अगीत साहित्य दर्पण -अध्याय दो..अगीत क्यों व क्या है एवं उसकी उपादेयता .....
स्वतन्त्रता के पश्चात भारतीय समाज की भांति साहित्य भी अपनी पूर्व रूढियों व परम्पराओं से हटकर अधिक चैतन्य व स्वाभाविक होने लगा | कविगण समाज का मुर्दा स्वरुप, द्वंद्व, कुंठा, हताशा, निराशा, महंगाई, बेरोजगारी, भ्रष्टाचार, रंग बदलते हुए व्यक्ति, शासन व समाज, टूटती सामाजिक व्यवस्था व पुरातन मूल्यों से मुठभेड, युद्धों की विभीषिका आदि सामयिक भावों पर लिखने लगे | निराला जी ने अतुकांत छंद प्रचलित किया, साथ ही नई कविता, खबरदार कविता, अकविता, चेतन कविता, अचेतन कविता,यथार्थवादी कविता आदि वुभिन्न विधाओं का प्रादुर्भाव हुआ | इन सब में सम सामयिक स्थितियों व परिस्थितियों से जूखाने के विचार तो थे परन्तु युग की आवश्यकता --संक्षिप्तता, तीब्र-भाव सम्प्रेषण, समाधान की दिशा व प्रदर्शन का अभाव था जिसकी पूर्ति हित 'अगीत ' का जन्म हुआ| अगीत रचनाकार समस्या का समाधान भी प्रस्तुत करता है, इसीलिये अन्य सारे आंदोलन आज लुप्तप्रायः हैं परन्तु 'अगीत' जीवित है | अतः निराला व समकालीन कवियों की रचनाओं व कविता आंदोलनों से अगीत एक भिन्न व अगले सोपान का अग्रगामी आंदोलन है, जिसका उद्देश्य हिन्दी साहित्य धारा को एक स्पष्ट दिशा व एक अर्थ देना है |
स्वतन्त्रता के पश्चात भारतीय समाज की भांति साहित्य भी अपनी पूर्व रूढियों व परम्पराओं से हटकर अधिक चैतन्य व स्वाभाविक होने लगा | कविगण समाज का मुर्दा स्वरुप, द्वंद्व, कुंठा, हताशा, निराशा, महंगाई, बेरोजगारी, भ्रष्टाचार, रंग बदलते हुए व्यक्ति, शासन व समाज, टूटती सामाजिक व्यवस्था व पुरातन मूल्यों से मुठभेड, युद्धों की विभीषिका आदि सामयिक भावों पर लिखने लगे | निराला जी ने अतुकांत छंद प्रचलित किया, साथ ही नई कविता, खबरदार कविता, अकविता, चेतन कविता, अचेतन कविता,यथार्थवादी कविता आदि वुभिन्न विधाओं का प्रादुर्भाव हुआ | इन सब में सम सामयिक स्थितियों व परिस्थितियों से जूखाने के विचार तो थे परन्तु युग की आवश्यकता --संक्षिप्तता, तीब्र-भाव सम्प्रेषण, समाधान की दिशा व प्रदर्शन का अभाव था जिसकी पूर्ति हित 'अगीत ' का जन्म हुआ| अगीत रचनाकार समस्या का समाधान भी प्रस्तुत करता है, इसीलिये अन्य सारे आंदोलन आज लुप्तप्रायः हैं परन्तु 'अगीत' जीवित है | अतः निराला व समकालीन कवियों की रचनाओं व कविता आंदोलनों से अगीत एक भिन्न व अगले सोपान का अग्रगामी आंदोलन है, जिसका उद्देश्य हिन्दी साहित्य धारा को एक स्पष्ट दिशा व एक अर्थ देना है |
स्वतन्त्रता पश्चात पिछले चार दशकों में हम यह नहीं जान पाए कि नई कविता को कौन सी सही दिशा प्रदान की जाय | जिन-जिन विधाओं में कविता की गयी उसमें अस्वस्थता, सर्वसाधारण के लिए दुर्वोधता, दुरूहता झलकती रही | एक निरर्थकता, विचार विश्रन्खलता झलकती रही |अतः सरल व सर्वग्राही कविता के लिए 'अगीत' की उत्पत्ति हुई | तत्कालीन कविता की निरर्थकता का उदाहरण देखिये.....
"मूत्र सिंचित मृत्तिका
के वृत्त में ,
तीन टांगों पर खडा
नतग्रीव ,
धैर्य धन गदहा | ...तथा..
" वो नीम के पेड़ के पीछे ,
भेंस की पीठ पर कोहनी टिकाये,
एक लड़का और एक लडकी ;
देखते ही देखते चिकोटी काटी..
और......|"
१९९५-९५ ई. में जो अगीत का मूल विचार , मूल तात्विक अर्थ -विवरण का घोषणा-पत्र (मेनीफेस्टो ) प्रकाशित हुआ तो उसमें यह स्पष्ट था कि " अगीत खोज के लिए अग्रसर रहेगा और इस विधा में निरंतर नए -नए रचनाकार जुडकर विधा को एक वाद के रूप में स्थापित करने में योगदान दे सकेंगे , क्योंकि खोज कभी रूढिगत नहीं होती |"
छंद शास्त्रीय पक्ष के अनुसार -'अगीत पांच से दस तक पंक्तियों वाली कविता है जिसमें मात्रा व तुकांत बंधन नहीं है | यह एक वैज्ञानिक पद्धति है वर्तमान में सामाजिक सरोकारों व उनके समाधान के लिए विद्रोह है, एक नवीन खोज है | अगीत में वह सब कुछ है जिसके लिए प्रत्येक रचनाकार लालायित रहता है | अतः वह आगे आने के लिए प्रयासरत है |
अगीत को अ -गीत या गीत नहीं के अर्थ में नहीं लिया जाना चाहिए | इसका अर्थ है --अन्तर्निहित गीत, अंतर्द्वंद्व के गीत , अतुकांत गीत, अपरिमित भाव के गीत, अर्थवत्तात्मक विचार व अनुशीलन के गीत , असीम ---अर्थात छंद बंधन की सीमा -अनिवार्यता से मुक्त गीत | इसमें लय से युक्त शब्द-योजना , शब्द-सौंदर्य सब कुछ है | अगीत व गीत में इतना ही भेद है कि गीत के नियमों का अगीत में लागू होना अनिवार्य नहीं है | कवि यदि चार से दस पंक्तियों में अपने सम्पूर्ण विचार व भावों को व्यक्त करने में समर्थ है तो वह अगीत आंदोलन से जुड सकता है | साहित्यकार श्री सोहन लाल 'सुबुद्ध' ने .." डा सत्य के श्रेष्ठ अगीत " नामक पुस्तक में कहा है कि..." 'अ' का अर्थ सिर्फ विपरीतार्थक लगाना अल्पज्ञता होगी |" तथा एक अन्य स्थान पर ( प्रतियोगिता दर्पण--२००३ ) वे कहते हैं..." अगीत का अर्थ है जमीन से जुडी वह छोटी कविता जिसमें लय हो, गति हो एवं समाजोपयोगी एक स्वस्थ विचार व सम्यक दृष्टि बोध हो |"
एक साक्षात्कार में अगीत विधा के संस्थापक डा रंगनाथ मिश्र 'सत्य' का कथन है कि.." गीत में 'अ' प्रत्यय लगा कर मैंने अगीत को संज्ञा के रूप में स्वीकार किया | अगीत, गीत नहीं के रूप में न लिया जाय | यह एक वैज्ञानिक पद्धति है जिसने संक्षिप्तता को ग्रहण किया है, सतसैया के दोहरे की भांति |" महाकवि पं. जगत नारायण पाण्डेय ' अगीतिका' के आत्मकथ्य में कहते हैं कि .." अगीत पांच से दस पंक्तियों के बीच अपने आकार को ग्रहण करके भावगत तथ्य को सम्पूर्णता से प्रेषित करता है |"..यथा ...
"एक लघु वाक्य
करता है हमारे भाव का
स्पष्ट सम्प्रेषण |
अगीत की लघु काया में
लेता है आकार
हमारे विचार का
स्पष्ट विस्तृत वाच्य |" ----श्री जगत नारायण पाण्डेय( अगीतिका से )
डा सत्य के अनुसार --अगीत व्यक्ति एवं समाज व साहित्य के तनावों से उत्पन्न हुआ है | इसकी स्थापना के लिए दो माध्यम आवश्यक हैं--- (१) द्रव्य ( Matter) तथा ..(२) आवेष्ठन (environment ) |
अगीत में वह सब कुछ है जो वर्तमान समाज के लिए आवश्यक है | वह ' वसुधैव कुटुम्बकम ' का हामी है | अगीतिका के आत्मकथ्य में पं. जगत नारायण पांडे कहते हैं..."अगीत वह जुगनू है जो बंद मुट्ठी में भी अपने प्रकाश को उद्भाषित करता रहता है, अर्थात अगीत मौन रहते हुए भी मुखर रहता है जो मन व बुद्धि के सम्यक अनुशीलन से उत्पन्न एक विधा है, एक धारा है |"
कविता
में लय व गति को सदैव स्वीकारा गया है | लय व गति के बिना कोई भी रचना
जीवंत व कालजयी नहीं होती | अगीत में भी लय व गति को स्वीकारा गया है | अगीत का अभिप्रायः
है---राष्ट्र व समाज के प्रति जमीन से जुडी छंदयुक्त, गद्यात्मक शैली की
वह अतुकांत कविता जिसमें लय व गति हो, सरल व बोधगम्य भाषा, नए-नए शब्दों का
प्रयोग व समष्टि कल्याण भाव हो | गेयता, अगेयता , तुकांत व मात्रा बंधन
आवश्यक न हो | कवि ने कहा भी है..