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Wednesday, 19 September 2012

अगीत साहित्य दर्पण ..क्रमश:--अध्याय दो..अगीत क्यों व क्या है एवं उसकी उपादेयता .....डा श्याम गुप्त..

               अगीत साहित्य दर्पण -अध्याय दो..अगीत क्यों व क्या है एवं उसकी उपादेयता .....

                          स्वतन्त्रता के पश्चात भारतीय समाज की भांति साहित्य भी अपनी पूर्व रूढियों व परम्पराओं से हटकर अधिक चैतन्य व स्वाभाविक होने लगा | कविगण समाज का मुर्दा स्वरुप, द्वंद्व, कुंठा, हताशा, निराशा, महंगाई, बेरोजगारी, भ्रष्टाचार, रंग बदलते हुए व्यक्ति, शासन व समाज, टूटती सामाजिक व्यवस्था व पुरातन मूल्यों से मुठभेड, युद्धों की विभीषिका आदि सामयिक भावों पर लिखने लगे |  निराला जी ने अतुकांत छंद प्रचलित किया, साथ ही नई कविता, खबरदार कविता, अकविता, चेतन कविता, अचेतन कविता,यथार्थवादी कविता आदि वुभिन्न विधाओं का प्रादुर्भाव हुआ |  इन सब में  सम सामयिक स्थितियों व परिस्थितियों से जूखाने के विचार तो थे परन्तु युग की आवश्यकता --संक्षिप्तता, तीब्र-भाव सम्प्रेषण, समाधान की दिशा व प्रदर्शन का अभाव था जिसकी पूर्ति हित 'अगीत ' का जन्म हुआ|  अगीत रचनाकार समस्या का समाधान भी प्रस्तुत करता है, इसीलिये अन्य सारे आंदोलन आज लुप्तप्रायः हैं परन्तु 'अगीत' जीवित है | अतः निराला व समकालीन कवियों की रचनाओं व कविता आंदोलनों से अगीत एक भिन्न व अगले सोपान का अग्रगामी आंदोलन है, जिसका उद्देश्य हिन्दी साहित्य धारा को एक स्पष्ट दिशा व एक अर्थ देना है |
                 स्वतन्त्रता पश्चात पिछले चार दशकों में हम यह नहीं जान  पाए कि नई कविता को कौन सी सही  दिशा प्रदान की  जाय |  जिन-जिन विधाओं में कविता की गयी उसमें अस्वस्थता, सर्वसाधारण के लिए दुर्वोधता, दुरूहता झलकती रही | एक निरर्थकता, विचार विश्रन्खलता  झलकती रही |अतः सरल व सर्वग्राही कविता के लिए 'अगीत' की उत्पत्ति  हुई  | तत्कालीन कविता की निरर्थकता का उदाहरण देखिये.....

"मूत्र सिंचित मृत्तिका 
के वृत्त में ,
तीन टांगों पर खडा 
नतग्रीव ,
धैर्य धन गदहा |                      ...तथा..

" वो नीम के पेड़ के पीछे ,
भेंस  की पीठ पर कोहनी टिकाये,
एक लड़का और एक लडकी ;
देखते ही देखते चिकोटी काटी..
और......|"

              १९९५-९५ ई. में जो अगीत का मूल विचार ,  मूल तात्विक अर्थ -विवरण का घोषणा-पत्र (मेनीफेस्टो ) प्रकाशित हुआ तो उसमें यह स्पष्ट था कि  " अगीत खोज के लिए अग्रसर रहेगा और इस विधा में निरंतर नए -नए रचनाकार जुडकर विधा को एक वाद के  रूप में स्थापित करने में योगदान दे सकेंगे , क्योंकि खोज कभी रूढिगत नहीं होती |"
               छंद शास्त्रीय पक्ष के अनुसार -'अगीत पांच से दस तक पंक्तियों वाली कविता है जिसमें मात्रा व तुकांत बंधन नहीं है | यह एक वैज्ञानिक पद्धति है वर्तमान में सामाजिक सरोकारों व उनके समाधान के लिए विद्रोह है, एक नवीन खोज है | अगीत में वह सब कुछ है जिसके लिए प्रत्येक रचनाकार लालायित रहता है | अतः वह आगे आने के लिए प्रयासरत है |
                अगीत को अ -गीत या  गीत नहीं के अर्थ में नहीं लिया जाना चाहिए | इसका अर्थ है --अन्तर्निहित गीत, अंतर्द्वंद्व के गीत , अतुकांत गीत, अपरिमित भाव के गीत, अर्थवत्तात्मक  विचार व अनुशीलन के गीत , असीम ---अर्थात छंद बंधन की सीमा -अनिवार्यता से मुक्त गीत | इसमें लय से युक्त शब्द-योजना , शब्द-सौंदर्य सब कुछ है | अगीत व गीत में इतना ही भेद है कि गीत के नियमों का अगीत में लागू होना अनिवार्य नहीं है | कवि यदि चार से दस पंक्तियों में अपने सम्पूर्ण विचार  व  भावों को व्यक्त करने में समर्थ है तो वह अगीत आंदोलन से जुड सकता है | साहित्यकार श्री सोहन लाल 'सुबुद्ध' ने .." डा सत्य के श्रेष्ठ अगीत " नामक पुस्तक में कहा है कि..."  'अ'  का अर्थ सिर्फ विपरीतार्थक लगाना अल्पज्ञता होगी |"   तथा एक अन्य स्थान पर ( प्रतियोगिता दर्पण--२००३ ) वे कहते हैं..." अगीत का अर्थ है जमीन से जुडी वह छोटी कविता जिसमें लय हो, गति हो एवं समाजोपयोगी एक स्वस्थ विचार व सम्यक दृष्टि बोध हो |"
                 एक साक्षात्कार में अगीत विधा के संस्थापक डा रंगनाथ मिश्र 'सत्य' का कथन है कि.." गीत में 'अ' प्रत्यय लगा कर    मैंने अगीत को संज्ञा के रूप में स्वीकार किया | अगीत, गीत नहीं के रूप में न लिया जाय | यह एक वैज्ञानिक पद्धति है जिसने संक्षिप्तता को ग्रहण किया है, सतसैया के दोहरे की भांति |"  महाकवि पं. जगत नारायण पाण्डेय ' अगीतिका' के  आत्मकथ्य में कहते हैं कि .." अगीत पांच से दस पंक्तियों के बीच अपने आकार को ग्रहण करके भावगत तथ्य को सम्पूर्णता से प्रेषित करता है |"..यथा ...

"एक लघु वाक्य 
करता है हमारे भाव का
स्पष्ट सम्प्रेषण |
अगीत की लघु काया में 
लेता है आकार
हमारे विचार का
स्पष्ट विस्तृत वाच्य |"              ----श्री जगत नारायण पाण्डेय( अगीतिका से )

      डा सत्य के अनुसार --अगीत व्यक्ति एवं समाज व साहित्य के तनावों से उत्पन्न हुआ है | इसकी स्थापना के लिए दो माध्यम आवश्यक हैं--- (१) द्रव्य ( Matter)  तथा ..(२) आवेष्ठन (environment ) |
अगीत में वह सब कुछ है जो वर्तमान समाज के लिए आवश्यक है | वह ' वसुधैव कुटुम्बकम ' का हामी है | अगीतिका के आत्मकथ्य में पं. जगत नारायण पांडे कहते हैं..."अगीत वह जुगनू है जो बंद मुट्ठी  में भी अपने प्रकाश को उद्भाषित करता रहता है, अर्थात अगीत मौन रहते हुए भी मुखर रहता है जो मन व  बुद्धि के सम्यक अनुशीलन से उत्पन्न एक विधा है, एक धारा है |"
     
                                             कविता में लय व गति को सदैव स्वीकारा गया है | लय व गति के बिना कोई भी रचना जीवंत व कालजयी नहीं होती | अगीत में भी लय व गति को स्वीकारा गया है | अगीत का अभिप्रायः है---राष्ट्र व समाज के प्रति जमीन से जुडी छंदयुक्त, गद्यात्मक शैली की वह अतुकांत कविता जिसमें लय व गति हो, सरल व बोधगम्य भाषा, नए-नए शब्दों का प्रयोग व समष्टि कल्याण भाव हो | गेयता, अगेयता , तुकांत व मात्रा बंधन आवश्यक न हो | कवि ने कहा भी है..

" अन्तर्निहित  गीत है,  गति है,

लय यति गति व्यति वह अगीत है |

अ, असीम है,परिधि अपरिमित ,

अ  का अर्थ वह नहीं , नहीं है |

त्रिपदा, सप्तपदी  या षटपद ,

है अगीत वह नव-अगीत भी ||"                  ----डा श्याम गुप्त ..

 

                               श्री  हजारी प्रसाद द्विवेदी ने कहा था ...." काव्य अलंकरण का भोजन है , उससे मिलने वाला तोष इस पर निर्भर नहीं करता कि इसे किसने बनाया है व किन-किन वस्तुओं से बना है, व क्या क्या प्रक्रियाएं अपनाई गईं हैं | उसका महत्त्व व मूल्य स्वाद पर निर्भर करता है |"

                          गीत से भिन्न 'अगीत' नकार पर आधृत है जिसकी संक्षिप्तता में अनकहे का उन्माद है, शिल्प का अपना ही वैशिष्ट्य है | युग की नवीनतम  सम्भावनाओं का समावेश, कथ्य की नवोक्तियों व तथ्य की नवीन प्रस्तुति ..अगीत की अपनी अभिज्ञानता  का प्रतीक है | अगीत में लय युक्त शब्द-सौंदर्य योजना व अर्थ सौंदर्य सब कुछ है | यथा ...

" दिवस के अवसान में

उद्भासित अरुणाभा ,

देती है सन्देश 

क्षितिज पर मिलन का,

उषा की बेला में |"                        --- अगीतिका से ( पं. जगत नारायण पाण्डेय )

                            भाषा की नई संवेदना, कथ्य का अनूठा प्रयोग, संक्षिप्तता व परिमाण की पोषकता , बिम्बधर्मी प्रयोग के साथ सरलता से सरलता से भाव-सम्प्रेषण अगीत का एक और गुण है | देखें ....

" बूँद -बूँद बीज ये कपास के,

खिल खिल कर पड रही दरार ;

सडी-गली मछली के संग ,

उंच-नीच अंतर में

ढूँढ  रहा विस्मय, विस्तार ;

डूब गए कपटी विश्वास के |"             -------डा रंगनाथ मिश्र 'सत्य' 


           अगीत रचनाकार सिर्फ कल्पनाजीवी नहीं ..वह स्वजीवी, यथार्थजीवी व समाज जीवी है |  वह निराशावादिता के विपरीत सौंदर्यबोध व आशावाद को स्वीकारता है |  वर्ग-संघर्ष अभारतीय चिंतन है , उसके स्थान पर 'मंथन' का भारतीय भाव-शब्द का प्रयोग होना चाहिए | यह विचार मंथन -भाव अगीत-विधा का विशिष्ट गुण है जो समाजोपयोगी सोद्देश्य कविता व कालजयी साहित्य रचना के लिए महत्वपूर्ण व आवश्यक गुण है | अगीत का सामाजिक व साहित्यिक महत्ब उसके इस विशिष्ट गुण में निहित है | उदाहरणार्थ ...

"कवि चिथड़े पहने 

चखता संकेतों का रस,

रचता -रस, छंद, अलंकार ,

ऐसे कवि के क्या कहने |"            ------डा रंगनाथ मिश्र 'सत्य' .           

एवं  ....

" क्यों मानव ने भुला दिया है ,

वह ईश्वर का स्वयं अंश है |

मुझमें तुझमें , शत्रु-मित्र में ,

ब्रह्म समाया कण कण में वह;

और  स्वयं भी वही ब्रह्म है,

फिर क्या अपना और पराया ||"                     --- डा श्याम गुप्त ( सृष्टि महाकाव्य से )...


                    अगीत में पश्चिम के अंधानुकरण की अपेक्षा कविता को अपनी जमीन अपने चारों ओर के वातावरण पर रचाने का प्रयास खूब  है | चेतना में उद्बोधन भी है ...

" स्तम्भन एक और ....

संबंधी  भीड़-भाड 

ध्वंस  की कतारों में ;

मक्षिका नहा रही-

दूध के पिटारों में |

ढला ढला लगता सब ओर...

अपने में स्नेह-सिक्त,

तिरछा  भूगोल |"                   ---- डा सत्य ...

                                 हर नई विधा में कुछ चमत्कार होता है, परन्तु यदि उसमें समाज में अपेक्षित संस्कार , साहित्य के उचित गुण, भाव, कला व देश कालानुसार आस्था भी होती है तो वह कालजयी होती है, उसका समादर होता है| अगीत की लोकप्रियता का कारण निश्चय ही ज्ञान व अनुभव की आस्थामूलक भावना है | साहित्यकार श्री सोहन लाल सुबुद्ध का कहना है --" काव्य को परखने की दृष्टि बहुत एकाकी नहीं होनी चाहिए | काव्य मा महत्त्व उसकी समग्रता में निहित रहता है | इसमें गीत का भी महत्त्व है, अगीत का भी | काव्य में भेद-भाव नहीं चल सकता कि गीतकार, अगीतकार को तच्छ कह कर नकार दे |"   (---डा सत्य व उनके श्रेष्ठ अगीत के कथ्य में |) 

                सरलता  रुचिकरता, संक्षिप्तता , जन जन भाव संप्रेषणीयता , सन्देश की स्पष्टता व आकर्षण अगीत के प्रिय भाव हैं ---

"मौसम श्रृंगार नख-शिखों की ,

बातें  पुरानी    होगईं   हैं;

कवि गीत गाओ राष्ट्र के अब |"                 -- --त्रिपदा अगीत ( डा श्याम गुप्त )


" मन का कठोर होना ,

कितना मुश्किल होता है |

मन ही तो जीवन में 

कोमलतम होता है |

हम कितने भी पाषाण ह्रदय बन जाएँ,

अंतस में कहीं न कहीं ,

नेह प्रान्कुर बसता है |"                          -----स्नेह प्रभा |

 

                   एक साक्षात्कार में डा सत्य का कथन है कि..." भारतीय दर्शन के विचारों से ओत-प्रोत अगीत का सूत्रपात मैंने इसलिए किया कि अनाटक, अकविता, अकहानी जैसे  आंदोलन पाश्चात्य नक़ल पर चल रहे थे | अगीत का सम्बन्ध मनुष्य की आस्था  से है, भारतीयता से है, उसकी संस्कृति से है | अतः अगीत- हिन्दी व हिन्दी साहित्य के लिए विकास व उसे गति देने में सहायक व सक्षम है और इसीलिये यह विश्व भर में फ़ैल रहा है, तथा मैं भविष्य के प्रति आशान्वित हूँ |"


                   चेतन कविता, अचेतन कविता, खबरदार कविता, अमेरिका की बीटनिक पीढ़ी, बंगाल की भूखी पीढ़ी आदि कबकी काल-कवलित हो चुकीं | अगीत इन सब से अलग है, स्थायी रहा है और रहेगा | अगीत आंदोलन के एक और महत्वपूर्ण समाजोपयोगी व युगानुकूल मांग है कि हिन्दी पूर्ण राष्ट्र भाषा बने -----

"देव नागरी को अपनाएं

हिन्दी है जन जन की भाषा ,

भारत माता की अभिलाषा |

बने राष्ट्रभाषा अब हिन्दी,

सब बहनों की बड़ी बहन है 

हिन्दी सबका मान  बढाती ,

 हिन्दी का अभियान चलायें|"                  --- डा रंगनाथ मिश्र 'सत्य'

             मानवता, पतन, समाजोत्थान पर विचारशीलता, मंथन व समाधान के भाव दृष्टगत करें ....

" विकसित व विकासशील देशों में,

सबसे बड़ा अंतर ;

एक में मानवता अवशेष 

दूसरे में छूमंतर |"                        ---- धनसिंह मेहता 'अनजान'( प्रवासी भारतीय -अमेरिका )


" बेडियाँ तोडो 

ज्ञान दीप जलाओ,

नारी अब-

तुम्ही राह दिखाओ,

समाज को जोड़ो |"                       ----सुषमा गुप्ता ..

                 सम-सामयिक भाव, दृष्टिबोध ...अगीत का एक अन्य विशिष्ट गुण है | प्रदूषण व सत्य-सामाजिक व्यंग्य के भाव भी हैं | एक उदाहरण देखें ....

" आज के समाज का 

सबसे बड़ा व्यंग्य ;

सच को भी -

व्यंग्य कहकर,

कहना पड  रहा है |"                      ----- गिरीश पाण्डेय ( धरती जानती है )


" वाह रे प्रदूषण !

धरा हो या गगन, सलिल या पवन ,

यहाँ तक कि मानव मन -

भी प्रदूषित है |

असुराचारी मानव बना खरदूषण ,

कैसे सुधरे पर्यावरण |"                  ------सुरेन्द्र कुमार शर्मा ( मेरे अगीत छंद )

             कवि का अगीत प्रेम उसके प्रति ललक व भावना की उच्चता कुछ इस प्रकार मुखर हुई---

"जब भी उठी कल्पना मन में,

लिखने  बैठा गीत;

गीत  नहीं बन पाया साथी, 

वह बन गया अगीत |"                     -----राम गुलाम रावत 


                इस प्रकार राजनैतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक व साहित्यिक क्षेत्रों में बाधाओं व उपस्थित अंधकार के बावजूद भी अगीत कविता युग-परिवर्तन व नए युग का श्री गणेश करेगी यह अगीतकारों व अगीत के सद्भावी साहित्यकारों की प्रबल उत्कंठा, आकांक्षा व आशा है | ...

टूट रहा मन का विश्वास,

संकोची हैं सारी मन की रेखाएं,

रोक रहीं मुझको-

गहरी बाधाएं ,

अंधकार और बढ़ रहा ,

उलट रहा सारा इतिहास |"                       -----डा रंगनाथ मिश्र 'सत्य'


खोल दो घूंघट के पट ,

हटादो  ह्रदय पट से,

आवरण,

मिटे  तमिस्रा,

हो नव-विहान |"                                     ----श्रीमती  सुषमा गुप्ता 


"  ओ दिव्य कवि !

तेरी मधुर रागमयी बांसुरी की धुन

सागर की उत्ताल तरंगों से संगत करती,

आकाश के अंतहीन उसार में ,

कोमलता से गुंजन करती |"                    -----श्री धुरेन्द्र स्वरुप बिसरिया ( दिव्य-अगीत से )

                                                    --इति--अध्याय दो ....

                अध्याय दो समाप्त ...अगीत साहित्य दर्पण (क्रमश:).. अध्याय तीन ..अगली पोस्ट में ...

 

        






Friday, 14 September 2012

अगीत साहित्य दर्पण (क्रमश:)---प्रथम अध्याय --अगीत : एतिहासिक पृष्ठभूमि व परिदृश्य ......

      अगीत साहित्य दर्पण  (क्रमश:)---प्रथम अध्याय --अगीत : एतिहासिक पृष्ठभूमि व परिदृश्य ....

                         कविता  की अगीत विधा का प्रचलन भले ही कुछ दशक पुराना हो परन्तु अगीत की अवधारणा मानव द्वारा आनंदातिरेक में लयबद्ध स्वर में बोलना प्रारम्भ करने के साथ ही स्थापित  होगई थी| विश्व भर के काव्य ग्रंथों व समृद्धतम संस्कृत भाषा साहित्य में अतुकांत गीत, मुक्त छंद  या अगीत-- मन्त्रों , ऋचाओं व श्लोकों के रूप में सदैव ही विद्यमान रहे हैं|  लोकवाणी एवं लोक साहित्य में भी अगीत कविता -भाव सदैव उपस्थित रहा है |
                           वस्तुतः कविता वैदिक, पूर्व-वैदिक, पश्च-वैदिक व पौराणिक युग में भी सदैव मुक्त-छंद रूप ही थी| कालान्तर में मानव सुविधा स्वभाव वश, चित्रप्रियता वश- राजमहलों, संस्थानों, राजभवनों, बंद कमरों में सुखानुभूति प्राप्ति हित कविता छंद शास्त्र के बंधनों  व पांडित्य प्रदर्शन के बंधन में बंधती   गयी | नियंत्रण और अनुशासन प्रबल होता गया तथा वन-उपवन में मुक्त, स्वच्छंद विहरण करती कविता कोकिला गमलों व वाटिकाओं में सजे पुष्पों की भांति बंधनयुक्त होती गयी तथा  स्वाभाविक, हृदयस्पर्शी, निरपेक्ष काव्य , विद्वता प्रदर्शन व सापेक्ष कविता में परिवर्तित होता गया और साथ-साथ ही राष्ट्र, देश, समाज , जाति भी बंधनों में बंधते गए |
                               निराला से पहले भी आल्ह-खंड के जगनिक, टेगोर की बांग्ला कवितायें, जयशंकर प्रसाद , मैथिली शरण गुप्त . अयोध्या सिंह उपाध्याय 'हरिऔध', सुमित्रानंदन पन्त आदि कवि तुकांत कविता के साथ साथ  भिन्न-तुकांत व अतुकांत काव्य-रचना कर रहे थे | परन्तु वे गीति-छंद विधान के बंधनों से पूर्ण मुक्त नहीं थीं | उदाहरणार्थ...
"अधिक और हुई नभ लालिमा ,
दश दिशा अनुरंजित हो गयी |
सकल पादप पुंज हरीतिमा ,
अरुणिमा विनिमज्जित सी हुई  ||"  ......अयोध्या सिंह उपाध्याय' हरिओध'

"तो  फिर क्या हुआ,
सिद्धराज जय सिंह;
मर गया हाय-
तुम पापी प्रेत उसके |"   ........मैथिली शरण गुप्त ( सिद्धराज जय सिंह से )

: विरह अहह कराहते इस शब्द को,
निठुर विधि ने आंसुओं से है लिखा ||"    ..........सुमित्रा नंदन पन्त

             ' परिमल' में  निराला जी ने तीनों प्रकार की कवितायें तीन खण्डों में प्रस्तुत की हैं | अंतिम खंड में मुक्त-छंद कविता है | हिन्दी के उत्थान व बांग्ला से टक्कर व प्रगति की उत्कट लालसा लिए निराला, खड़ी बोली को सिर्फ आगरा के आस-पास की भाषा समझाने वालों को गलत ठहराने व खड़ी बोली- जो शुद्ध हिन्दी थी और राष्ट्र-भाषा के सर्वथा योग्य व हकदार थी --की सर्वतोमुखी प्रगति व विकास के हेतु कविता को छंद-बंधन से मुक्त करने को कटिबद्ध थे | इस प्रकार मुक्त-काव्य व स्वच्छंद कविता की स्थापना हुई|  परन्तु निरालायुग में, उससे पहले व स्वयं निराला जी की अतुकांत व छंद-मुक्त  कविता मुख्यतः छायावादी प्रभाव, यथार्थ-वर्णन व सामाजिक यथास्थिति वर्णन तक सीमित थी, क्योंकि उनका उद्देश्य एक सामाजिक युगकर्म--कविता को मुक्त करना व हिन्दी का उत्थान  था |अतः वे कवितायें लंबी-लंबी थीं, उनमें आगे के आधुनिक युग की आवश्यकता--संक्षिप्तता, सरलता, सहजता के साथ तीब्र भाव-सम्प्रेषण व सामाजिक सरोकारों का उचित समाधान वर्णन व प्रस्तुति का भाव था| उदाहरणार्थ---" वह आता ...",  "अबे सुन बे गुलाब .." ,  वह तोडती  पत्थर ..."...आदि प्रसिद्द कविताओं में समस्या वर्णन तो है परन्तु उनका समुचित समाधान प्रस्तुति नहीं है | इन्हीं विशिष्ट अभावों की पूर्ती हित के साथ साथ मुक्त-छंद, अतुकांत कविता , हिन्दी भाषा , साहित्य व समाज के उत्तरोत्तर और अग्रगामी विकास व प्रगति हेतु हिन्दी साहित्य की नवीन धारा " अगीत-विधा" का प्रादुर्भाव हुआ, जो निराला-युग से आगे कविता की यात्रा को नवीन भाव से आगे बढाते हुए  एवं उसी धारा की अग्रगामी विकासमान धारा होते हुए भी निराला के मुक्त-छंद काव्य से एक पृथक सत्ता है |

                    इस प्रकार संस्कृत व वैदिक साहित्य के अनुशीलन व अनुकरण में महाप्राण सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला' द्वारा हिन्दी कविता को तुकांत-बद्धता व छंद-बद्धता की अनिवार्यता से मुक्त किये जाने पर हिन्दी साहित्य जगत में अतुकांत, मुक्त-छंद कविता का विधिवत सूत्रपात हुआ और आज वह पूरे हिन्दी जगत में सर्व-मान्य है| इसी के साथ अकविता, नईकविता, चेतन कविता, खबरदार कविता, अचेतन कविता, यथार्थ कविता, ठोस कविता , प्रगतिवाई कविता आदि का आविर्भाव हुआ| अतुकांत छंदों को रबड़-छंद, केंचुआ-छंद आदि विभिन्न नामों से पुकारा गया ; परन्तु कोई सर्वमान्य नाम नहीं मिल पाया था| इन सभी में संक्षिप्तता, सम-सामयिक वर्णन के साथ समाधान प्रस्तुति, सुरुचिकरता, सरलता आदि  आधुनिक परिस्थिति के काव्य की क्षमता का अभाव था , अतः ये सभी नामों की कवितायें कालान्तर में लुप्त होगईं ,परन्तु जैसा पहले कहा जाचुका है कि उपरोक्त अभावों की पूर्ति-हित अगीत कविता की उत्पत्ति हुई एवं उसे गति मिली |

                  संक्षिप्तता, समस्या समाधान, अतुकांत मुक्त-छंद प्रस्तुति के साथ-साथ गेयता को समेटती हुई गीत सुरसरि  की सह-सरिता , नयी अतुकांत कविता "अगीत" एक अल्हड निर्झरिणी की भांति, उत्साही व राष्ट्र-प्रेम से ओत -प्रोत , गीत, गज़ल, छंद, नव-गीत आदि सभी काव्य-विधाओं में सिद्धहस्त कवि डा.रंगनाथ मिश्र 'सत्य' के अगीतायन से, लखनऊ विश्व-विद्यालय में हिदी की रीडर व सुधी साहित्यकार डा उषा गुप्ता की सुप्रेरणा व आशीर्वाद से निस्रत हुई | सन १९६५-६६ ई.में डा. सत्य ने "अखिल भारतीय अगीत परिषद "की लखनऊ में स्थापना की तथा अगीत विधा को विधिवत जन्म दिया तो वह अगीत-धारा कुछ इस प्रकार मुखरित हुई --

" आओ हम राष्ट्र को जगाएं
आजादी का जश्न मनाना,
हमारी मजबूरी नहीं-
अपितु कर्तव्य है |
आओ हम सब मिलकर 
 विश्व-बंधुत्व अपनाएं,
स्वराष्ट्र को प्रगति पथ पर -
आगे बढाएं |"                                ............डा रंगनाथ मिश्र 'सत्य'

                

                           सन १९६७ ई. में परिषद को पंजीकृत कराया गया सन १९६७ से ही' अगीत त्रैमासिक' पत्रिका का संपादन भी किया गया| इसप्रकार अगीत --एक जन-आंदोलन होकर उभरा | इसी क्रम में १९७५ में 'संतुलित कहानी' व १९९८ में 'संघात्मक समीक्षा पद्धति' का जन्म हुआ| १९६६ से ही अगीत -विधा एक आंदोलन के रूप में विविध झंझावातों को सहते हुए अबाध गति से आगे बढती जा रही है | देश-विदेश में फैले हुए कवियों द्वारा यह विधा देश की सीमाओं को पार करके अंतर्राष्ट्रीय क्षितिज पर अपना परचम लहराने लगी है |

                 सन  १९६६ ई. से ही डा रंगनाथ मिश्र 'सत्य' के साथ अनेक उत्साही व प्रगतिवादी कवि अगीत आंदोलन से जुड गये थे| जिनमें वीरेंद्र निझावन, काशी नरश श्रीवास्तव, मंजू सक्सेना,गिरिजा शंकर, डा अमरनाथ बाजपेयी, नित्य्नाथ तिवारी, जावेद अली, मंगल दत्त त्रिवेदी 'सरस', सुभाष हुडदंगी , घनश्याम दास गुप्त, रामदत्त मिश्र, धन सिंह मेहता, राजेश द्विवेदी आदि प्रमुख हैं |

                 आगे चलकर अगीत विधा के मुखपत्र 'अगीतायन' के प्रचार-प्रसार से अन्यान्य कवियों व साहित्यकारों के इस विधा से जुडने का सिलसिला बढाता गया एवं अगीत में विभिन्न रचनाएँ व संग्रह रचे जाने लगे|और हिन्दी कविता में एक नए युग का सूत्रपात हुआ|  इनमें श्रीकृष्ण तिवारी(खिडकी से झांकते अगीत )...नित्यनाथ तिवारी (  उन्मुक्त अगीत)..श्रीमती गिरिजादेवी 'निर्लिप्त' (मेरे प्रिय अगीत )...सुदर्शन कमलेश, प्रेमचन विशाल, तेज नारायण (अगीत-प्रवाह)...राजीव्शरण, कौशलेन्द्र पाण्डेय, रामकृष्ण दीक्षित'फक्कड़'..घनश्याम दास गुप्ता...रामगुलाम रावत, अनिल किशोर'निडर'...इन्दुबाला गह्लौत'इन्दुछाया' आदि के नाम उल्लेखनीय हैं |
               इस प्रकार अगीत विधा चरण दर चरण अग्रसर होती गयी | श्री तेज नारायण राही, सोहन लाल सुबुद्ध (अगीत श्री ) मंजू सक्सेना'विनोद', रवीन्द्र राजेश, डा योगेश गुप्त, पार्थोसें, देवेश द्विवेदी 'देवेश', नन्द किशोर पांडे,  ओमप्रकाश, कैलाश निगम, सुधा अनुपम, श्री गोपाल श्रीवास्तव, चंद्रपाल सिंह 'चन्द्र', डा नीरज कुमार, अवधेश मिश्र , भगत राम पोखरियाल, कुंवर बेदाग़, विनय सक्सेना, रचना शुक्ला, वासुदेव मिश्र, आदि कवि, साहित्यकार, समीक्षक व शास्त्रकार इस विधा से प्रभावित होकर जुडते गए एवं अनेकानेक रचनाएँ, कृतियाँ,अगीत काव्य संग्रहों की रचना हुई, आलेख लिखे गए और अगीत-विधा का प्रवाह अक्षुण्ण रूप से होता रहा|
              अगीत विधा के प्रसार-प्रचार के साथ साथ राष्ट्रीय व अंतर्राष्ट्रीय क्षितिज पर विभिन्न रचनाकारों , समीक्षकों व अध्येताओं द्वारा भी अगीत का लगातार उल्लेख किया जाता रहा| डा वेरास्की ( वारसा विवि पोलेंड), डा वोलीसेव ( मास्को विवि, सोवियत रूस) ने भी अगीत की महत्ता को अपने निबन्धों में स्वीकारा है तथा देश भर के विश्व-विद्यालयों ने अगीत की आवश्यकता पर बल दिया | द्वितीय युद्धोत्तर हिन्दी साहित्य का इतिहास ( राजपाल एंड सन्स) आई लगभग दो दर्ज़न इतिहास ग्रंथों ,शोध ग्रंथों व समीक्षा ग्रंथों में अगीत का लगातार उल्लेख होता रहा है|  नागपुर में आयोजित तृतीय विश्व हिन्दी सम्मलेन में अगीत परिषद की ओर से डा रंगनाथ मिश्र'सत्य' ने प्रतिनिधित्व किया जिससे अंतर्राष्ट्रीय क्षितिज पर अगीत को बढ़ावा मिला |
             विश्वविद्यालय की स्नातकोत्तर परीक्षाओं तक में अगीत विधा पर प्रश्न पूछे गए\ आकाशवाणी व दूरदर्शन पर भे कवि अपने अगीत रचनाएँ प्रसारित करते हैं| १९६६ ई. में श्री अनुराग मिश्र सुपुत्र डा रंगनाथ मिश्र'सत्य' द्वारा 'अगीतायन' साप्ताहिक पत्रिका का कार्यभार व संपादन संभाल लेने से अगीत-विधा के प्रचार-प्रसार को नया बल मिला है | नवीन व युवा कवि इस विधा को और आगे लेजाने को कटिबद्ध हैं, नवीन उत्साह  व गति के साथ|  डा योगेश गुप्ता , मंजू लता तिवारी सोनी, स्वर्णा सक्सेना , बुद्धिराम विमल, पार्थोसेन, कुमारी रजनी श्रीवास्तव, स्नेह प्रभा, क्षमापूर्णा पाठक, श्रृद्धा विजय लक्ष्मी , विजय कुमारी मौर्या , विनय सक्सेना, डा मंजू श्रीवास्तव, मिर्ज़ा हसन नासर, सुभाष हुडदंगी , कवि वुद्दा, वाहिद अली वाहिद ,आदि कवि अगीत को गति देते रहे |इस प्रकार डा सत्य के सद्भावी प्रयासों से अनेकानेक कवि इस विधा से जुडते गए और कविवर अनिल किशोर 'निडर' को कहना पड़ा....

                                              खिले अगीत-गीत हर आनन्,
                                               तुम हो इस युग के चतुरानन |       -----------सफर नामा से |..
         सन १९६८ में डा रंग नाथ मिश्र सत्य जी की साहित्य सेवा के लिए उन्हें .राहुल सांस्कृत्यायन मंच उत्तर प्रदेश की ओर से तत्कालीन राज्यपाल श्री मोतीलाल बोरा द्वारा सम्मान दिया गया | तत्पश्चात महामहिम राज्यपालसूरजभान द्वारा उन्हें 'सरस्वती सम्मान ' से विभूषित किया गया और अगीत को एक नया आयाम मिला |
                     अगीत को एक सुखद मोड़ तब मिला जब सन २००३ई. में अगीत परिषद के वरिष्ठ सदस्य एडवोकेट पं. जगत नारायण पांडेय ने राम कथा  पर आधारित खंड काव्य " मोह और पश्चाताप" तथा २००४ में "सौमित्र गुणाकर" महाकाव्य अगीत विधा में लिखा जो अखिल  भारतीय अगीत परिषद द्वारा प्रकाशित कराया गया | ये दोनों रचनाएँ " गतिबद्ध सप्तपदी अगीत छंद"  में रची गयीं जो पांडे जी द्वारा स्वरचित थे एवं प्रथम बार प्रयोग में लाये गए अगीत-विधा के नवीन छंद थे | ये दोनों कृतियाँ अगीत विधा में लिखे गए सर्वप्रथम खंड काव्य व महाकाव्य थे | एक उदाहरण प्रस्तुत है....
" गणनायक की कृपादृष्टि को ,
माँ वाणी ने दिया सहारा |
खुले कपाट बुद्धि के जब, तब-
हुए शब्द-अक्षर संयोजित;
पाई  शक्ति लेखनी ने फिर|
रामानुज की विमल कथा का,
प्रणयन है अगीत शैली में ||"            ------सौमित्र गुणाकर महाकाव्य से |

                सन २००५ ई. में मैं ( डा श्याम गुप्त) डा रंगनाथ मिश्र'सत्य' के संपर्क में आया और अगीत परिषद का सदस्य बना | इसमें मेरे चिकित्सालय के सहयोगी अगीत कवि श्री विनय सक्सेना का महत्वपूर्ण योगदानरहा जिन्होंने मुझे सर्वप्रथम 'अगीत' व अगीत परिषद' की जानकारी दी| इस प्रकार अगीत कविता जगत से मेरा प्रथम बार परिचय हुआ | सन २००४ ई. में मेरी प्रथम कृति 'काव्य-दूत' प्रकाशित होचुकी थी जिसमें तुकांत, छंदोबद्ध व अतुकांत सभी विधाओं के गीत संकलित थे | २००५ में डा सत्य की प्रेरणा से मेरा तृतीय काव्य संकलन 'काव्य-मुक्तामृत " अतुकांत छंदों  में प्रकाशित हुआ जो अगीत परिषद के प्रकाशन में मेरी प्रथम कृति थी |

                      अगीत कविता के छंदों की संक्षिप्तता के बावजूद कथ्य की सम्पूर्णता के साथ भाव-संप्रेषणीयता मुझे 'सतसैया के दोहरे ज्यों नाविक के तीर " एवं उर्दू के शे'र की भांति 'गागर में सागर' के भाव में सुस्पष्टता से संप्रेषणीय, सुग्राह्य व मनमोहक लगी |  मैंने अनुभव किया कि अगीत में जन-जन की कविता बनने तथा सामान्य जन के लिए भी भाव-सम्प्रेषण की अपार क्षमता के साथ-साथ अग्रगामी युगानुकूल संभावनाएं भी हैं|  अतः मैंने स्वयं ( डा श्याम गुप्त ) सन २००६ ई. में शाश्वत आध्यात्मिक रहस्यमय विषय - 'सृष्टि, ईश्वर व जीवन-जगत के प्रादुर्भाव ' पर , विज्ञान व अध्यात्म पर समन्वित महाकाव्य " सृष्टि ( ईषत इच्छा या बिगबैंग-एक अनुत्तरित उत्तर )". अगीत विधा में  लिखा जिसमें अगीत व साहित्य के इतिहास में प्रथम बार किसी मूर्त व्यक्तित्व के स्थान पर अमूर्त ने नायकत्व का निर्वाह किया है|   इस कृति की सफलता व पत्रकारों, विद्वानों, समीक्षकों द्वारा आलेखों से यह सिद्ध हुआ कि अगीत में आध्यात्मिक, वैज्ञानिक व गूढ़ विषयों पर भी रचनाएँ की जा सकती हैं | सन-..२००८ में अगीत विधा पर मेरी द्वितीय कृति "शूर्पणखा" खंड काव्य प्रकाशित हुई जिसे मैंने "काव्य-उपन्यास" का नाम दिया  है |

              सृष्टि महाकाव्य के प्रणयन के लिए मैंने अतुकांत, सममात्रिक, लयबद्ध गेय 'अगीत षटपदियों' का निर्माण किया जो अगीत में एक और नवीन छंद की सृष्टि थी | सृष्टि महाकाव्य के लोकार्पण के समय इन अगीत  षटपदियों को भातखंडे संगीत महाविद्यालय ,लखनऊ की प्राचार्या श्रीमती कमला श्रीवास्तव द्वारा संगीतमयता से गाकर बड़े सुन्दर एवं मनमोहक ढंग से प्रस्तुत किया गया | एक उदाहरण देखें....


" नए तत्व नित मनुज बनाता ,
जीवन कठिन प्रकृति दोहन से |
अंतरिक्ष आकाश प्रकृति में,
तत्व, भावना, अहं व ऊर्जा ;
के नवीन नित असत कर्म से,
भार धरा पर बढता जाता ||"              ---सृष्टि महाकाव्य से ....

   इसी वर्ष कवयित्री श्रीमती सुषमागुप्ता के एक छोटे से अगीत से प्रेरित होकर मैंने अगीत के एक अन्य छंद
 " नव-अगीत" का सूत्रपात किया जो पारंपरिक अगीत से भी  लघु है....यथा...
" बेडियाँ तोडो , 
ज्ञान दीप जलाओ;
नारी  अब,
तुम्ही राह दिखाओ ,
समाज को जोड़ो |"                      ---- नव अगीत ( श्रीमती सुषमा गुप्ता )

अगीत छंद को और आगे बढाते हुए , क्रांतिकारी, स्वतन्त्रता सेनानी ,पत्रकार, साहित्यकार पद्मश्री पं. बचनेश त्रिपाठी  के निधन पर श्रृद्धांजलि स्वरुप मेरे द्वारा एक नवीन अगीत-छंद- "त्रिपदा अगीत छंद"  का प्रयोग किया गया | वह प्रथम छंद श्री बचनेश जी की स्मृत-श्रृद्धांजल स्वरुप था....

" सादा जीवन औ विचार से,
उच्च भावना से पूरित मन;
सच्चे निष्प्रह युग-ऋषि थे वे |"

            इस प्रकार अगीत की यह अल्हड निर्झरिणी , आज पूर्ण-रूप से  युवा होकर अगीत काव्य की विभिन्न धाराओं से समाहित कालिंदी का रूप धरकर कल-कल प्रवहमान है तथा उत्तरोत्तर नवीन धाराओं -उपधाराओं से आप्लावित होरही है| सिर्फ भारत में ही नहीं सारे विश्व में अगीत की गूँज है | एक वार्तालाप में डा सत्य का कथन था कि --" यद्यपि अगीत कवि किसी 'वाद ' का सहारा नहीं लेता; परन्तु इतने लंबे समय तक चलने वाला व स्थायी होने वाला आंदोलन स्वयं एक वाद का रूप ले लेता है , अतः काव्य की इस धारा को 'अगीतवाद" की संज्ञा दी जा सकती है |
          साहित्य की यह अगीत धारा, प्रत्येक माह के प्रथम रविवार को 'अखिल भारतीय अगीत परिषद, राजाजी पुरम, लखनऊ के तत्वावधान में गोष्ठियों, कवि सम्मेलनों , कवि-मेला, कवि-कुम्भ व एक मार्च को 'साहित्यकार दिवस' मनाकर तथा 'अगीतायन' नामक समाचार पत्र के प्रकाशन द्वारा नए-नए व युवा कवियों को प्रोत्साहन देकर, हिन्दी भाषा, व साहित्य की अतुलनीय सेवा में लगी हुई है| अगीत के कवि-पुष्प, काव्य-वाटिका में अपना अपना सौरभ विखेर रहे हैं जो अन्य कवियों, साहित्यकारों व जनमानस को विविध रूपों से हर्षित व आंदोलित करते जारहे हैं | इस प्रकार उपन्यासकार प्रोफ. यशपाल के वाक्य "... अगीत का भविष्य उज्जवल है "...श्री अमृत लाल  नागर के कथन "...यदि अगीत फैशन के लिए नहीं है तो उसका भविष्य उज्जवल है"..एवं श्री सूर्यप्रसाद दीक्षित के शब्द ..." अगीत वस्तुत: गीति काव्य का ही अभिकल्प है "...वस्तुतः सत्य सिद्ध होरहे हैं और कहा जा सकता है कि ---

"रंगनाथ की कविता का रंग,
ज्यों  ज्यों समय बीतेगा ,
धुलेगा नहीं वरन निखरेगा |
क्योंकि समय के शूलों को,
झेलना, फूलना, भूलना -
यह सत्य का स्वभाव है |"       ---- कवि पाण्डेय रामेन्द्र ( सफर नामा से )

तथा---
" पौधा जो अगीत का सत्य ने लगाया था,
तन मन का रंग रूप जन जन को भाया था |
बना सुमन-वल्लरी, काव्य शिखर चूमता ,
श्रम, श्रृद्धा , सत्य-भाव सींचा औ सजाया था ||"       ---- डा श्याम गुप्त ..


                प्रथम अध्याय समाप्त .... क्रमश: द्वितीय अध्याय ...अगली पोस्ट में ...




Wednesday, 12 September 2012

Tuesday, 11 September 2012

अगीत साहित्य दर्पण..क्रमश:...आभार..डा श्याम गुप्त...


                        आभार

                                     " तत्सवितुर्वरेण्यं "   उस तेजपुन्ज परब्रह्म की प्रेरणा एवं माँ वाग्देवी की कृपा-भिक्षा के आभार से कृत-कृत्य मैं सर्वप्रथम लखनऊ नगर देश-विदेश बसे अगीत-विधा के समर्थक, सहिष्णु, सद्भावी, तटस्थ, आलोचक, प्रतिद्वंद्वी एवं अगीत की प्रतिष्ठा प्रगति के द्वारा हिन्दी भाषा साहित्य की सेवा उन्नति के आकांक्षी   सहयोगी कवियों, साहित्यकारों, साहित्याचार्यों, समीक्षकों, विद्वानों प्रवुद्ध पाठकों का आभारी हूँ जो अपनी खट्टी, मीठी, तिक्त  उक्तियों, कथनों, वचनों, संवादों, आक्षेपों, आलेखों टिप्पणियों रूपी सुप्रेरणा  द्वारा इस रचना की परिकल्पना कृतित्व में सहायक हुए
                            अगीत के संस्थापक, प्रवर्तक डा रंगनाथ मिश्र 'सत्य' के सद्भावनापूर्ण सत्परामर्श विषय वैविध्य पर विवेचनात्मक तथ्यपूर्ण जानकारी प्रदायक सहयोग के बिना अगीत कविता-विधा के छंद-विधान पर  यह प्रथम कृति " अगीत साहित्य दर्पण " कब आकार ले पाती   कृति के लिए श्रमसाध्य प्रस्तावना लिखने के लिए भी मैं उनका आभारी हूँ
              लखनऊ विश्व विद्यालय, लखनऊ के “ हिन्दी तथा आधुनिक भारतीय भाषा विभाग” की विभागाध्यक्ष प्रोफ. कैलाश देवी सिंह पी.एच.डी., डी.लिट. द्वारा अगीत काव्यान्दोलन पर एतिहासिक दृष्टि व उसके महत्त्व पर प्रकाश डालते हुए लिखी गयी विद्वतापूर्ण ”शुभाशंसा” के लिए मैं उनका आभारी हूँ | उन्होंने अपने अति व्यस्त समय में से कुछ समय का दान देकर मुझे कृत-कृत्य किया |   
                मैं अपने गुरुवासरीय गोष्ठी के कवि संगी समर्थ कवि, साहित्यकार एवं कविता  की छंद-विधा परछंद-विधान’  के लेखक श्री राम देव लाल 'विभोर' द्वारा इस कृति के  लिए विद्वतापूर्ण विवेचनात्मक भूमिका  " दो शब्द " लिखने के लिए उनका आभारी हूँ     मैं  अपने गुरुवासरीय गोष्ठी, प्रतिष्ठा, प्राची , चेतना, अखिल भारत विचार क्रान्ति मंच, बिसरिया शिक्षा संस्थान  सृजन  साहित्यिक सांस्कृतिक संस्थाओं की गोष्ठियों के कवि मित्रों का भी आभारी हूँ जिनके विभिन्न अमूल्य विचार इस कृति की रचना में सहायक हुए
                    डा .रंगनाथ मिश्र 'सत्य', श्री सोहन लाल 'सुबुद्ध',  अनिल किशोर 'निडर', विनय सक्सेना, तेज नारायण 'राहीसुभाष 'हुड़दंगी', श्रीमती सुषमा गुप्ता, अगीत गोष्ठी के संयोजक   समीक्षक श्री पार्थो सेन, युवाओं की साहित्यिक संस्था 'सृजनके अध्यक्ष डा योगेश गुप्त, महाकवि पंडित  जगत नारायण पाण्डेय एवं  श्री सुरेन्द्र कुमार वर्मा का विशेष आभारी हूँ जिनके आलेख, कृतियाँ   रचनाएँ इस कृति की रचना में सहायक हुईं साथ ही साथ मैं  अखिल  भारतीय अगीत परिषद्, लखनऊ  के सभी कवि, कवयित्रियों मित्रों एवं 'अगीतायन' पत्र के सम्पादक श्री अनुराग मिश्र का भी आभारी हूँ जिनकी रचनाओं प्रकाशनों का उदाहरण स्वरुप इस कृति में उल्लेख किया गया है
                                   मैं सभी पुरा, पूर्व वर्तमान कवियों, आचार्यों, साहित्याचार्यों, काव्याचार्यों, विद्वानों रचनाकारों का आभारी हूँ ..मेरे अंतस में भावितजिनके विचारों   भावों ने इस कृति में समाहित होकर मुझे कृत-कृत्य  किया तथा जिनके विचार, आलेख, कथन, शोधपत्र आदि का इस कृति " अगीत साहित्य दर्पणमें उल्लेख किया गया है|
                 
                              ------डा श्यामगुप्त ...