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Wednesday 12 December 2012

गीत, अगीत और नवगीत ...१२..१२..१२.. में विशेष पोस्ट ...डा श्याम गुप्त...


                              गीत, अगीत और नवगीत ...१२..१२..१२.. में  विशेष पोस्ट ....

                                     

                                                              

                    आजकल हिन्दी साहित्य व काव्य में पद्य-विधा के सनातन रूप गीत के दो अन्य रूप अगीत एवं नवगीत काफी प्रचलन में हैं | गद्य-विधा से भिन्नता के रूप में जिस कथ्य में, लय के साथ गति यति का उचित समन्वय एवं प्रवाह हो वह काव्य है,गीत है| तुकांत छंदों के अतिरिक्त, अन्त्यानुप्रास के अनुसार गीत- तुकांत या अतुकांत होते हैं | अतुकांत गीतों को गद्य-गीत भी कहा गया | गीत तो सनातन व सार्वकालिक है ही अतः आगे कुछ कहने की आवश्यकता ही नहीं है| यहाँ अगीत नवगीत पर कुछ दृष्टि डालने का प्रयत्न किया जायगा|
अगीत --- एक अतुकांत गीत है, जिसमें मूलतः संक्षिप्तता को ग्रहण किया गया है | निराला जी द्वारा स्थापित लम्बे-लम्बे अतुकांत गीतों से भिन्न ये ५ से ८ पंक्तियों में पूरी बात कहने में सक्षम हैं | लय, गति, यति के साथ प्रवाह इनकी विशेषता है जो इन्हें गीतों की श्रेणी में खडा करती है एवं अतुकान्तता पारंपरिक पद्य-गीत से पृथक करती है और संक्षिप्तता प्रचलित पारंपरिक अतुकांत गीतों से भिन्नता प्रदर्शित करती है | इस प्रकार अगीत एक स्वतंत्र व स्पष्ट विधा है एवं उसका का एक स्पष्ट तथ्य-विधान व रचना संसार है ...उदाहरणार्थ ---
खोल दो घूंघट के पट
हटादो ह्रदय पट से,
आवरण
मिटे तमिस्रा
हो नव-विहान |”             ---- सुषमागुप्ता     

टूट रहा मन का विश्वास
संकोची हैं सारी
मन की रेखाएं |
रोक रहीं मुझ को,
गहरी बाधाएं |
अन्धकार और बढ़ रहा,
उलट रहा सारा आकाश ||”      --- डा रंगनाथ मिश्र सत्य

नवगीत उसका भ्रामक संसार --- नवगीत की बात काफी समय से एवं काफी जोर-शोर से कही जा रही है| नवगीत को प्राय: गीत के नवीन एवं आधुनिक स्थानापन्न रूप में प्रचारित किया जाता है|  नवगीतकार प्रायः यह कहते हैं कि अब गीत पुरानी विधा होगई है नवगीत का युग है | परन्तु यदि ध्यान से विश्लेषण किया जाय तो यह एक भ्रांत धारणा ही है | वस्तुतः नवगीत कोई नवीन विधानात्मक तथ्य नहीं है अपितु  पारंपरिक गीत को ही तोड़-ताड़ कर लिख दिया जाता है | इसमें मूलतः तो तुकांतता का ही निर्वाह होता है और मात्राएँ भी लगभग सम ही होती हैं,  कभी-कभी मात्राएँ असमान व अतुकांत पद भी आजाता है इसे गीत का सलाद या  खिचडी भी  कहा जा सकता है | इसका स्पष्ट तथ्य-विधान भी नहीं मिलता | वस्तुतः यह है पारंपरिक गीत ही जिसे टुकड़ों में बाँट कर लिख दिया जाता है | उदाहरणार्थ---- एक नवगीत है
जग ने जितना दिया
ले लिया
उससे कई गुना
बिन मांगे जीवन में
अपने पन का
जाल बुना |
सबके हाथ-पाँव बन
सब की साधें
शीश धरे
जीते जीते
सबके सपने
हर पल रहे मरे
थोपा गया
माथ पर पर्वत 
हमने कहाँ चुना         --मधुकर अस्थाना का नवगीत
            इसे  १२-१४  या१६-१०  या  २६ पंक्तियों वाला सामान्य गीत की भाँति लिखा जा सकताहै –-
जग ने जितना दिया,     ११              जग ने जितना दिया, लेलिया उससे कई गुना,   २६
लेलिया उससे कई गुना | १५     या      बिन मांगे जीवन में, अपने पन का जाल बुना|   २६
बिन मांगे जीवन में,    १२
अपने पन का जाल बुना |१४
                                                                      

सबके हाथ-पाँव बन,   १२                सबके हाथ पाँव बन सबकी-   १६
सबकी साधें शीश धरे | १४      या       साधें शीश धरे |            १०
.जीते जीते सबके –                      जीते जीते सबके सपने,
सपने हर पल रहे मरे |                  हर पल रहे मरे |
टेक-  थोपा गया माथ पर    १२     या     थोपा गया माथ पर पर्वत हमने कहाँ चुना २६
     पर्वत हमने कहाँ चुना ||  १४           जग ने जितना दिया लेलिया उससे कई गुना || २६
          कुछ  अन्य उदाहरण देखें ---
१-      
      ------ १४-१२ का पारंपरिक गीत है या नवगीत……
 विदा होकर जाते-जाते,    १४
बरस बीता कह गया।     १२
नवल तुम वो पूर्ण करना,   १४
जो नहीं मुझसे हुआ।    १२            ----कल्पना रमानी  का नवगीत
२-
टुकड़े टुकड़े 
टूट जाएँगे   १६
मन के मनके
दर्द हरा है    १६ = ३२
ताड़ों पर 
सीटी देती हैं 
गर्म हवाएँ    २४
जली दूब-सी 
तलवों में चुभती
यात्राएँ       २४
पुनर्जन्म ले कर आती हैं
दुर्घटनाएँ     २४
धीरे-धीरे ढल जाएगा                                                   
वक्त आज तक
कब ठहरा है?    ३२       ---- पूर्णिमा वर्मन का नवगीत ..
     
       ------ सीधा -सीधा 24 / ३२ मात्राओं का पारंपरिक गीत है ... इसे ऐसे लिखिए ....

ताड़ों पर सीटी देती  हैं गरम हवाएं ,   २४
जली दूब सी तलवों में चुभती यात्राएं | २४
पुनर्जन्म लेकर आती हैं दुर्घटनाएं |   २४
धीरे धीरे ढल जाएगा वक्त आज तक, कब ठहरा है ३२
टुकड़े-टुकड़े टूट जायंगे मन के मनके , दर्द हरा है  |  ३२

                  अतः इस प्रकार नवगीत कोई नवीन विधा नहीं ठहरती अपितु पारंपरिक गीत ही है जिसे गीत का सलाद  सा बना कर पेश किया जाता है | हाँ इस बहाने तमाम नवीन कथ्य तथ्यों के नाम पर दूर की कौड़ी के नाम पर , दूरस्थ व्यंजना के नाम पर ....असंगत कथ्य व तथ्य पेश कर दिए जाते हैं सिर्फ कुछ अलग दिखने हेतु | अब आप देखिये ---
जग ने जितना दिया
लेलिया
उससे कई गुना
बिन मांगे जीवन में
अपनेपन का
जाल बुना | ----   “

         क्या इस कथ्य का कोई अर्थ निकलता है ? अर्थात व्यक्ति को दुनिया कुछ देती नहीं वह ही दुनिया को देता है और जो कुछ वह अपने साथ पैदा होते ही लाता है दुनिया ले लेती है | हमें किसी( दुनिया, दोस्त, माता-पिता, भगवान ) का शुक्रगुज़ार होने की क्या आवश्यकता है |
होगयी है कर्मनाशा
समय की गंगा
नहाकर जिसमें हुआ
हर आदमी नंगा |   ---- यदि नदी कर्मनाशा है तो बुरा क्या है वह तो कर्मों का नाश हेतु होती ही है ...

                                                          

        और भी------
जली दूब-सी 
तलवों में चुभती
यात्राएँ   
पुनर्जन्म ले कर आती हैं
दुर्घटनाएँ   “                     ----- ??

आतंकों में-
शांति खोजना
केवल पागलपन 
लगता है।    “                     ---- यह कौन सा नया महान तथ्य है  सब जानते हैं |
शाखाओं का बोझ उठाये
बरगद उठ न सका
                   ---- फिर वह बरगद ही क्यों कहलाता है फिर अतिरिक्त शाखाएं तो उसका  बोझ स्वयं उठाती हैं क्या अर्थ है कथ्य का ?

सोने के पिंजरे में
हमने
हर पल दर्द धुना |    …... दर्द के कारण अंग धुना जाता है नकि स्वयं दर्द .कोइ धुनने की चीज़ है ..

               मुझे तो इन असंगत कथ्यों का अर्थ समझ आता नहीं है यदि आपको तार्किक अर्थ समझ आ रहा हो तो बताएं मेरे विचार में तो इस प्रकार की कविता ही कविता व साहित्य, कवि-साहित्यकारों को जन जन, सामान्य जन से दूर करती जा रही है
 

Friday 16 November 2012

सृष्टि महाकाव्य -सर्ग- एकादश...उपसंहार......डा श्याम गुप्त.....

            सृष्टि महाकाव्य -अंतिम सर्ग- एकादश...उपसंहार......डा श्याम गुप्त.....




              सृष्टि महाकाव्य-(ईषत- इच्छा या बिगबेंग--एक अनुत्तरित उत्तर )-- -------वस्तुत सृष्टि हर पल, हर कण कण में होती रहती है,यह एक सतत प्रक्रिया है , जो ब्रह्म संकल्प-(ज्ञान--ब्रह्मा को ब्रह्म द्वारा ज्ञान) ,ब्रह्म इच्छा-(एकोहं बहुस्याम ... इच्छा) सृष्टि (क्रिया- ब्रह्मा रचयिता ) की क्रमिक प्रक्रिया है --किसी भी पल प्रत्येक कण कण में चलती रहती है, जिससे स्रिष्टि व प्रत्येक पदार्थ की उत्पत्ति होती हैप्रत्येक पदार्थ नाश(लय-प्रलय- लय  ) की और प्रतिपल उन्मुख है
(यह महाकाव्य अगीत विधामें आधुनिक विज्ञान ,दर्शन व वैदिक-विज्ञान के समन्वयात्मक विषय पर सर्वप्रथम रचितमहाकाव्य है , इसमेंसृष्टि की उत्पत्ति, ब्रह्माण्ड व जीवन और मानव की उत्पत्ति के गूढ़तम विषयको सरल भाषा मेंव्याख्यायित कियागया है | इस .महाकाव्यको हिन्दी साहित्य की अतुकांत कविता की 'अगीत-विधा' के छंद - 'लयबद्धषटपदी अगीत छंद' -में - निवद्ध किया गया है जो एकादश सर्गों में वर्णित है).... ...... रचयिता --डा श्याम गुप्त ...
                               अब तक प्रस्तुत महाकाव्य में १० सर्गों में सृष्टि कैसे हुई व जीवन कैसे उत्पन्न हुआ, लिंग-चयन आदि विषय पर अधुना-वैज्ञानिक, दार्शनिक और वैदिक मतों व उनके समन्वय का वर्णन किया गया ...इस अंतिम सर्ग-उपसंहार - में -इस विषय की आज के युग में क्या महत्ता है, कोई  इसको क्यों पढ़े , क्या सार्थकता है; ईश्वर, दर्शन,  अध्यात्म, धर्म की क्या आवश्यकता है,  ईश्वर के होने न होने का क्या अर्थ व उपादेयता है ; विज्ञान व वैज्ञानिकों एवं अनास्थावादियों द्वारा उठाये गए विभिन्न प्रश्नों के उत्तरों का वर्णन किया जायगा | कुल १४ छंद...
१-
यद्यपि विज्ञान यही कहता है,
ईश्वर का क्या काम जगत में |
यह संसार स्वतः की रचना,
आदि रहित और अंत रहित है|
पर अंतस में चाह यही है,
थाह जानलें प्रभु के मन की ||
२-
प्रश्न१ ये बार बार उठते हैं,
एसा ही क्यों जगत बनाया |
अन्य विकल्प क्या क्या थे उस पर|
और ब्रह्माण्ड सृजन से पहले,
क्या करता था? चाह यही है,
थाह जानलें, उस ईश्वर की ||
३-
इन सब ही प्रश्नों के उत्तर ,
ज्ञात नहीं विज्ञान को अब तक|
पर वैदिक भण्डार ज्ञान का,
कहता है- था असद२ रूप में ;
ईश्वर सृष्टि सृजन से पहले ,
स्थिर शांत, महा-अर्णव३ में ||
४-
हैं बहुत विकल्प ईश्वर पर,
सृष्टि-सृजन की प्रक्रिया के |
नयी सृष्टि हर मन्वंतर४ में ,
रचता है वह विविधि रूप से |
पृथक मनु ऋषि देव शक्ति कण,
रचता है प्रत्येक कल्प५ में ||
५-
पाश्चात्य अध्यात्म बताता६ ,
पृथ्वी जल और अग्नि वायु से ;
यह सारा ब्रह्माण्ड बना है |
गगन७ नाम का तत्व पांचवां ,
दिया नाम विज्ञान ने ईथर,
प्रतिपादन वैदिक दर्शन का ||
६-
यही तत्व तो भाव-तत्व है,
भौतिकता से परे जगत का |
मानव-मन का अतल गहन तल,
महाकाश है महाविष्णु का ;
भव-सागर है आत्मतत्व का,
ओंकार गुंजित अर्णव है ||
७-
इसी तत्व के भाव जगत में,
मानव मन की गहराई के;
सत्य दया करूणा परहित औ,
ईश्वर-प्रेम के भाव बिचरते |
मानव-प्रेम से जग हो सुन्दर,
सत्य औ शिव संकल्प उभरते ||
८-
नव-विज्ञान के सभी तथ्य भी,
वैदिक तथ्यों की ही गाथा |
कण उपकण परमाणु और अणु,
बनाने की रासायनिक क्रिया ;
यग्य-प्रक्रिया है ब्रह्मा की ,
और विस्फोट८ संकल्प ब्रह्म का ||
९-
इस संकल्प की हलचल से ही,
आदि-ऊर्जा कण बन जाते |
सभी देव ही ऊर्जा कण हैं ,
आत्म-रूप ईश्वर का मिलकर,
गति, जीवन मिलता है कण को;
पृथ्वी पर जीवन लहराता ||
१०-
जब फैलाव अधिक होजाता,
अति-शीतल ब्रह्माण्ड होगया|
कण-प्रतिकण स्थिर होजाते,
यह ब्रह्माण्ड सिकुड़ने लगता;
लय-संकल्प परम-ईश्वर का,
रचाने को इक नई श्रृष्टि फिर ||
११-
"एकोहं बहुस्यामि "९ और,
" अब मैं पुनः एक होजाऊँ "१०
के संकल्प ही तो कारण हैं ,
सृष्टि और लय की क्रिया के |
स्वतः फैलना और सिकुड़ना ,
कहता है विज्ञान इसी को ||
१२-
नहीं महत्ता इसकी है कि,
ईश्वर ने यह जगत बनाया|
अथवा वैज्ञानिक भाषा में ,
आदि-अंत बिन, स्वतः रच गया |
अथवा ईश्वर की सत्ता है,
अथवा ईश्वर कहीं नहीं है ||
१३-
यदि मानव खुद ही कर्ता है,
और स्वयं ही भाग्यविधाता |
इसी सोच का यदि पोषण हो,
अहं- भाव जाग्रत होजाता |
मानव संभ्रम में घिर जाता,
और पतन की राह यही है ||
१४-
पर ईश्वर है जगत-नियंता,
कोई है अपने ऊपर भी |
रहे तिरोहित अहं-भाव सब,
सत्व गुणों से युत हो मानव;
सत्यं शिवं भाव अपनाता,
सारा जग सुन्दर११ होजाता ||
                                                    ----इति---     सृष्टि महाकाव्य .....


{कुंजिका--१= 'ओरिजिन एंड फेट ऑफ़ यूनिवर्स' .( विश्व-विख्यात अंतरिक्ष वैज्ञानिक -.स्टीफन डव्ल्यू हाकिंस) ...में उठाये गए ईश्वर व सृष्टि विषयक विभिन्न वैज्ञानिक प्रश्न ....जो वास्तव में विज्ञान की ईश्वर को जानने की ही इच्छा का प्रतिबिम्ब है |; २= अव्यक्त रूप में ; ३= गगन या ईथर, महाकाश, शून्य, क्षीर सागर, मानव अंतस, अंतरिक्ष ; ४=कल्प का एक भाग -१ कल्प=१४ मन्वन्तर, १ मन्वंतर =३०६७२०००० मानव वर्ष ); ५= कल्प --आज तक समय की सबसे बड़ी नाप जो सिर्फ हिन्दू ग्रंथों में है , १ कल्प =चार अरब ३२ करोड़ मानव वर्ष , प्रत्येक कल्प के पश्चात प्रलय होती है और पुनः सृष्टि रचना होती है |; ६= अरस्तू के अनुसार सिर्फ चार तत्व होते थे..अर्थ, एयर, फायर, वाटर ..( ए ब्रीफ हिस्टरी ऑफ़ टाइम..स्टीफन हाकिंस )..; ७= पांचवां तत्व जो सर्वप्रथम वैदिक साहित्य में वर्णित है ; ८= बिग-बेंग --जिससे आधुनिक-विज्ञान के अनुसार सृष्टि-प्रक्रिया प्रारम्भ हुई |; ९= सृष्टि सृजन का ब्रह्म-संकल्प..; १०= अनेकता ( सृष्टि -फैलाव ) से एकात्मकता प्राप्ति का ब्रह्म संकल्प |; ११= सत्यं शिवं सुन्दरं ---भारतीय-वैदिक- मूल-कार्य प्रणाली का मूल भाव -तत्व --प्रत्येक कार्य, वस्तु, तथ्य, विचार, व्यापार,---सत्यं, शिवं सुन्दरम की कसौटी पर खरा उतरने के बाद ही कार्यरूप में लाया जाना चाहिए |}