Followers

Monday, 29 October 2012

सृष्टि महाकाव्य(क्रमश)---तृतीय सर्ग सद-नासद खंड --डा श्याम गुप्त


सृष्टि महाकाव्य-(ईषत इच्छा या बिगबेंग--एक अनुत्तरित उत्तर --डा श्याम गुप्त



         सृष्टि - अगीत महाकाव्य--

(यह महाकाव्य अगीत विधामें आधुनिक विज्ञान ,दर्शन व वैदिकविज्ञान के समन्वयात्मक विषय परसर्वप्रथम रचित महाकाव्य है , इसमेंसृष्टि की उत्पत्ति, ब्रह्माण्ड व जीवन वमानव की उत्पत्ति के गूढ़तम विषयको सरल भाषा में व्याख्यायित कियागया है ....एवं अगीत विधा के लयबद्धषटपदी छंद में
निवद्ध किया गया है जो एकादश सर्गों में वर्णित है.... ...... रचयिता )

तृतीय सर्ग.....सद- नासद खंड
--------( प्रस्तुत सर्ग में ईश्वर या पूर्ण ब्रह्म के व्यक्त ( सद ) व अव्यक्त ( नासद ) कि;
वह है भी - और नहीं भी है- के रूप की वैदिक विज्ञान के अनुसार व्याख्या की गयी है तथा -प्रलय-सृष्टि-प्रलय- के क्रमिक चक्र व उसके कारण,( मूलतः मानव के अपकर्म -प्रदूषण -अनाचारी कृत्य आदि...) व क्रिया का संक्षिप्त रूप से वर्णन किया गया है..)
-
उस पूर्ण-ब्रह्म, उस पूर्ण-काम से,
पूर्ण जगत होता विकसित।
उस पूर्ण-ब्रह्म का कौन भाग,
जग संरचना में व्याप्त हुआ?
क्या शेष बचा जाने नकोई,
वह शेष भी सदा पूर्ण रहता है॥
-
वह नित्य प्रकृति, और जीवात्मा,
उस सद-नासद में निहित रहें
हो सृष्टि-भाव , तब सद होते,
और लय में हों लीन उसी में।
यह चक्र, सृष्टि1 -लय2 नियमित है ,
इच्छानुसार उस पर-ब्रह्म के॥
-
इच्छा करता है जब लय की,
वे देव, प्रकृति, गुण, रूप सभी,
लय होजाते अपः-तत्व3 में ;
पूर्ण सिन्धु उस महाकाश4 में।
लय होता जो पूर्ण -ब्रह्म में ,
फिर भी ब्रह्म पूर्ण रहता है॥
-
दृष्टा जब इच्छा करता है,
बघुत हो चुका जगत पसारा।
मानव की अति सुख-अभिलाषा ,
से है त्रस्त देवगण सारा
अपः तत्व में अप मिश्रण5 से ,
मानव जीवन त्रस्त होरहा॥
-
नए तत्व नित मनुज बनाता,
जीवन कठिन प्रकृति दोहन से।
अंतरिक्ष, आकाश, प्रकृति में,
तत्व, भावना, अहं6 ऊर्जा;
के नवीन नित असत कर्म से,
भार धरा पर बढ़ता जाता॥
-
सत्कर्म रूप मेरी भाषा जो,
न्याय, सांख्य, वेदान्त7 बताता;
भूला अहंकार वश, रज और,
पंचभूत तम, ही अपनाता।
भूल गया सत, महत्तत्व को,
यद्यपि आत्म-तत्व मेरा ही॥
-
अपना अंतस नहीं खोजता ,
मुझे ढूँढता कहाँ कहाँ वह;
क्या-क्या, कर्म-अकर्म कर रहा।
नष्ट कर रहा मूल दृव्य को;
पाना चाहे काल और गति,
हिरण्यगर्भ8 को या फिर मुझको ?
-
शायद अब है रात्रि आगई ,
पूर्ण होगया सृष्टि-काल भी।
काल गति स्थिर होजाएं ,
कार्य सभी, लय हों कारण में
सत तम रज 9 हों साम्य अक्रिय-अप: ,
मैं अब पुनः एक होजाऊँ
-
निमिष मात्र में उस इच्छा के ,
सब, चेतन जग जीव चराचर ,
देव रूप रस शब्द प्रकृति विधि ;
ऊर्जा वायु जल महत्तत्व मन,
लय होजाते मूल-दृव्य में ,
महा -विष्णु के नाभि-केंद्र में॥
१०-
काल गति स्थिर होजाते ,
मूल द्रव्य हो सघन रूप में से;
बन जाता है पिंड रूप में।
सकल विश्व-ब्रह्माण्ड रूप धर,
जल आकाश पृथ्वी को धारे ,
महाकाल रूपी अर्णव10 में॥
११-
वे प्रथम अजायत11 अग्नि-देव,
अपनी विकराल सी दाढों में;
ब्रह्माण्ड पिंड को खा जाते,
फिर लय होते अपःतत्व में।
महाकाश में, महाकाल में ,
जो लय होता हिरण्यगर्भ में॥
१२-
वह हिरण्यगर्भ जो अर्णव में ,
था दीप्तिमान सत-व्यक्त ब्रह्म;
लय होजाता अक्रिय,अप्रकाशित,
परम तत्व में; और एक ही,
रह जाता है , शांत-तमावृत ,
पूर्ण-ब्रह्म, जो सद-नासद है॥

( कुंजिका--- =श्रृष्टि रचना , =श्रृष्टि नाश, विघटन, प्रलय , =मूल द्रव्य, आदि-पदार्थ , = अनंत अंतरिक्ष ,मनो आकाश, घटाकाश ;=प्रदूषण -मनसा वाचा कर्मणा ; =मन वृत्तियों वाला मूल भाव तत्व; =भारतीय षड-दर्शन के अंग ;= सद, सक्रिय, व्यक्त चेतन ब्रह्म (ईश्वर); = मूल पदार्थ-प्रकृति के तीन गुण ;१०=अंतरिक्ष, क्षीर सागर ' ११=अजन्मा , नित्य )









Sunday, 28 October 2012

सृष्टि महाकाव्य ...द्वितीय सर्ग...उपसर्ग...डा श्याम गुप्त ..



(यह महाकाव्य अगीत विधा में आधुनिक विज्ञान ,दर्शन व वैदिक विज्ञान के समन्वयात्मक विषय पर सर्वप्रथम रचित महाकाव्य है , इसमें सृष्टि की उत्पत्ति, ब्रह्माण्ड व जीवन व मानव की उत्पत्ति के गूढ़तम विषय को सरल भाषा में व्याख्यायित किया गया है ....एवं अगीत विधा के लयबद्ध षटपदी छंद में निवद्ध किया गया है जो एकादश सर्गों में वर्णित है).... रचयिता --डा श्याम गुप्त ....)

सृष्टि महाकाव्य- द्वितीय सर्ग-उपसर्ग -( प्रस्तुत सर्ग में आज की स्वार्थपरकता से उत्पन्न अभिचार, द्वंद्व, अशांति क्यों है मानव ने ईश्वर को क्यों भुलादिया है एवं उसके क्या परिणाम हो रहे हैं और सृष्टि जैसे दार्शनिक विषय को कोई क्यों जाने-पढ़े इस पर विवेचन किया गया है । )

उपसर्ग
.
नर ने भुला दिया प्रभु नर से,
ममता
बंधन नेह समर्पण;
मानव का दुश्मन बन बैठा ,
अनियंत्रित वह अति-अभियंत्रण।
अति सुख अभिलाषा हित जिसको,
स्वयं उसी ने किया सृजन था।।
.
निजी स्वार्थ के कारण मानव,
अति दोहन कर रहा प्रकृति का;
प्रतिदिन एक ही स्वर्ण अंड से,
उसका लालच नहीं सिमटता;
चीर कलेजा, स्वर्ण खजाना,
पाना चाहे एक साथ ही।
.
सर्वश्रेष्ठ है कौन ? व्यर्थ,
इस द्वंद्व-भाव में मानव उलझा;
भूल गया है मानव ख़ुद ही ,
सर्वश्रेष्ठ कृति है, ईश्वर की ।
सर्वश्रेष्ठ, क्यों कोई भी हो ,
श्रेष्ठ क्यों न हों,भला सभी जन।।
.
पहले सभी श्रेष्ठ बन जाएँ,
आपस के सब द्वंद्व मिटाकर;
द्वेष,ईर्ष्या,स्वार्थ भूलकर,
सबसे समता भाव निभाएं;
मन में भाव रमें जब उत्तम,
प्रेम भाव का हो विकास तब।।
.
जनसंख्या के अभिवर्धन से,
अनियंत्रित यांत्रिकी करण से;
बोझिल-बोझिल मानव जीवन।
भार धरा पर बढ़ता जाता,
समय-सुनामी की चेतावनि,
समझ न पाये,प्रलय सुनिश्चित।
.
जग की इस अशांति क्रंदन का,
लालच लोभ मोह बंधन का;
भ्रष्ट-पतित सत्ता गठबंधन,
यह सब क्यों?इस यक्ष-प्रश्न(१)का,
एक यही उत्तर, सीधा सा,
भूल गया नर आज स्वयं को।।
.
क्यों मानव ने भुला दिया है,
वह ईश्वर का स्वयं अंश है;
मुझमें तुझमें शत्रु मित्र में;
ब्रह्म समाया कण-कण में वह|
और स्वयं भी वही ब्रह्म है,
फ़िर क्या अपना और पराया।
.
सोच हुई है सीमित उसकी,
सोच पारहा सिर्फ़ स्वयं तक;
त्याग, प्रेम उपकार-भावना,
परदुख,परहित,उच्चभाव सब ;
हुए तिरोहित,सीमित है वह,
रोटी कपडा औ मकान तक।।
.
कारण-कार्य,ब्रह्म औ माया(२)
सद-नासद(3) पर साया किसका?
दर्शन और संसार प्रकृति के ,
भाव नहीं अब उठते मन में;
अन्धकार-अज्ञान में डूबा,
भूल गया मानव ईश्वर को।।
१०.
सभी समझलें यही तथ्य यदि,
हम एक बृक्ष के ही फल हैं;
वह एक आत्म-सत्ता, सबके,
उत्थान-पतन का कारण है;
जिसका भी बुरा करें चाहें,
वह लौट हमीं को मिलना है।।
११.
हम कौन?,कहाँ से आए है?
और कहाँ चले जाते हैं सब?
यह जगत-पसारा कैसे,क्यों?
और कौन? समेटे जाता है।
निज को,जग को यदि जानेंगे,
तब मानेंगे, समता भाव ।।
१२.
तब नर,नर से करे समन्वय ,
आपस के भावों का अन्वय;
विश्व-बंधुत्व की अज़स्र धारा;
प्रभु शीतल करदे सारा जग,
सारा हो व्यापार सत्य का,
सुंदर, शिव हो सब संसार ॥

-----कुंजी ....
{ (१)=ज्वलंत समस्या का प्रश्न ; (२)=वेदान्त दर्शन का द्वैत वाद -ब्रह्म व माया, दो सृजक-संचालक शक्तियां हैं; (३)=ईश्वर व प्रकृति -हैं भी और नहीं भी ( नासदीय सूक्त -ऋग्वेद )
       क्रमश:.सृष्टि महाकाव्य..तृतीय सर्ग...सद-नासद खंड..अगली पोस्ट में

Saturday, 20 October 2012

सृष्टि महाकाव्य..ईषत -इच्छा या बिग-बेंग ;एक अनुत्तरित उत्तर... प्रथम सर्ग ---डा श्याम गुप्त...

सृष्टि ..ईषत -इच्छा या बिग-बेंग ;एक अनुत्तरित उत्तर... प्रथम सर्ग ---डा श्याम गुप्त...

   

 

 

 

 

 

 सृष्टि -ईषत-इच्छा या बिग-बेंग; एक अनुत्तरित उत्तर ( अगीत विधा महाकाव्य)..प्रथम सर्ग ......


(यह महाकाव्य अगीत विधा में आधुनिक-विज्ञान ,दर्शन व वैदिक विज्ञान के समन्वयात्मक विषय पर सर्वप्रथम रचित महाकाव्य है, इसमें सृष्टि की उत्पत्ति, ब्रह्माण्ड व जीवन व मानव की उत्पत्ति के गूढ़तम विषय को सरल भाषा में व्याख्यायित किया गया है ....एवं अगीत विधा के लयबद्ध षटपदी छंद में निवद्ध किया गया है जो एकादश सर्गों में वर्णित है.... रचयिता )


सृष्टि -अगीत विधा महाकाव्य-

रचयिता----डा.श्याम गुप्त
प्रकाशक---अखिल भा.अगीत परिषद् ,लखनऊ.
प्रथम संस्करण -- मार्च,३०-२००६ , चैत्र शुक्ला .प्रतिपदा , नवसंवत्सर दिवस -२०६३ ( आदि सृष्टि दिवस ), मूल्य-   -७५/-
              अगीत विधा में ब्रह्माण्ड  की रचना एवं जीवन की उत्पत्ति  के वैदिक, दार्शनिक व आधुनिक वैज्ञानिक तथ्यों का विवेचनात्मक प्रबंध-काव्य
( छंद ----लय बद्ध,षटपदी अगीत छंद ---छह पंक्ति, १६ मात्रा, अतुकांत, लय-वद्ध )


प्रथम-सर्ग --वन्दना 
१-गणेश -
गण-नायक गज बदन विनायक ,
मोदक प्रिय,प्रिय ऋद्धि-सिद्धि के ;
भरें  लेखनी में गति, गणपति ,
गुण गाऊँ इस 'सृष्टि', सृष्टि के।
कृपा  'श्याम  पर करें उमासुत ,
करूं  वन्दना पुष्पार्पण कर।।

-सरस्वती --
वीणा के जिन ज्ञान स्वरों से,
माँ !  ब्रह्मा को हुआ स्मरण'' |
वही ज्ञान स्वर ,हे माँ वाणी !
ह्रदय तंत्र में झंकृत करदो |
सृष्टि ज्ञान स्वर मिले श्याम को,
करूं  वन्दना पुष्पार्पण कर॥

-शास्त्र -
हम  कौन, कहाँ से  आए हैं ?
यह जगत पसारा किसका,क्यों ?
है शाश्वत यक्ष-प्रश्न, मानव का।
देते  हैं, जो  वेद - उपनिषद् ,
समुचित उत्तर; श्याम' उन्ही की,
करूं  वन्दना पुष्पार्पण कर॥

४-ईश्वर-सत्ता --
स्थिति, सृष्टि व लय का जग के,
कारण-मूल जो  वह परात्पर;
सद-नासद में अटल-अवस्थित,
चिदाकास  में  बैठा - बैठा,
संकेतों से  करे  व्यवस्था,
करूं  वन्दना पुष्पार्पण कर ॥

५-ईषत-इच्छा --'२'
उस अनादि की ईषत-इच्छा
महाकाश के भाव अनाहत,
में, जब द्वंद्व-भाव भरती है ;
सृष्टि-भाव तब विकसित होता-
आदि कणों में,  उस इच्छा की,
करूँ  वन्दना पुष्पार्पण कर॥

६- अपरा -माया --
कार्यकारी  भाव-शक्ति है,
उस परात्पर ब्रह्म की जो;
कार्य-मूल कारण है जग की,
माया है उस निर्विकार की;
अपरा'३' दें वर,श्याम' सृष्टि को,
करूँ वन्दना पुष्पार्पण कर॥

७.चिदाकाश --
सुन्न-भवन'४' में अनहद बाजे ,
सकल जगत का साहिब बसता;
स्थिति,लय और सृष्टि साक्षी,
अंतर्मन में  सदा  उपस्थित,
चिदाकाश की, जो अनंत है;
करूँ वन्दना पुष्पार्पण कर॥

८-विष्णु --
हे ! उस अनादि के व्यक्त भाव,
हे! बीज-रूप हेमांड'५' अवस्थित;
जगपालक, धारक, महाविष्णु,
कमल-नाल  ब्रह्मा को धारे;
'श्याम-सृष्टि' को, श्रृष्टि धरा दें,
करूँ  वन्दना  पुष्पार्पण कर॥

९-शंभु-महेश्वर --
आदिशंभु - अपरा संयोग से,
महत-तत्व'६' जब हुआ उपस्थित,
व्यक्त रूप जो उस निसंग का।
लिंग रूप बन तुम्ही महेश्वर !
करते  मैथुनि-सृष्टि अनूप;
करूँ वन्दना पुष्पार्पण कर॥

१०-ब्रह्मा --
कमल नाल पर प्रकट हुए जब,
रचने   को  सारा ब्रह्माण्ड;
वाणी की स्फुरणा'७' पाकर,
बने रचयिता सब जग रचकर ।
दिशा-बोध मिल जाय 'श्याम,को;
करूँ  वन्दना  पुष्पार्पण कर॥

११-दुष्ट जन -वन्दना --
लोभ-मोह वश बन खलनायक,
समय-समय पर निज करनी से;
जो  कर देते व्यथित धरा को ।
श्याम, धरा को मिलता प्रभु का,
कृपा भाव,  धरते अवतार;
करूँ वन्दना पुष्पार्पण कर॥

( =सृष्टि-ज्ञान का स्मरण ,=सृष्टि-सृजन की ईश्वरीय इच्छा,  = आदि-मूल शक्ति,  ४=शून्य,अनंत-अन्तरिक्ष, क्षीर सागर, मन ; =स्वर्ण अंड के रूप में ब्रह्माण्ड;  =मूल क्रियाशील व्यक्त तत्व ;  = सरस्वती की कृपा से ज्ञान का पुनः स्मरण )

----------------सृष्टि महाकाव्य क्रमशः ---द्वितीय सर्ग  -- उपसर्ग ...अगली पोस्ट में 

अगीत साहित्य दर्पण -अध्याय -६-भाग़ दो व अंतिम -अगीत की भाव संपदा ---डा श्याम गुप्त

                                               अगीत का कला पक्ष - -भाग दो
पिछली पोस्ट से आगे ......अलंकार ......
               मुख्यतया अंग्रेज़ी साहित्य के अलंकार -----मानवीकरण व ध्वन्यात्मक  अलंकार भी देखें .......

" असफलता आज थक गयी है ,
गुजरे हैं हद से कुछ लोग ,
उनकी पहचान क्या करें ?
अमृत पीना बेकार,
प्राणों की चाह है अधूरी ,
विह्वलता  और बढ़ गयी है |"                        ------डा सत्य ( मानवीकरण )

" नदिया मुस्कुराई 
कल कल कल खिलखिलाई ,
फिर लहर लहर लहराई |"                            ----- डा श्याम गुप्त -प्रेम काव्य से-ध्वन्यात्मक )

                पुनुरुक्ति  प्रकाश व वीप्सा अलंकार ------
" श्रम से जमीन का नाता जोड़ें ,
श्रम जीवन का मूलाधार ,
श्रम से कभे न मानो हार ;
श्रम ही श्रमिकों की मर्यादा,
श्रम के रथ को फिर से मोड़ें | "                            ------ डा सत्य ( पुनुरुक्ति प्रकाश )

" एक रबड़ ,
खिंची खिंची खिंची -
और टूट गयी ;
ज़िन्दगी रबड़ नहीं ,
तो और क्या है ? "                                            -----राजेश कुमार द्विवेदी ( वीप्सा )

                       अन्योक्ति, स्मरण, वक्रोक्ति, लोकोक्ति, असंगति व अप्रस्तुत अलंकार ------
" बालू से सागर के तट पर ,
खूब घरोंदे गए उकेरे |
वक्त की ऊंची लहर उठी जब,
सब कुछ आकर बहा ले गयी |
छोड़ गयी कुछ घोंघे सीपी,
सजा लिए हमने दामन में || "                       ----- प्रेम काव्य से ( अन्योक्ति )

" अजब खेल हैं,  मेरे बंधु !
गड्ढे तुम खोदते हो ,
गिरता मैं हूँ ;
करते तुम हो-
भरता मैं हूँ |
फिर भी न जाने कौन सी डोर ,
खींच लेजाती है तुम्हारे पास ,
मेरे अस्तित्व को;
साँसें तुम्हारी निकलती हैं,
मरता मैं हूँ | "                                              ------ मंगल दत्त द्विवेदी 'सरस' ( असंगति

" घिर गए हैं नील नभ में घन,
तडपने  लग गए तन मन ;
किसी  की याद  आई है,
महक महुए से आयी है | "                             ---- डा श्रीकृष्ण सिंह 'अखिलेश' ( स्मरण )

" आँख मूद कर हुक्म बजाना,
सच  की बात न मुंह पर लाना ;
पड जाएगा कष्ट उठाना | "                          ---- डा श्याम गुप्त ( वक्रोक्ति )

" ओ मानवता के दुश्मन !
थोड़े से दहेज के लिए,
जलादी प्यारी सी दुल्हन;
ठहर ! तुझे पछताना पडेगा,
ऊँट को पहाड़ के नीचे 
आना पडेगा | "                                         ----- विजय कुमारी मौर्या ( लोकोक्ति )

" मन के अंधियारे पटल पर ,
तुम्हारी छवि,
ज्योति-किरण सी लहराई;
एक नई कविता,
पुष्पित हो आई | "                                  ------ डा श्याम गुप्त ( अप्रस्तुत )


( ब) काव्य  के गुण और अगीत ----
               आचार्य मम्मट के अनुसार काव्य के गुण उसके अपरिहार्य तत्व हैं |अलान्कारादी युक्त होने पर भी गुणों से हीं काव्य आनंददायी  नहीं होता | ये काव्य की आतंरिक शोभाकारक हैं | काव्य के उत्कर्ष में मुख्य तत्व होते हैं | यद्यपि काव्याचार्यों के विभिन्न मत हैं परन्तु मूल रूप में काव्य के समस्त गुणों का मुख्यतः तीन गुणों में समावेश करके वर्णन किया जाता है | ये हैं---माधुर्य, ओज व प्रसाद ---ये गुण चित्त की वृत्तियों को को विषय-भावानुसार प्रकट व प्रदीप्त करते हैं |  माधुर्य --- का सम्बन्ध आह्लाद से है जिसमें अंतःकरण आनंद से द्रवित हो जाता है | ओज -- से चित्त दीप्त, प्रदीप्त व सम्पूर्ण होकर जोश , आवेग व ज्ञान के प्रकाश से भर उठाता है | प्रसाद गुण --का सम्बन्ध व्याकपत्व, विकासमानता व प्रफुल्लता से है | अर्थात जो श्रवण मात्र से ही अपना अर्थ प्रकट कर दे | आचार्य विश्वनाथ के अनुसार --" स प्रसाद: समस्तेषु रसेषु रचनाषु च "..अर्थात प्रसाद गुण समस्त रसों व रचनाओं का सहज सामान्य व आवश्यक गुण है |
                       अगीत काव्य मुख्यतया: प्रसाद गुण द्वारा सहज भव-संप्रेषणीयता युक्त विधा है , परन्तु सामाजिक सरोकारों से युक्त होने के कारण तीनों ही गुण प्रचुर मात्रा में पाए जाते हैं | कुछ उदाहरण प्रस्तुत हैं-----माधुर्य गुण युक्त कुछ अगीत देखिये ------

" सपने में मिलने तुम आये,
धीरे  से तन छुआ,
आँखें भर आईं , दी  दुआ;
मौन  स्तब्ध साक्षात हुआ , 
सहसा विश्वास जमा -
मन को तुम आज बहुत भाये | "                        ------ डा सत्य 

" विविध रंगकी सुमन वल्लरी ,
विविध रंग की सुमनावालियाँ ;
एवं नव पल्लव लड़ियों से,
सीता ने विधि भांति सजाया |
हर्षित होकर लक्ष्मण बोले,
'करें पदार्पण स्वागत है प्रभु ! "                       ---- शूर्पणखा खंड काव्य से 

               ओज --अर्थात नवीन उद्बोधन, नवोन्मेष, उत्साह , ओज से पाठक का मन ज्ञानवान, स्फूर्त व दीप्त होजाय | वाणी, मन , शरीर , अंतस, बुद्धि व ज्ञान से व्यक्ति प्रदीप्त हो उठे ----- 
" रक्त बीज भस्मासुर ,
रावण अनेक यहाँ ;
शकुनी दुर्योधन-
कंस द्वार द्वार पर ;
चाहिए एक और -
नीलकंठ आज फिर | "                      -----श्रीकृष्ण द्विवेदी 'द्विजेश'

" नव युग का मिलकर
 निर्माण करें ,
मानव का मानव से प्रेम हो ,
जीवन में नव बहार आये | 
सारा संसार एक हो,
शान्ति औए सुख में-
 यह राष्ट्र लहलहाए "                                ----डा सत्य 

                 प्रसाद गुण के कुछ उदाहरण देखें | सीधी सीधी बात मन के अंदर तक विस्तार करती हुई, अर्थ- प्रतीति देती है----

" तुमे मिलने आऊँगा,
 बार बार आऊँगा |
 चाहो तो ठुकरादो, 
चाहो  तो प्यार करो |
भाव बहुत गहरे हैं,
इनको दुलरालो | "                                 --- डा सत्य 

" संकल्प ले चुके हम,
पोलियो मुक्त जीवन का,
धर्म और आतंक के ,
विष से मुक्ति का,
संकल्प भी तो लें हम | "                       ---जगत नारायण पांडे 


(स्) अभिधा, लक्षणा, व्यंजना ----- 

                    कथ्य की  तीन शक्तियाँ, कथ्यानुसार अर्थ-प्रतीति व भाव उत्पन्न करती हैं | कवि अपनी कल्पना शक्ति से कथ्य में विशिष्ट लक्षणा, शब्द व अर्थगत लाक्षणिकता उत्पन्न कर सकता है जो अर्थ-प्रतीति को रूपकों आदि द्वारा लाक्षणिकता देकर कथ्य-सौंदर्य प्रकट करता है ( लक्षणा ) अथवा दूरस्थ  भाव या अन्य विशिष्ट व्यंजनात्मक भाव देकर कथ्य में दूरस्थ सन्देश, छद्म-सन्देश या कूट-सन्देश या अन्योक्तियों द्वारा विशिष्ट अर्थ-प्रतीति से शब्द या भाव व्यंजना उत्पन्न करके कथ्य सौंदर्य बढाता है (व्यंजना ); अथवा वह सीधे सीधे शब्दों में अर्थ्वात्तात्मक भाव-कथ्य का वर्णन कर सकता है ताकि विषय की क्लिष्टता , अर्थ-प्रतीति में बाधक न बने और सामान्य से सामान्य जन में भी भाव-सम्प्रेषण किया जा सके (अभिधा ) |
                          यद्यपि अगीत मुख्यतया अभिधेयता को ग्रहण करता है तथापि विविध विषय-बोध के कारण व अगीत कवियों के भी प्रथमतः गीति व छंद विधा निपुण होने के कारण लक्षणाये  व व्यंजनाएं भी पर्याप्त मात्रा में सहज ढंग से पाई जाती हैं | यह प्रस्तुत उदाहरणों से और भी स्पष्ट होजाता है --

                       लक्षणात्मक अगीत ---- 

" शरद पूर्णिमा सुछवि बिखेरे ,
पुष्पधन्वा शर संधाने,
युवा मन पर किये निशाना;
सब  ओर छागई प्रणय गंध 
कामिनी के पुलके अंग् अंग् ,
नयन वाण आकर हैं घेरे | "                       ---- सोहन लाल सुबुद्ध ( अर्थ लक्षणा )

" स्वप्नों के पंखों पर,
 चढ कर आती है ;
नींद-
सच्ची साम्यवादी है | "                             --- डा श्याम गुप्त ( शब्द लक्षणा )

" निजी स्वार्थ के कारण मानव ,
अति दोहन कर रहा प्रकृति का | 
प्रतिदिन एक ही स्वर्ण अंड से ,
उसका लालच नहीं सिमटता |
चीर कलेजा एक साथ ही ,
पाना  चाहे स्वर्ण खजाना | "                     ---- सृष्टि महाकाव्य से     


                      व्यंजनात्मक  अगीतों के उदाहरण प्रस्तुत हैं.-----

" तुमने तो मोम का ,
पिघलना ही देखा है |
पिघलने के भीतर का,
ताप नहीं देखा |"                             -----डा सरोजिनी अग्रवाल 

" गीदड़ों के शोर में,
मन्त्रों की वाणी ,
दब गयी है ;
भीड़ की चीखों में,
मधुरिम्  स्वर,
नहीं मिलते | "                               ----डा मिथिलेश दीक्षित 


                     अभिधात्मक अगीतों के निम्न उदाहरण पर्याप्त होंगे -----

" कुछ नेताओं का,
वजूद कैसा;
स्वयं के लिए ही जीते ;
सत्य तुम बिलकुल रीते | "                       ---- क्षमा पूर्णा पाठक 

" मेरी मां ने मुझे पढ़ाया ,
मां न चाहती क्या पढ़ पाता ;
आजीवन  पछताता रहता |
मेरे हिस्से का श्रम करके,
उसने ही स्कूल पठाया ,
मुझको रचनाकार बनाया | "                    --- सोहन लाल सुबुद्ध 

" नीम ,
 जिसमें गुण है असीम ;
मानव हितकारी ,
हारता अनेक बीमारी ;
द्वार की शोभा है नीम ,
पारिवारिक हकीम है नीम | "                       ----- सुरेन्द्र कुमार वर्मा ( मेरे अगीत छंद से )

" गीत मेरे तुमने जो गाये,
मेरे मन  की पीर अजानी ,   
छलक उठी आंसू भर आये |
सोच रहा बस जीता जाऊं ,
गम् के आंसू पीता जाऊं | 
गाता रहूँ गीत बस तेरे ,
बिसरादूं सारे जग के गम्  | "                     --- प्रेम काव्य से ( डा श्याम गुप्त )                      



                                                         ---- इति ---
                                                    अगीत साहित्य दर्पण