डा सत्य- अध्यक्षीय वक्तव्य साथ में डा श्याम गुप्त व डा.सुरेश शुक्ला |
लखनऊ के युवा
साहित्यकारों की साहित्यिक व सांस्कृतिक संस्था ‘सृजन’ की माह के प्रत्येक दूसरे
रविवार को आयोजित मासिक गोष्ठी दि.१४-४-१३ रविवार को राजाजीपुरम के स्टडी-सर्कल के
सभागार में सुप्रिसिद्ध कवि, साहित्यकार, गीतकार एवं एवं अगीताचार्य डा रंगनाथ मिश्र ‘सत्य’ की
अध्यक्षता में संपन्न हुई | गोष्ठी के मुख्य अतिथि डा श्याम गुप्त एवं विशिष्ट अतिथि डा सुरेश प्रकाश शुक्ल थे | संचालन युवा कवि एवं संस्था के सचिव देवेश
द्विवेदी ‘देवेश’ ने किया |
डा योगेश गुप्त गोष्ठी का प्रारम्भ करते हुए |
गोष्ठी ने एक विद्वत-गोष्ठी
का भी रूप का लेलिया जब गोष्ठी का प्रारम्भ करते हुए संस्था के अध्यक्ष डा योगेश
ने चिंता व्यक्त करते हुए कहा कि भारतीय नव-संवत्सर प्रारम्भ होचुका है परन्तु
अधिकाँश लोग एवं युवा पीढी को यह ज्ञात ही नहीं है, वे तो सिर्फ जनवरी में आने
वाले आंग्ल नववर्ष को ही नया साल मानते
हैं | नव-संवत्सर, देवता क्या हैं एवं आज साहित्य की दशा पर कवियों-विद्वानों ने अपने-अपने विचार व्यक्त किये |
संचालक देवेष द्विवेदी ..कवि अशोक पांडे ,के के वैश्य व शांतानंद |
कविवर श्री रामप्रकाश एवं
शांतानंद जी ने वाणी वन्दना की | कविवर डा योगेश, देवेश द्विवेदी, शांतानंद, विशाल श्रीवास्तव, कवियत्री सीमाक्षी श्रीवास्तव,
छंदकार अशोक पाण्डेय ’अशोक’, कवि सूर्यप्रसाद मिश्र ‘हरिजन’, श्री कृष्ण वैश्य, अलंकार
रस्तोगी, डा सुरेश प्रसाद शुक्ला आदि ने अपनी रचनाओं से गोष्ठी को ऊंचाई प्रदान
की | दिल्ली के वैदिक संस्कृत विद्वान् डा
कृष्णानंद राय ने हिन्दी के अलावा संस्कृत में रचनाओं से भाव विभोर किया|
कवियत्री सीमाक्षी का काव्य पाठ एवं श्री सूर्यप्रसाद हरिजन, कृष्णानंद पांडे,विशाल श्रीवास्तव , अलंकर रस्तोगी |
मुख्य अतिथि के रूप
में डा श्याम गुप्त ने अपने वक्तव्य में नव-संवत्सर की उत्पत्ति उसकी महत्ता बताते
हुए उसे सनातन एवं वैज्ञानिक नववर्ष बताया और उसे व्याख्यायित करते हुए
पर नव-संवत्सर आधारित अपने दोहे पढ़े और आह्वान किया.....
पर नव-संवत्सर आधारित अपने दोहे पढ़े और आह्वान किया.....
पाश्चात्य नववर्ष को, सब त्यागें श्रीमान |
भारतीय नववर्ष हित, अब छेड़ें अभियान ||
भारतीय नववर्ष हित, अब छेड़ें अभियान ||
डा श्याम गुप्त ने आगे कहा कि डा योगेश गुप्त की चिंता
स्वाभाविक है परन्तु हम सोचें कि आखिर क्यों हमारे युवा व अन्य सामान्य जन को अपनी
सांस्कृतिक-बातों का ज्ञान नहीं है | शासन के अलावा विज्ञजनों में अगली पंक्ति में
खड़े कवि व साहित्यकारों का भी यह कर्तव्य होता है कि जनसामान्य को अपनी रचनाओं द्वारा अपनी अपनी संस्कृति के
बारे में ज्ञान दें एवं युवा कविओं के सम्मुख एक उदाहरण प्रस्तुत करें परन्तु आजकल ...समाचार वाली कवितायें, चुटुकुले वाले निरर्थक
हास्य-व्यंग्य एवं लम्बी-लम्बी
वर्णानात्मक, कथ्यात्मक आदि निरर्थक कविताओं व कवियों का बोलवाला है जो सांस्कृतिक-सामाजिक
परिप्रेक्ष्य का ज्ञान नहीं के बराबर सम्प्रेषण करती हैं | साहित्य के मूल गुणों
की परिभाषा एक ग़ज़ल द्वारा प्रस्तुत की..
साहित्य सत्यं शिवं सुन्दर भाव होना चहिये ।
साहित्य शुचि शुभ ज्ञान पारावार होना चाहिये ।
साहित्य शुचि शुभ ज्ञान पारावार होना चाहिये ।
श्याम, मतलब सिर्फ़ होना शुद्धता वादी नहीं,
बहती दरिया रहे, पर तटबंध होना चाहिये ॥
बहती दरिया रहे, पर तटबंध होना चाहिये ॥
अध्यक्षीय वक्तव्य में डा रंगनाथ मिश्र सत्य ने विविध कविताओं की समीक्षा
की और अपने सुन्दर सार्वकालिक गीत ‘जीवन
की इस नयी डगर पर चलते चलते ठहर गया हूँ ‘ सुनाते हुए कहा कि निश्चय ही लम्बी-लम्बी
कविताओं की अपेक्षा संक्षिप्त कविता का युग है इसीलिये ‘अगीत’ की महत्ता है |
अंत में संस्था के अध्यक्ष डा योगेश ने
धन्यवाद ज्ञापन किया |