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Monday, 10 September 2012

अगीत साहित्य दर्पण..क्रमश:...दो शब्द ...राम देव लाल 'विभोर'....


                         दो शब्द


             काव्य-विद्या की उत्पत्ति लौकिक ही नही पारलौकिक भी बताई गयी है प्रथम काव्य-ग्रन्थनाट्य-शास्त्रको ब्रह्म-निर्मित माना गया है उसे पन्चम वेद भी कहागया है काव्य-मीमान्सामें कहा गया है कि काव्य-विद्या का सर्वप्रथम उपदेश भगवान श्रीकंठ ने अपने शिष्यों को दिया। सरस्वती-पुत्रकाव्य पुरुषने दिव्य-स्नातकों द्वारा तीनों लोकों में काव्य-विद्या के प्रचार की  आज्ञा दी। काव्य-विद्या की लौकिक उत्पत्ति का बीज हमारेवेदोंमें मिलता है। पिन्गलाचार्य के बहुत पहले स्वर-वृत्त चुका था, जिनकी संगीत सृष्टि --उदात्त, अनुदात्त और स्वरित ध्वनि-प्रकारों पर आधारित है। ऋग्वेद के सात छंद इसी प्रकार के हैं, जिनमें गायत्री उष्णिक के तीन-तीन पाद, अनुष्टुप, त्रिष्टुप आदि के चार पाद और पंक्ति के पांच पाद निर्धारित किये गये। धीरे-धीरे वर्णों के लघु-गुरु उच्चारण की विशिष्ट योजना द्वारा लौकिक वर्ण-वृत्त आया और फ़िर मात्रा-वृत्त ताल-वृत्त भी क्रमश: मात्रिक-गणॊं ताल-गणों के आधार पर आये। छंदों के सम, विषम अर्ध-सम मात्रिक स्वरूप आये। उनके चरण संख्या के आधार पर द्विपदी से लेकर षोडष-पदी तक संरचना की गयी उनमें तुकान्त भिन्न-तुकान्त का भी प्रयोग हुआ। छंद-चरणों में यति, गति, सुर, लय आदि का भी यथायोग्य निर्धारण किया गया। इस प्रकार से काव्य-धारा का विविध छंदों में अजस्र प्रवाह हो रहा है। काव्य- मुक्तक प्रबन्ध रूप में भी प्रवाहित है। गज़ल, गीत, नवगीत जनगीत भी अपनी छटा बिखेर रहे हैं। सबके अपने अपने नियम ढांचे हैं किन्तु लय-बद्धता सब में समाहित है जो काव्यानंद का श्रोत है। सब का अपना-अपना तर्ज़, लहज़ा, रौब रुतवा है। इन्हीं आधार पर इनकी अपनी-अपनी विशिष्ट पहचान है। इन्हीं सब बातों को दृष्टि  में रखकर इनके विधान भी नियोजित किये गये हैं। वास्तव में शब्द-ब्रह्मांड में व्यवस्थित रूप में यति, गति, सुर, लय से रक्षित जो भी काव्य-विधा होगी वह आनंददायी होगी। इसी कडी से जुडी बात को डा श्याम गुप्त ने व्यवस्थित रूप में अपनी इस प्रस्तुत पुस्तकअगीत साहित्य दर्पणमें रखने का प्रयास किया है, जिसमें अगीत साहित्य के सूत्रपात से लेकर उसकी अद्यतन अवधि तक उसकी उपलब्धि, उसका स्वरूप, रचना-विधान उसकी उपयोगिता वर्णित है।

              “ अगीत साहित्य दर्पणमें डा श्याम गुप्त ने लिखा है कि सन १९६६ई. में राष्ट्र-भक्ति से ओत-प्रोत उत्साही कवि डा. रंगनाथ मिश्रसत्यने लखनऊ विश्व-विद्यालय के हिन्दी विभाग में रीडर सुधी साहित्यकार डा ऊषा गुप्ता की सुप्रेरणा से इस नवीन धाराअगीतका सूत्रपात किया। रचना-विधान में बताया गया है किअगीतएक पांच से आठ पन्क्तियों की अतुकान्त कविता है। जिसमें मात्रा बंधन नहीं, गतिमयता हो एवं गेयता का बन्धन नहीं होता। इसमें अगीत के विविध छंद   अगीत-छंद, लयबद्ध-अगीत, गतिमय सप्तपदी, लयबद्ध षटपदी, नव-अगीत, त्रिपदा-अगीत त्रिपदा-अगीत हज़ल आदि का भी उल्लेख किया गया है। स्व. पन्डित जगत नारायण पांडे कृत सौमित्र-गुणाकर डा श्याम गुप्त  कृतसृष्टि प्रबन्ध काव्यों के रसास्वादन से विदित हुआ कि अगीत-विधा में रचे गये ये ग्रन्थ आनंदवर्धक हैं। डा श्याम गुप्त को इस रचना हेतु बधाई।

                                राम देव लाल 'विभोर'                                   
                            महामंत्री काव्य-कला संगम, लखनऊ 


५६५क/१४१

गिरिज़ा सदनअमरूदहीबाग,                                                  
आलमबाग, लखनऊ-२२६००५      
                               
                    

Wednesday, 5 September 2012

‘अगीत साहित्य दर्पण’ क्रमश :....प्रस्तावना..डा रंग नाथ मिश्र 'सत्य'...


.                             प्रस्तावना
   अगीत साहित्य दर्पण’ रचनाकारों के लिए एक मानक ग्रन्थ होगा –डा. रंगनाथ मिश्र ’सत्य’....
        हिन्दी साहित्य को समर्पित, मूलतः चिकित्सक व सर्जन महाकवि डा श्याम गुप्त द्वारा लिखित ‘अगीत साहित्य दर्पण’  प्रकाशित होकर विज्ञ पाठकों के समक्ष प्रस्तुत होने जा रहा है| इसमें लेखक ने अगीत छंद विधा व उसका साहित्यिक पक्ष विस्तार से लिखने का समुचित प्रयास किया है| डा श्याम गुप्त ने अगीत-विधा में सृष्टि व् जीवन की उत्पत्ति पर “सृष्टि–ईशत-इच्छा या बिगबैंग” महाकाव्य तथा रामकथा पर आधारित नारी-विमर्श पर “शूर्पणखा” खंड काव्य का प्रणयन करके अगीत की स्थापना में अपना अमूल्य योगदान दिया है|
       सन १९६६ ई. में मैंने अपने कुछ सहयोगियों के साथ ‘अखिल भारतीय अगीत परिषद’ साहित्यिक व सांस्कृतिक संस्था की स्थापना की| एक पत्रक प्रकाशित करके सारे देश के प्रवुद्ध रचनाकारों को भेजा, जिसमें सुझाव मांगे गए थे कि अगीत काव्य-विधा को किस प्रकार स्थापित करके समाज को नयी दिशा प्रदान की जाय| बहुत से सुझाव आये एवं सैकड़ों नए रचनाकारों ने इस विधा से जुडकर कार्य आरंभ कर दिया |  
      सन १९६०-७० के दशक में साहित्यकार-रचनाकार यह नहीं सुनिश्चित कर पाए कि कविता को कौन सी सही दिशा प्रदान की जाय | कविता के क्षेत्र में अकविता, ठोस-कविता, चेतन-कविता, अचेतन-कविता, युयुत्सावादी-कविता, खबरदार-कविता, कबीरपंथी, आदि आंदोलन चले| गीत में नयागीत, नवगीत, अनुगीत जैसे नए-नए आंदोलन आये| इन सब पर विशेष रूप से पाश्चात्य दर्शन का प्रभाव था| फ्रांस से जो आंदोलन चले वे बंगला साहित्य में आये, तत्पश्चात उन्हें हिन्दी में अपनाया जाने लगा | इन आन्दोलनों में अस्पष्टता व सर्वसाधारण के लिए दुर्वोधता झलकती रही| अतः यह आवश्यक हुआ कि कविता में ‘अगीत-काव्य’ को स्वीकार किया जाय |
       वैज्ञानिक अन्वेषणों से संसार में दूरी का महत्व सिमट गया है| विश्व ने जहां इस शताव्दी के पूर्वार्ध में दो महायुद्धों के दुष्परिणामों को नयी शक्तियों के उभरते शीत-युद्धों की सरगर्मी के रूप में देखा है वहीं एक सर्वथा नए धरातल पर प्रतिष्ठित युवा-चेतना का उन्मेष भी विभिन्न रूपों में सामने आया है| स्वतन्त्रता के पश्चात भारतीय समाज और साहित्य में भी इसी प्रकार अपनी पूर्व-परम्परा से हटकर अधिक चैतन्य व स्वाभाविक होने लगा | हम जानते हैं कि भारत को भी कई महायुद्धों का सामना करना पडा | इस संक्रांति काल में युवक-युवतियों में पाश्चात्य सभ्यता को अपनाने की होड लगी हुई थी| एसी स्थिति में मैंने २०-२५ सहयोगियों के साथ ‘हिन्दी कविता में अगीत-आंदोलन’ की शुरूआत की जो युवा चेतना के उन्मेष का दृष्टा था | तब से १९९२ तक पच्चीस वर्षों में अगीत विधा पर कई काव्य-संग्रह प्रकाशित हुए| तदुपरांत हिन्दी के विद्वान समीक्षक डा विश्वंभर नाथ उपाध्याय, कुलपति कानपुर वि.वि., अ.भा. अगीत परिषद की संरक्षक डा उषा गुप्ता, पद्मश्री प.बचनेश त्रिपाठी, संगमलाल मालवीय (मास्को), डा लक्ष्मी नारायण लाल दुबे ( सागर वि.वि.), सुबोध मिश्र,संपादक सफरनामा आदि की प्रेरणा से अखिल भारतीय अगीत परिषद की की रजत जयन्ती वर्ष पर परिचयात्मक ग्रन्थ “अगीत काव्य के चौदह रत्न”  प्रकाशित कराया गया| जिसमें चौदह अगीत कवियों १०-१० अगीत प्रकाशित किये गए|
           सन १९६६-६७ में जो अगीत का मेनीफेस्टो प्रकाशित हुआ उसमें यह स्पष्ट कर दिया गया था कि अगीत खोज की और अग्रसर है उसमें नए रचनाकार बराबर जुडते रहेंगे क्योंकि खोज कभी रूढिगत नहीं होती| अगीत विधा के रचनाकार किसी ‘वाद’ में विश्वास नहीं रखते किन्तु कोई भी आंदोलन अधिक दिनों तक चलता है तो वह वाद का रूप ले लेता है | अतः आज ४५-४६ वर्षों बाद हम इसे ‘अगीतवाद’ के नाम से भी पुकार सकते हैं | अगीत विधा का आकाशवाणी , दूरदर्शन, देश-विदेश की पत्र-पत्रिकाओं द्वारा, शोध-प्रबंधों व कानपुर व लखनऊ के विश्व-विद्यालयों में परीक्षाओं में प्रश्न पूछे जाने से व्यापक प्रचार-प्रसार हुआ है| साथ ही इस विधा का विकास कई कोटियों के माध्यम से हुआ है यथा कविता के....शिल्प, मात्रा, गुणवत्ता, विविध-साहित्य, विषय, भाषा, उपादान व भाव की कोटि |
          अगीत काव्य पर दूसरा परिचयात्मक काव्य-संग्रह १९९३ में “ अगीत काव्य के इक्कीस स्तंभ”. तृतीय संग्रह अगीतोत्सव -९५ के अवसर पर ”अगीत काव्य के अष्ठादस पथी  एवं चौथा संकलन आजादी के स्वर्ण-जयन्ती वर्ष १९९७ को गांधी-शास्त्री जन्म-दिवस पर “अगीत-काव्य के सोलह महारथी” के नाम से प्रकाशित हुआ| अगीत का पांचवा संकलन “ अगीत काव्य के पैंतालीस सशक्त हस्ताक्षर “ के नाम से प्रकाशित होकर शीघ्र प्रस्तुत किया जाएगा|
         ‘अगीत काव्य के चौदह रत्न’.. व ‘अगीत काव्य के इक्कीस स्तंभ’ एवं ‘अगीत काव्य के अष्ठादस पथी’ का संपादन मेरे द्वारा किया गया जो अ.भा.अगीत परिषद की संरक्षक डा ऊषा गुप्ता, ब्रज-विभूति चौ.नबाव सिंह यादव,भू.पू. मंत्री उ.प्र व प.रामचंद्र शुक्ल पूर्व न्यायाधीश को समर्पित किये गए| ‘अगीत काव्य के सोलह महारथी’ का संपादन मेरे व डा नीरज कुमार द्वारा किया ग्याजो मेरे भतीजे युवा साहित्यकार यशशेष अरुणकुमार मिश्र उर्फ श्रीधर को समर्पित किया गया|
         वर्त्तमान दो दशकों में अगीत-विधा में महाकाव्य व खंड-काव्य भी लिखे गए हैं| ‘मोह और पश्चाताप’, सृष्टि, शूर्पणखा‘सौमित्र गुणाकर’ आदि महाकाव्य एवं खंड-काव्य  प्रकाशित हुए जो अगीतवाद की स्थापना में मील-स्तंभ का कार्य कर रहे हैं |
        मैं यह जानता हूँ कि परम्परागत काव्य में शिल्पगत विशेषताओं के अंतर्गत छंद-विधान योजना, पद्यात्मक भाषाशैली  व अलंकार सौष्ठव आदि का महत्वपूर्ण स्थान है | अगीत काव्य के कवियों ने इन परम्पराओं का त्याग किया है | तथापि काव्य-भाव होने से काव्य-सौन्द्र्यानुसार अलंकार व रस-भाव तो प्रत्येक प्रकार की कविता में स्वतः ही आजाते हैं| अगीत काव्य में परम्परागत छंदों के स्थान पर मुक्त-छंद व गद्यात्मक शैली को अपनाया है| भाषा पर भी नए प्रयोग किये हैं| अगीत-काव्य में यह स्वीकारा गया है कि संक्षिप्तता के माध्यम से कवि अपनी बात कहे| अगीत कवियों में निराशा, कुंठा, घुटन, आस्था-अनास्था, समष्टि-कल्याण की भावना व लघु-मानव की प्रतिष्ठा हेतु विद्रोह के स्वर भी अभिव्यक्त हुए हैं|
       महाकवि डा श्याम गुप्त द्वारा लिखित यह “ अगीत साहित्य दर्पण” अगीत विधा के रचनाकारों व सभी साहित्यकारों के लिए वरदान सिद्ध होगा | महाकवि ने कठिन श्रम और अध्ययन करके इसे तैयार किया है जिसमें अगीत-काव्य के सभी मानदंडों को स्थापित करने में अपनी लेखनी का प्रयोग करते हुए गतिमय सप्तपदी, लयबद्ध षट्पदी अगीत, नव-अगीत, त्रिपदा अगीत, त्रिपदा अगीत हज़ल आदि अगीत की विभिन्न विधाओं का भी उल्लेख किया है| उनके द्वारा आगे भी अगीतवाद की स्थापना में अन्य ग्रन्थ भी लिखे जायेंगे और उनके अन्य अगीत संग्रह, महाकाव्य व खंडकाव्य आदि आगे भी प्रकाशित होंगे, ऐसी मेरी आशा ही नहीं विश्वास है | मैं महाकवि डा श्याम गुप्त की लेखनी का वंदन-अभिनन्दन करता हूँ और कामना करता हूँ कि कि यह ग्रन्थ ‘अगीत साहित्य दर्पण’ अगीत विधा के रचनाकारों को अपना अमूल्य योगदान दे | मंगल कामनाओं के साथ |....मेरे दो अगीत प्रस्तुत हैं....
परिवर्तन,                                       हिन्दी के प्रति रहो समर्पित ...|
जीवन का मूल मन्त्र;                              हिन्दी ही भारत की आशा ,       
जैसा कल बीता                                   होगी यही राष्ट्र की भाषा ;          
जो आज जी रहे                                  देवनागरी को अपनाएं ,
आगे जो आएगा ,                                 प्रगति पथ पर ,     
उसमें भी होंगे –                                  बढ़ाते जाएँ |
उत्थान-पतन |                                              
                                                          हस्ताक्षर           
सम्प्रति— अगीतायन,                            ( डा रंगनाथ मिश्र ‘सत्य’...एम् ए,पी.एच.डी)  ई-३८८५,राजाजी पुरम, लखनऊ-१७                   अध्यक्ष –अखिल भारतीय अगीत परिषद, लखनऊ                                                                        मो.९३३५९९०४३५ ...दूभा.०५२२-२४१४८१७   

            ------- क्रमश:-- अगीत साहित्य दर्पण ...शुभाशंसा...अगली पोस्ट में .. 



अगीत का छंद-विधान ...अगीत साहित्य दर्पण ...डा श्याम गुप्त


अगीत का छंद-विधान ....डा श्याम गुप्त की नयी पुस्तक.....अगीत साहित्य दर्पण ...

                                    

      अतुकांत कविता  की एक विशिष्ट विधा---अगीत कविता---का प्रथम छंद-विधान--एक शास्त्रीय ग्रन्थ

नाम पुस्तक--- अगीत साहित्य दर्पण (अगीत काव्य एवं अगीत छंद विधान )
रचयिता ------ डा श्याम गुप्त
प्रकाशन ------ सुषमा प्रकाशन , लखनऊ  एवं अखिल भारतीय अगीत परिषद , लखनऊ
प्रकाशन वर्ष --१ मार्च, २०१२ ई....पृष्ठ ---९४ ...मूल्य ....१५०/-रु.

                                                             संक्षिप्त विवरण
 समर्पण--- डा रंगनाथ मिश्र सत्य  एवं  महाकवि श्री जगत नारायण पांडे  को |

 प्रस्तावना----"'अगीत साहित्य दर्पण'  रचनाकारों के लिए एक मानक ग्रन्थ होगा"-    -डा रंगनाथ मिश्र 'सत्य' संस्थापक अध्यक्ष , अखिल भारतीय अगीत परिषद, लखनऊ

शुभाशंसा ----प्रोफ. कैलाश देवी सिंह,  पीएचडी . डी लिट, विभागाध्यक्ष, हिन्दी तथा आधुनिक  भाषा विभाग, लखनऊ वि. विद्यालय, लखनऊ |

दो शब्द ------  कविवर श्री रामदेव लाल 'विभोर' महामंत्री, काव्य कला मंदिर, लखनऊ |

पूर्व कथन व आभार ....  लेखक

                                               
                                                         मंगलाचरण ----           
 १.
 माँ वाणी! माँ सरस्वती |
माँ शारदे |
अगीत को नवीन सुरलय ताल का
संसार  दे |
नए  नए स्वर, छंद-
नवल विचार दे |
यह अगीत काव्य ,
जन जन में विस्तार पाए ;
मूढमति श्याम का -
माँ जीवन सुधार दे ||

२.
हे अगीत ! तुम निहित गीत में,
गीत तुम्हारे अंतर स्थित |
नए छंद , नव भाव, नवल स्वर ,
ले अवतरित हुए हे  चेतन !
वंदन  हित वाणी-विनायकौ ,
नमन श्याम का हो स्वीकार ||

                                               विषय - अनुक्रमणिका  ....

प्रथम अध्याय ....अगीत: एतिहासिक पृष्ठभूमि व् परिदृश्य ..

द्वितीय अध्याय ....अगीत : क्यों व क्या है एवं उसकी उपयोगिता ..

तृतीय अध्याय ...अगीत : वर्त्तमान परिदृश्य व भविष्य की संभावना ..

चतुर्थ अध्याय ....अगीत छंद व उनका रचना विधान ..

पंचम अध्याय ....अगीत की भाव संपदा ..

षष्ठ अध्याय ..... अगीत का कला पक्ष ......


                             ----क्रमश .....प्रस्तावना ...अगली पोस्ट में ......


    



Monday, 13 August 2012

साहित्य मूर्ति डा रंगनाथ मिश्र 'सत्य' पर पुस्तक का लोकार्पण एवं सृजन संस्था का वार्षिक सम्मान समारोह ....डा श्याम गुप्त ..






लोकार्पित पुस्तक
                              लखनऊ की युवा साहित्यकारों की संस्था सृजन का वार्षिकोत्सव स्थानीय गांधी संग्रहालय के सभा-भवन में दि. १२-८-१२ को संपन्न हुआ |  जिसमें संस्था के संरक्षक, हिन्दी कविता में अगीत-विधा के संस्थापक कविवर डा रंगनाथ मिश्र 'सत्य' को समर्पित पुस्तक  " साहित्य -मूर्ति  डा रंगनाथ मिश्र 'सत्य'"   का लोकार्पण हुआ तथा संस्था के वार्षिक सम्मान ---' सृजन साधना वरिष्ठ रचनाकार सम्मान'....लखनऊ के  कविवर  श्री सूर्य-प्रसाद  मिश्र  'हरिजन'  को  तथा  'सृजन साधना युवा रचनाकार सम्मान'.....गोंडा के  उदीयमान युवाकवि श्री जयदीप सिंह 'सरस' को प्रदान किया गया | इस अवसर पर डा रंगनाथ मिश्र सत्य का सारस्वत सम्मान भी किया गया
पुस्तक का लोकार्पण --श्री गधाधर नारायण, प्रोफ मौ.मुजम्मिल, विनोद चन्द्र पांडे ,महेश चन्द्र द्विवेदी , रामचंद्र शुक्ल, डा सत्य , डा योगेश व  देवेश द्विवेदी
                  समारोह की  अध्यक्षता  महाकवि श्री विनोद चन्द्र पांडे ने की, मुख्य अतिथि  रूहेल खंड विश्व-विद्यालय के कुलपति एवं देश के जाने-माने अर्थ शास्त्री व साहित्यकार श्री मोहम्मद मुजम्मिल थे | विशिष्ट अतिथि लखनऊ वि.वि के हिन्दी  विभाग की  पूर्व प्राचार्या प्रोफ. उषा सिन्हा, पूर्व पुलिस महानिदेशक श्री महेश चन्द्र द्विवेदी , श्री गदाधर नारायण सिन्हा, पूर्व न्यायाधीश श्री राम चन्द्र शुक्ल थे |

                  संस्था के अध्यक्ष डा योगेश गुप्त ने अथितियों का स्वागत करते हुए संस्था के कार्यों व उद्देश्यों का विवरण दिया | संचालन संस्था के महामंत्री श्री देवेश द्विवेदी 'देवेश' द्वारा किया गया |  वाणी  वन्दना सुप्रसिद्ध संगीतकार श्रीमती कमला श्रीवास्तव द्वारा की गयी |
समाम्नित साहित्यकार--साथ में  डॉ योगेश गुप्त , प्रोफ. उषा सिन्हा व प्रोफ मौ.मुजम्मिल
                         समारोह के  मुख्य वक्ता  के रूप में वैदिक विद्वान श्री धुरेन्द्र स्वरुप बिसरिया,  वरिष्ठ कवि व साहित्यकार  डा श्याम गुप्त,   श्रीमती स्नेहप्रभा  एवं  संघात्मक समीक्षा पद्धति  के समीक्षक श्री पार्थोसेन  ने  साहित्य-मूर्ति डा रंगनाथ मिश्र 'सत्य'  तथा  सम्मान प्राप्त साहित्यकारों की साहित्य साधना की चर्चा की  एवं लोकार्पित पुस्तक प्रति अपने विचार रखे  |
                         डा श्याम गुप्त  ने संस्था की प्रशंसा करते हुए कहा कि यह संस्था  वरिष्ठ व युवा रचनाकारों के मध्य एक सेतु का कार्य कर रही है  जो हिन्दी, हिन्दी साहित्य  व राष्ट्र की सेवा का एक महत्वपूर्ण आयाम है|   अपने वक्तव्य  "'अगीत के अलख निरंजन डा रंगनाथ मिश्र 'सत्य' "  पर बोलते हुए उन्होंने डा सत्य के विभिन्न नामों व उपाधि-नामों पर चर्चा करते हुए बताया कि डॉ सत्य के आज तक जितने नामकरण हुए हैं उतने शायद ही किसी साहित्यकार के हुए हों |
                     इस अवसर पर बोलते हुए प्रोफ. मोहम्मद मुजम्मिल ने बताया कि जिस प्रकार देश में आर्थिक उदारीकरण  हुआ उसी प्रकार साहित्य में भी  काव्य में  उदारीकरण  डा रंगनाथ मिश्र  द्वारा स्थापित विधा अगीत ने   किया है |
                     सम्मानित  कवियों व डा रंग नाथ मिश्र द्वारा काव्य-पाठ भी किया गया | धन्यवाद ज्ञापन संस्था के उपाध्यक्ष राजेश श्रीवास्तव  ने किया |



डा रंग नाथ मिश्र 'सत्य' - काव्य-पाठ

Monday, 30 July 2012

संघात्मक समीक्षा पद्दति द्वारा पुस्तक समीक्षा ....पार्थ सेन...

                             (प्रचलित समीक्षा -पद्दति में  किसी पुस्तक या कहानी आदि की समीक्षा करने में केवल उस पुस्तक के विषय  वस्तु  की ही समीक्षा की जाती है परन्तु संघात्मक समीक्षा पद्दति द्वारा पुस्तक समीक्षा ....में पुस्तक की सम्पूर्ण समीक्षा की जाती है अर्थात विषय-वस्तु के साथ-साथ उसके लेखक/ कवि के बारे में, लेखक द्वारा आत्म-कथ्य , समर्पण व आभार , पुस्तक की छपाई, आवरण-पृष्ठ, उसपर चित्र , मूल्य, अन्य विद्वानों द्वारा लिखी गयीं भूमिकाओं के तथ्यांकन एवं प्रकाशक आदि  द्वारा दिए गए विवरण व कथ्य इत्यादि की भी सम्पूर्ण समीक्षा की जाती है | यह विधा  हिन्दी कविता में अगीत -विधा के संस्थापक  डा रंगनाथ मिश्र 'सत्य' द्वारा प्१९९५ से प्रचलित की गयी ...देखिये एक समीक्षा...)

समीक्ष्य कृति --- इन्द्रधनुष ( उपन्यास)....लेखक -डा श्याम गुप्त ....मूल्य ....७५/- रु.....पृष्ठ--१०४.
संपर्क-- सुश्यानिदी, के-३४८, आशियाना, लखनऊ -२२६०१२ .
प्रकाशन वर्ष-- २०११. ई.... प्रकाशक.... सुषमा प्रकाशन , आशियाना, लखनऊ |
समीक्षक-- पार्थो सेन ..

                       डा श्याम गुप्त जी चिकित्सा जगत से सेवा-निवृत्त होने के पश्चात हिन्दी साहित्य जगत में पूर्णतया समर्पित हैं | मूलतः आप एक प्रसिद्ध कवि हैं एवं  अगीत विधा के  रचयिता हैं | उपन्यास क्रम में 'इन्द्रधनुष' आपका प्रथम प्रयास है | इसके पूर्व आप गीत व अगीत दोनों ही विधाओं में शूर्पणखा, सृष्टि, प्रेमकाव्य आदि  छ: काव्यों का सृजन कर चुके हैं | जो साहित्य जगत में सराहे गए | इस उपन्यास में इन्द्रधनुष के सात रंगों की तरह ही सात मुख्य बिंदु --स्त्री, पुरुष, अलौकिक-प्रेम, कविता, वेद-वेदान्त, चिकित्सा जगत व सामाजिक परिदृश्य हैं | अतः शीर्षक सार्थक है |
                        लेखक स्वयं एक शल्य-चिकित्सक भी है |अतः उपन्यास का प्रारम्भ मैडीकल कालेज के वातावरण से होता है | वे स्वयं एक कवि भी हैं तो यत्र-तत्र संवादों में कविता का का समावेश है | संवादों में चिकित्सा संबंधी चर्चाओं  के अतिरिक्त कई मूल्यवान परिचर्चाएं हैं | जैसे एक स्थान पर पात्र जयंत कृष्णा कहता है...
                  "...सदियों से भारत में दो प्रतिकूल विचार धाराएं चली आ रही हैं | 
                  एक ब्राह्मण वादी व  दूसरी   ब्राह्मण विरोधी , जो अम्बेडकरवादी  विचार धारा  है  |"
इसी चर्चा में भाग लेती हुई एक अन्य पात्र सुमि  कहती है....
                  " वास्तव में वे धाराएं देव-संस्कृति व असुर संस्कृतियाँ हैं | क्योंकि न तो राम ब्राह्मण                                     थे   न कृष्ण   ही जबकि रावण ब्राहमण था परन्तु ब्राह्मण-विरोधी |"

                          पूरा उपन्यास मैडीकल कालेज के छात्र कृष्ण गोपाल ...केजी  तथा  सुमित्रा ...सुमि ..के मध्य संवादों  पर आधारित है जिसका कुछ अंश अतीत है | दोनों सहपाठी हैं | एक आकर्षण दोनों के मध्य उत्पन्न होता है यद्यपि नायिका पहले से ही वाग्दत्ता है | दोनों का  पृथक-पृथक विवाह होता है और सफल भी  है | यद्यपि वे अलग अलग होजाते हैं व रहते हैं परन्तु एक आत्मिक  जुड़ाव व बौद्धिक-आत्मिक प्रेम सम्बन्ध जो सुमि  व केजी के मध्य था, सदा बना रहता है जो एक चर्चा में कवितामय संवाद  से परिलक्षित होता है... केजी का कहना है...
            "प्रियतम प्रिय का मिलना जीवन,
             साँसों का चलना है जीवन|
             मिलना और बिछुडना जीवन,
             जीवन हार भी जीत भी जीवन |"               
                                         सुमि  का कथन देखिये..... 
             प्यार है शाश्वत कब मारता है,
             रोम रोम में रहता है |
            अजर अमर है वह अविनाशी,
            मन में रच बस रहता है |"
                             उपन्यास का अंत दुखांत है | सुमि  की मौत एक हवाई दुर्घटना में हो जाती है , पाठक यहीं मर्माहत हो जाता है |  उपन्यास में शिक्षित वर्ग का परिवेश है, पात्र, संवाद तथा वातावरण उसी के अनुरूप है | यौन सम्बन्ध रहित अलौकिक प्रेम की महत्ता इस उपन्यास का सन्देश है |
                            भाषा मूलतः परिमार्जित हिन्दी है | आवश्यकतानुसार अन्य भाषाओं के शब्दों का समावेश है | शैली प्रभावशाली व संवाद सारगर्भित हैं |
                            कृति मनुष्य के आचार-विचार व समाज को शिक्षा देने वाली नारियों को समर्पित है |प्रोफ. बी . बै. ललिताम्बा ( बेंगलूरू ) , भू.पू अध्यक्ष, हिन्दी विभाग, इंदौर वि.वि (म.प्र.)  व  कवि श्री मधुकर अष्ठाना ने अपना आशीर्वाद  इस पुस्तक को प्रदान किया है | लेखक ने अशरीरी प्रेम को महत्त्व देते हुए उपन्यास का सृजन किया है जैसा कि उपन्यास में उल्लेख है|
                           आवरण पर एक सुन्दर लेखक द्वारा ही स्वनिर्मित हस्त-चित्र है |  मूल्य सर्वथा उचित है | एक डाक्टर मनुष्य जीवन को बहुत करीब से देखता है अतः उसका अलग ही अनुभव है |इस कृति को एक प्रेरणादायी प्रसंग मानना अधिक उचित प्रतीत होता है | डा श्याम गुप्त जी की सारी कृतियाँ शालीनता लिए होती हैं | आज के शारीरिक संबंध पर आधारित प्रेम के युग में इस उपन्यास का स्वागत अवश्य होना चाहिए | हार्दिक बधाई , मैं अपने एक अगीत से यह समीक्षा पूरी करता हूँ--
           "निहारूंगा मैं तुझे अपलक
            जैसे एक अबोध तकता है
            इन्द्रधनुष  एक टक |"                              
                                                         ----- .समीक्षक .... पार्थोसेन ...