीत’ के साथ-साथ डा रंगनाथ के पर्यायवाची भी पढाए-पूछे जाने लगें |  
             जहां पूर्व न्यायाधीश–साहित्यकार श्री रामचंद्र शुक्ल जी सत्यजी को ‘साधना का व्रती’.... ‘अदम्य संगठन कर्ता’...अनुष्ठानधर्मायोग्यतम संचालक ..का नाम देते हैं तो गीतकार डा चक्रधर नलिन जी उन्हें ‘युग-प्रवर्तक’ व ‘प्रयोगधर्मी’ का और जंग बहादुर सक्सेना ..’काव्य का दिशा वाहक’ | प्रोफ.उषा सिन्हा उन्हें ‘अगीत विधा का बट-बृक्ष’ नामित करती हैं तो रूसी भाषाविद संगमलाल मालवीय- ‘लखनऊ साहित्यिक व्यायामशाला का अखाडेबाज़ चौधरी’ और प्रोफ. नेत्रपाल सिंह ‘साहित्यकार दिवस के प्रेरणा स्रोत’ के नाम से पुकारते हैं | उनके योग्य शिष्य सूर्य प्रसाद मिश्र ‘हरिजन’ उन्हें ‘सत्य का सूर्य’ का नाम देते हैं तो श्रीमती स्नेहलता व देवेश द्विवेदी ‘साहित्यिक संत’ का | गुरुवर, गुरूजी, गुरुदेव नाम से तो वे अपनी अगीत मंडली, शिष्य मंडली, अगीत पाठशाला व अगीत कार्यशाला, अगीत साहित्य-जगत  एवं  सारे युवा-साहित्यकार जगत में जाने ही जाते हैं; जो उनके शिष्य-शिष्याओं, प्रशंसकों, साथियों की लंबी संख्या व उनकी लोकप्रियता की व्याख्या करता है | सृजन संस्था के अध्यक्ष डा.योगेश गुप्ता उन्हें ‘कर्म-योद्धा’ का नाम देते हैं|
             उनके अभिन्न साथी व शिष्य श्री पार्थोसेन उन्हें ’आंदोलनकारी व्यक्तित्व’ कहते हैं  वरिष्ठ वयोवृद्ध सुकवि शारदा प्रसाद मिश्र के वे ‘विलक्षण साहित्य सेवी” हैं |  कवयित्री डा मंजू शुक्ला ने उन्हें ‘हिन्दी के सच्चे सिपाही’ का नाम दिया है और विजय कुमारी मौर्या के लिए वे ‘सत्य का आईना‘ हैं | पट्ट-शिष्य तेज नारायण राही के लिए ‘साहित्य धाम का काव्य संत’ हैं तो स्नेहप्रभा (दिल्ली) ने उनका लिए ‘एक तपस्वी’ का नाम उद्घोषित किया है | वैदिक विद्वान श्री धुरेन्द्र बिसरिया जी उन्हें ‘सत्य का साधक’...’संकल्प का धनी‘...’अरुंधती तारा’...’कर्म-रथी व ‘उद्गीथ का प्रणेता” आदि नामों से नवाज़ते हैं |  और भी जाने कितने नाम हैं सत्य जी के | ‘हिन्दी का सूर्य’...’साहित्य उपवन का अनोखा सुमन”...और कवि अनिल किशोर ‘निडर’ उन्हें इस 'युग का चतुरानन’ पुकारते हैं ...
        “खिले अगीत-गीत हर आँगन,
        तुम हो इस युग के चतुरानन |”

 और मैं स्वयं डा श्याम गुप्त उन्हें अगीत का ‘कवि-कुल-गुरु’ कहता हूँ तथा आज अगीत का अलख निरंजन‘ |
               सतत परिवर्तनशीलता ही प्रकृति-नटी का स्थिर नियम है, चिर-सत्य है, यही प्रकृति है, प्राकृतिक बंधन भी है, रूढिवादिता भी, प्रगतिशीलता भी | इसी प्रकार सतत नवीन चिंतन शैली, कुछ न कुछ सोचते रहना, नया करते रहना, रूढ़िवादी कवि की भांति झोला कंधे पर डाले परन्तु परिवर्तन के चितेरे की भांति चरैवेति-चरैवेति ...चलते रहना ...आते-जाते रहना, सारे नगर में ..देश में... सत्य जी का नियम है |  अपने बहुमुखी कृतित्वों, सर्वाधिक साहित्यिक कृत्यों, असंख्य शिष्य-शिष्याओं व युवा कवियों को एवं तमाम साहित्यिक संस्थाओं को अगीत-परिषद के सह-संयोजकत्व में गतिमान, प्रगतिमान रखने वाला बहुयामी व्यक्तित्व समाये वे साहित्यिक जगत के विलक्षण व्यक्तित्व ही हैं साथ ही वे ऐसे व्यक्ति व साहित्यकार भी हैं जिनकी सबसे अधिक आलोचना भी होती है| परन्तु वे अपने स्वभावानुसार, नामानुसार अपनी ही धुन में चलते जारहे हैं सतत, अनथक, अविराम, अविचलित, अनासक्त-भाव व सत्य-भाव से | अगति में भी गतिमयता लिए हुए ...अगीत.. गुनुगुनाते हुए .....
          “‘सत्य और संयम

              मन में उत्साह भरें,

                 जीवन आशान्वित हो

                     शान्ति के सहारे,

                        हिंसा का त्याग करें ;

                          सबको सुख देकरके

                               हम गरल पियें ||”


                                         

Wednesday 5 September 2012

‘अगीत साहित्य दर्पण’ क्रमश :....प्रस्तावना..डा रंग नाथ मिश्र 'सत्य'...


.                             प्रस्तावना
   अगीत साहित्य दर्पण’ रचनाकारों के लिए एक मानक ग्रन्थ होगा –डा. रंगनाथ मिश्र ’सत्य’....
        हिन्दी साहित्य को समर्पित, मूलतः चिकित्सक व सर्जन महाकवि डा श्याम गुप्त द्वारा लिखित ‘अगीत साहित्य दर्पण’  प्रकाशित होकर विज्ञ पाठकों के समक्ष प्रस्तुत होने जा रहा है| इसमें लेखक ने अगीत छंद विधा व उसका साहित्यिक पक्ष विस्तार से लिखने का समुचित प्रयास किया है| डा श्याम गुप्त ने अगीत-विधा में सृष्टि व् जीवन की उत्पत्ति पर “सृष्टि–ईशत-इच्छा या बिगबैंग” महाकाव्य तथा रामकथा पर आधारित नारी-विमर्श पर “शूर्पणखा” खंड काव्य का प्रणयन करके अगीत की स्थापना में अपना अमूल्य योगदान दिया है|
       सन १९६६ ई. में मैंने अपने कुछ सहयोगियों के साथ ‘अखिल भारतीय अगीत परिषद’ साहित्यिक व सांस्कृतिक संस्था की स्थापना की| एक पत्रक प्रकाशित करके सारे देश के प्रवुद्ध रचनाकारों को भेजा, जिसमें सुझाव मांगे गए थे कि अगीत काव्य-विधा को किस प्रकार स्थापित करके समाज को नयी दिशा प्रदान की जाय| बहुत से सुझाव आये एवं सैकड़ों नए रचनाकारों ने इस विधा से जुडकर कार्य आरंभ कर दिया |  
      सन १९६०-७० के दशक में साहित्यकार-रचनाकार यह नहीं सुनिश्चित कर पाए कि कविता को कौन सी सही दिशा प्रदान की जाय | कविता के क्षेत्र में अकविता, ठोस-कविता, चेतन-कविता, अचेतन-कविता, युयुत्सावादी-कविता, खबरदार-कविता, कबीरपंथी, आदि आंदोलन चले| गीत में नयागीत, नवगीत, अनुगीत जैसे नए-नए आंदोलन आये| इन सब पर विशेष रूप से पाश्चात्य दर्शन का प्रभाव था| फ्रांस से जो आंदोलन चले वे बंगला साहित्य में आये, तत्पश्चात उन्हें हिन्दी में अपनाया जाने लगा | इन आन्दोलनों में अस्पष्टता व सर्वसाधारण के लिए दुर्वोधता झलकती रही| अतः यह आवश्यक हुआ कि कविता में ‘अगीत-काव्य’ को स्वीकार किया जाय |
       वैज्ञानिक अन्वेषणों से संसार में दूरी का महत्व सिमट गया है| विश्व ने जहां इस शताव्दी के पूर्वार्ध में दो महायुद्धों के दुष्परिणामों को नयी शक्तियों के उभरते शीत-युद्धों की सरगर्मी के रूप में देखा है वहीं एक सर्वथा नए धरातल पर प्रतिष्ठित युवा-चेतना का उन्मेष भी विभिन्न रूपों में सामने आया है| स्वतन्त्रता के पश्चात भारतीय समाज और साहित्य में भी इसी प्रकार अपनी पूर्व-परम्परा से हटकर अधिक चैतन्य व स्वाभाविक होने लगा | हम जानते हैं कि भारत को भी कई महायुद्धों का सामना करना पडा | इस संक्रांति काल में युवक-युवतियों में पाश्चात्य सभ्यता को अपनाने की होड लगी हुई थी| एसी स्थिति में मैंने २०-२५ सहयोगियों के साथ ‘हिन्दी कविता में अगीत-आंदोलन’ की शुरूआत की जो युवा चेतना के उन्मेष का दृष्टा था | तब से १९९२ तक पच्चीस वर्षों में अगीत विधा पर कई काव्य-संग्रह प्रकाशित हुए| तदुपरांत हिन्दी के विद्वान समीक्षक डा विश्वंभर नाथ उपाध्याय, कुलपति कानपुर वि.वि., अ.भा. अगीत परिषद की संरक्षक डा उषा गुप्ता, पद्मश्री प.बचनेश त्रिपाठी, संगमलाल मालवीय (मास्को), डा लक्ष्मी नारायण लाल दुबे ( सागर वि.वि.), सुबोध मिश्र,संपादक सफरनामा आदि की प्रेरणा से अखिल भारतीय अगीत परिषद की की रजत जयन्ती वर्ष पर परिचयात्मक ग्रन्थ “अगीत काव्य के चौदह रत्न”  प्रकाशित कराया गया| जिसमें चौदह अगीत कवियों १०-१० अगीत प्रकाशित किये गए|
           सन १९६६-६७ में जो अगीत का मेनीफेस्टो प्रकाशित हुआ उसमें यह स्पष्ट कर दिया गया था कि अगीत खोज की और अग्रसर है उसमें नए रचनाकार बराबर जुडते रहेंगे क्योंकि खोज कभी रूढिगत नहीं होती| अगीत विधा के रचनाकार किसी ‘वाद’ में विश्वास नहीं रखते किन्तु कोई भी आंदोलन अधिक दिनों तक चलता है तो वह वाद का रूप ले लेता है | अतः आज ४५-४६ वर्षों बाद हम इसे ‘अगीतवाद’ के नाम से भी पुकार सकते हैं | अगीत विधा का आकाशवाणी , दूरदर्शन, देश-विदेश की पत्र-पत्रिकाओं द्वारा, शोध-प्रबंधों व कानपुर व लखनऊ के विश्व-विद्यालयों में परीक्षाओं में प्रश्न पूछे जाने से व्यापक प्रचार-प्रसार हुआ है| साथ ही इस विधा का विकास कई कोटियों के माध्यम से हुआ है यथा कविता के....शिल्प, मात्रा, गुणवत्ता, विविध-साहित्य, विषय, भाषा, उपादान व भाव की कोटि |
          अगीत काव्य पर दूसरा परिचयात्मक काव्य-संग्रह १९९३ में “ अगीत काव्य के इक्कीस स्तंभ”. तृतीय संग्रह अगीतोत्सव -९५ के अवसर पर ”अगीत काव्य के अष्ठादस पथी  एवं चौथा संकलन आजादी के स्वर्ण-जयन्ती वर्ष १९९७ को गांधी-शास्त्री जन्म-दिवस पर “अगीत-काव्य के सोलह महारथी” के नाम से प्रकाशित हुआ| अगीत का पांचवा संकलन “ अगीत काव्य के पैंतालीस सशक्त हस्ताक्षर “ के नाम से प्रकाशित होकर शीघ्र प्रस्तुत किया जाएगा|
         ‘अगीत काव्य के चौदह रत्न’.. व ‘अगीत काव्य के इक्कीस स्तंभ’ एवं ‘अगीत काव्य के अष्ठादस पथी’ का संपादन मेरे द्वारा किया गया जो अ.भा.अगीत परिषद की संरक्षक डा ऊषा गुप्ता, ब्रज-विभूति चौ.नबाव सिंह यादव,भू.पू. मंत्री उ.प्र व प.रामचंद्र शुक्ल पूर्व न्यायाधीश को समर्पित किये गए| ‘अगीत काव्य के सोलह महारथी’ का संपादन मेरे व डा नीरज कुमार द्वारा किया ग्याजो मेरे भतीजे युवा साहित्यकार यशशेष अरुणकुमार मिश्र उर्फ श्रीधर को समर्पित किया गया|
         वर्त्तमान दो दशकों में अगीत-विधा में महाकाव्य व खंड-काव्य भी लिखे गए हैं| ‘मोह और पश्चाताप’, सृष्टि, शूर्पणखा‘सौमित्र गुणाकर’ आदि महाकाव्य एवं खंड-काव्य  प्रकाशित हुए जो अगीतवाद की स्थापना में मील-स्तंभ का कार्य कर रहे हैं |
        मैं यह जानता हूँ कि परम्परागत काव्य में शिल्पगत विशेषताओं के अंतर्गत छंद-विधान योजना, पद्यात्मक भाषाशैली  व अलंकार सौष्ठव आदि का महत्वपूर्ण स्थान है | अगीत काव्य के कवियों ने इन परम्पराओं का त्याग किया है | तथापि काव्य-भाव होने से काव्य-सौन्द्र्यानुसार अलंकार व रस-भाव तो प्रत्येक प्रकार की कविता में स्वतः ही आजाते हैं| अगीत काव्य में परम्परागत छंदों के स्थान पर मुक्त-छंद व गद्यात्मक शैली को अपनाया है| भाषा पर भी नए प्रयोग किये हैं| अगीत-काव्य में यह स्वीकारा गया है कि संक्षिप्तता के माध्यम से कवि अपनी बात कहे| अगीत कवियों में निराशा, कुंठा, घुटन, आस्था-अनास्था, समष्टि-कल्याण की भावना व लघु-मानव की प्रतिष्ठा हेतु विद्रोह के स्वर भी अभिव्यक्त हुए हैं|
       महाकवि डा श्याम गुप्त द्वारा लिखित यह “ अगीत साहित्य दर्पण” अगीत विधा के रचनाकारों व सभी साहित्यकारों के लिए वरदान सिद्ध होगा | महाकवि ने कठिन श्रम और अध्ययन करके इसे तैयार किया है जिसमें अगीत-काव्य के सभी मानदंडों को स्थापित करने में अपनी लेखनी का प्रयोग करते हुए गतिमय सप्तपदी, लयबद्ध षट्पदी अगीत, नव-अगीत, त्रिपदा अगीत, त्रिपदा अगीत हज़ल आदि अगीत की विभिन्न विधाओं का भी उल्लेख किया है| उनके द्वारा आगे भी अगीतवाद की स्थापना में अन्य ग्रन्थ भी लिखे जायेंगे और उनके अन्य अगीत संग्रह, महाकाव्य व खंडकाव्य आदि आगे भी प्रकाशित होंगे, ऐसी मेरी आशा ही नहीं विश्वास है | मैं महाकवि डा श्याम गुप्त की लेखनी का वंदन-अभिनन्दन करता हूँ और कामना करता हूँ कि कि यह ग्रन्थ ‘अगीत साहित्य दर्पण’ अगीत विधा के रचनाकारों को अपना अमूल्य योगदान दे | मंगल कामनाओं के साथ |....मेरे दो अगीत प्रस्तुत हैं....
परिवर्तन,                                       हिन्दी के प्रति रहो समर्पित ...|
जीवन का मूल मन्त्र;                              हिन्दी ही भारत की आशा ,       
जैसा कल बीता                                   होगी यही राष्ट्र की भाषा ;          
जो आज जी रहे                                  देवनागरी को अपनाएं ,
आगे जो आएगा ,                                 प्रगति पथ पर ,     
उसमें भी होंगे –                                  बढ़ाते जाएँ |
उत्थान-पतन |                                              
                                                          हस्ताक्षर           
सम्प्रति— अगीतायन,                            ( डा रंगनाथ मिश्र ‘सत्य’...एम् ए,पी.एच.डी)  ई-३८८५,राजाजी पुरम, लखनऊ-१७                   अध्यक्ष –अखिल भारतीय अगीत परिषद, लखनऊ                                                                        मो.९३३५९९०४३५ ...दूभा.०५२२-२४१४८१७   

            ------- क्रमश:-- अगीत साहित्य दर्पण ...शुभाशंसा...अगली पोस्ट में .. 



Monday 13 August 2012

साहित्य मूर्ति डा रंगनाथ मिश्र 'सत्य' पर पुस्तक का लोकार्पण एवं सृजन संस्था का वार्षिक सम्मान समारोह ....डा श्याम गुप्त ..






लोकार्पित पुस्तक
                              लखनऊ की युवा साहित्यकारों की संस्था सृजन का वार्षिकोत्सव स्थानीय गांधी संग्रहालय के सभा-भवन में दि. १२-८-१२ को संपन्न हुआ |  जिसमें संस्था के संरक्षक, हिन्दी कविता में अगीत-विधा के संस्थापक कविवर डा रंगनाथ मिश्र 'सत्य' को समर्पित पुस्तक  " साहित्य -मूर्ति  डा रंगनाथ मिश्र 'सत्य'"   का लोकार्पण हुआ तथा संस्था के वार्षिक सम्मान ---' सृजन साधना वरिष्ठ रचनाकार सम्मान'....लखनऊ के  कविवर  श्री सूर्य-प्रसाद  मिश्र  'हरिजन'  को  तथा  'सृजन साधना युवा रचनाकार सम्मान'.....गोंडा के  उदीयमान युवाकवि श्री जयदीप सिंह 'सरस' को प्रदान किया गया | इस अवसर पर डा रंगनाथ मिश्र सत्य का सारस्वत सम्मान भी किया गया
पुस्तक का लोकार्पण --श्री गधाधर नारायण, प्रोफ मौ.मुजम्मिल, विनोद चन्द्र पांडे ,महेश चन्द्र द्विवेदी , रामचंद्र शुक्ल, डा सत्य , डा योगेश व  देवेश द्विवेदी
                  समारोह की  अध्यक्षता  महाकवि श्री विनोद चन्द्र पांडे ने की, मुख्य अतिथि  रूहेल खंड विश्व-विद्यालय के कुलपति एवं देश के जाने-माने अर्थ शास्त्री व साहित्यकार श्री मोहम्मद मुजम्मिल थे | विशिष्ट अतिथि लखनऊ वि.वि के हिन्दी  विभाग की  पूर्व प्राचार्या प्रोफ. उषा सिन्हा, पूर्व पुलिस महानिदेशक श्री महेश चन्द्र द्विवेदी , श्री गदाधर नारायण सिन्हा, पूर्व न्यायाधीश श्री राम चन्द्र शुक्ल थे |

                  संस्था के अध्यक्ष डा योगेश गुप्त ने अथितियों का स्वागत करते हुए संस्था के कार्यों व उद्देश्यों का विवरण दिया | संचालन संस्था के महामंत्री श्री देवेश द्विवेदी 'देवेश' द्वारा किया गया |  वाणी  वन्दना सुप्रसिद्ध संगीतकार श्रीमती कमला श्रीवास्तव द्वारा की गयी |
समाम्नित साहित्यकार--साथ में  डॉ योगेश गुप्त , प्रोफ. उषा सिन्हा व प्रोफ मौ.मुजम्मिल
                         समारोह के  मुख्य वक्ता  के रूप में वैदिक विद्वान श्री धुरेन्द्र स्वरुप बिसरिया,  वरिष्ठ कवि व साहित्यकार  डा श्याम गुप्त,   श्रीमती स्नेहप्रभा  एवं  संघात्मक समीक्षा पद्धति  के समीक्षक श्री पार्थोसेन  ने  साहित्य-मूर्ति डा रंगनाथ मिश्र 'सत्य'  तथा  सम्मान प्राप्त साहित्यकारों की साहित्य साधना की चर्चा की  एवं लोकार्पित पुस्तक प्रति अपने विचार रखे  |
                         डा श्याम गुप्त  ने संस्था की प्रशंसा करते हुए कहा कि यह संस्था  वरिष्ठ व युवा रचनाकारों के मध्य एक सेतु का कार्य कर रही है  जो हिन्दी, हिन्दी साहित्य  व राष्ट्र की सेवा का एक महत्वपूर्ण आयाम है|   अपने वक्तव्य  "'अगीत के अलख निरंजन डा रंगनाथ मिश्र 'सत्य' "  पर बोलते हुए उन्होंने डा सत्य के विभिन्न नामों व उपाधि-नामों पर चर्चा करते हुए बताया कि डॉ सत्य के आज तक जितने नामकरण हुए हैं उतने शायद ही किसी साहित्यकार के हुए हों |
                     इस अवसर पर बोलते हुए प्रोफ. मोहम्मद मुजम्मिल ने बताया कि जिस प्रकार देश में आर्थिक उदारीकरण  हुआ उसी प्रकार साहित्य में भी  काव्य में  उदारीकरण  डा रंगनाथ मिश्र  द्वारा स्थापित विधा अगीत ने   किया है |
                     सम्मानित  कवियों व डा रंग नाथ मिश्र द्वारा काव्य-पाठ भी किया गया | धन्यवाद ज्ञापन संस्था के उपाध्यक्ष राजेश श्रीवास्तव  ने किया |



डा रंग नाथ मिश्र 'सत्य' - काव्य-पाठ

Wednesday 25 April 2012

अगीत कवि कुल गुरु –डा रंगनाथ मिश्र ’सत्य’ व अगीत कविता---एक अवलोकन

        
अगीत कवि कुल गुरु –डा रंगनाथ मिश्र ’सत्य’ व अगीत कविता---एक अवलोकन
                     ( डा श्याम गुप्त )

 अगीत गुरु एवं अगीत कविता के कुल-गुरु, हिन्दी साहित्य व कविता में नये युग अगीत युग के सूत्रधार ,हिन्दी के समर्थ कवि व निष्ठावान साहित्यकार –डा रंगनाथ मिश्र” सत्य’ के शिष्य व शिष्याएं, समर्थक, प्रशन्सक व शुभेच्छु, लखनऊ व सारे देश में ही नहीं अपितु विश्व भर में फ़ैल चुके हैं एवं उनकी जगाई हुई अलख तथा स्थापित कविता विधा ’अगीत’ के प्रसार में संलग्न हैं, जो हिन्दी साहित्य में उच्च आदर्शों व मानदन्डों की स्थापना को कटिबद्ध है ।
 महाकवि जायसी व युगप्रवर्तक महावीर प्रसाद द्विवेदी की जन्मस्थली जनपद रायबरेली के ग्राम कुर्री सुदौली में जन्मे व साहित्यकारों की उर्वरा भूमि लखनऊ में स्थापित, लखनऊ वि विद्यालय से  एम ए, पी एच डी , ’अगीत’ के सूत्रधार डा रंगनाथ मिश्र ’सत्य’ एक जुझारू व्यक्तित्व का नाम है जो अपने सरल, उदारमना व्यक्तित्व, सबको साथ लेकर चलने वाले समर्थ साहित्यकार के रूप में हिन्दी जगत में विख्यात हैं ।
यद्यपि कविता की मूलधारा वैदिक युग से ही अतुकान्त-विधा रही, परन्तु हिन्दी में अतुकान्त कविता की विधिवत स्थापना निराला जी ने की। निरालायुग की अतुकान्त कवितायें लम्बे वर्णानात्मक, यथार्थ व पौराणिक विषयों पर आधारित थीं। उससे आगे आधुनिक युग की सामयिक आवश्यकता-संक्षिप्तता,सरलता,रुचिकरता, तीब्र-भावसंप्रेषणता, यथार्थता के साथ साथ सामाजिक-सरोकारों का उचित समाधा्न-प्रदर्शन हेतु “अगीत कविता” की स्थापना हुई, जिसका प्रवर्तन -’लीक छांडि तीनों चलें शायर, सिन्ह, सपूत’- वाले अंदाज १९६६ ई. में में डा सत्य ने’ अखिल भा. अगीत परिषद, लखनऊ’ की स्थापना करके किया। तब से यह युगानुकूल विधा अगणित कवियों, साहित्यकारों द्वारा रचित कविताओं, काव्य-संग्रहों, खंड-काव्यों, महाकाव्यों व विभिन्न अगीत-छंदों के अवतरण से निरन्तर समृद्धि -शिखर की ओर प्रयाणरत है जो निश्चय ही हिन्दी भाषा, साहित्य व कविता एवं छंदशास्त्र के इतिहास व विकास की अग्रगामी ध्वज व पताकाएं हैं।
 अनेकों काव्य-ग्रंथों की रचना व संपादन के साथ ही डा सत्य ने १९७५ ई. में “संतुलित कहानी” एवं १९९८ई. में हिन्दी समीक्षा क्षेत्र में “संघात्मक समीक्षा “ पद्दति की स्थापना की। उनकी कर्मठता, लगन, धैर्य पूर्ण सेवा व परिश्रम के फ़लस्वरूप उन्हें देश भर में विभिन्न पुरस्कार व सम्मान प्रात हुए। उनके प्रशन्सकों ने उनके जन्मदिन, १ मार्च को ’साहित्यकार दिवस” के रूप में मनाना प्रारम्भ कर दिया। नगर की विभिन्न साहित्यिक संस्थाओंने उनके संयोजकत्व में व अ.भा.अगीत परिषद के सह-तत्वावधान में गोष्ठियां, कवि-मेले व कवि-कुंभ आदि आयोजित करने प्रारम्भ कर दिये। एसे व्यक्तित्व को यदि अगीत कविकुल्गुरु की उपधि से पुकारा जाय तो अतिशयोक्ति नहीं होगी।  जब सत्य जी कहते हैं----
 “आंखों को चित्र भागया,                         तथा        “अहंकार मन से दूर करें हम
  बाधाएं एक नहीं हज़ारों                                 जीवन में समरसता लायें
 आशाएं कर रहीं श्रंगार।“                                                                 प्रगति पंथ पर बढते जायें                        
                                                  मन में विश्वास हो,नूतन उत्साह हो
                                                  संघर्षों को मिलकर दूर करें।“
                             
                            

                                   
                                      

  तो विश्वास सामाजिकता समरसता, नवीन के प्रति उनकी ललक, उत्साह व संघर्षप्रियता के दर्शन होते हैं। जब वे गाते हैं---              “मत जीना बुखार सी ज़िन्दगी,
             सुख दुख में मस्त रहो
              सबका सम्मान करो
             मत करना उधार की ज़िन्दगी।“ --   तो वे अलमस्त, विन्दास, परंतु शान से, बिना किसी दबाव में झुके, बाधाओं से निपटते हुए नज़र आते हैं तथा कवियॊं को भी एक उचित उद्देश्यपूर्ण राह दिखाते हैं।
“आओ राष्ट्र को जगाएं…..”  व “ देवनागरी को अपनाएं…..”आदि अगीतों में  डा सत्य का कवि-मन राष्ट्रीय भावना व हिन्दी के प्रति दीवानगी प्रदर्शन के साथ ही हिन्दी जनमानस व कवियों को भी संबल प्रदान करता है। “ अप्प दीपो भव “ की भांति सत्य जी ने अपना रास्ता स्वयं ही बनाया है एवं जन-मानस व नवीन कवियों को भी उन्होंने दीपक की भांति ग्यान से प्रकाशित किया है और यही संदेश वे--
 “ चलना ही नियति हमारी है,
  जलना ही प्रगति हमारी है……..” अगीत गाकर सभी को देते हैं। “ उदार चेतां तु वसुधैव कुटुम्बकं” पर चलने वाले सत्य जी, सबको साथ लेकर चलने में विश्वास रखते हैं। नव-साहित्यकारों या अन्य को हेय द्रष्टि से देखने-समझने वाले मठाधीशों को वे स्पष्ट उत्तर देते हैं---

“शब्दहीन कौन है यहां
पुलकित हैं सभी यहां आज
परिचित है सभी से समाज
फ़ैल रही मधु भरी किरन
गंधहीन कौन है यहां…..”  ------- ’सत्य जी का स्वयं का क्या योगदान है”, ’अगीत का भविष्य क्या है” आदि आदि व्यर्थ आलोचना करने वालों को ललकार कर जबाव देते हुए वे कहते हैं ---
“दिशाहीन नहीं हूं अभी
पाई है केवल बदनामी
खोज रहे हैं मुझको मेरे प्रेरक सपने
मिलनातुर हैं मुझसे मेरे अपने
क्रियाहीन नहीं हूं अभी
यह तो है जग की नादानी ।“
      एसे कर्मठ, आशावादी,सरल ह्रदय साहित्यकार, पथप्रदर्शक व युगप्रवर्तक डा सत्य ’चरैवैति चरैवैति’ की भांति प्रगति-दीप हाथ में लेकर प्रगतिपथ पर चलते ही जारहे हैं एवं चलते ही रहें एसी मेरी आकांक्षा, आशा व विश्वास है ।



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