अगीत का कला पक्ष - -भाग दो
पिछली पोस्ट से आगे ......अलंकार ......
मुख्यतया अंग्रेज़ी साहित्य के अलंकार -----मानवीकरण व ध्वन्यात्मक अलंकार भी देखें .......
" असफलता आज थक गयी है ,
गुजरे हैं हद से कुछ लोग ,
उनकी पहचान क्या करें ?
अमृत पीना बेकार,
प्राणों की चाह है अधूरी ,
विह्वलता और बढ़ गयी है |" ------डा सत्य ( मानवीकरण )
" नदिया मुस्कुराई
कल कल कल खिलखिलाई ,
फिर लहर लहर लहराई |" ----- डा श्याम गुप्त -प्रेम काव्य से-ध्वन्यात्मक )
पुनुरुक्ति प्रकाश व वीप्सा अलंकार ------
" श्रम से जमीन का नाता जोड़ें ,
श्रम जीवन का मूलाधार ,
श्रम से कभे न मानो हार ;
श्रम ही श्रमिकों की मर्यादा,
श्रम के रथ को फिर से मोड़ें | " ------ डा सत्य ( पुनुरुक्ति प्रकाश )
" एक रबड़ ,
खिंची खिंची खिंची -
और टूट गयी ;
ज़िन्दगी रबड़ नहीं ,
तो और क्या है ? " -----राजेश कुमार द्विवेदी ( वीप्सा )
अन्योक्ति, स्मरण, वक्रोक्ति, लोकोक्ति, असंगति व अप्रस्तुत अलंकार ------
" बालू से सागर के तट पर ,
खूब घरोंदे गए उकेरे |
वक्त की ऊंची लहर उठी जब,
सब कुछ आकर बहा ले गयी |
छोड़ गयी कुछ घोंघे सीपी,
सजा लिए हमने दामन में || " ----- प्रेम काव्य से ( अन्योक्ति )
" अजब खेल हैं, मेरे बंधु !
गड्ढे तुम खोदते हो ,
गिरता मैं हूँ ;
करते तुम हो-
भरता मैं हूँ |
फिर भी न जाने कौन सी डोर ,
खींच लेजाती है तुम्हारे पास ,
मेरे अस्तित्व को;
साँसें तुम्हारी निकलती हैं,
मरता मैं हूँ | " ------ मंगल दत्त द्विवेदी 'सरस' ( असंगति
" घिर गए हैं नील नभ में घन,
तडपने लग गए तन मन ;
किसी की याद आई है,
महक महुए से आयी है | " ---- डा श्रीकृष्ण सिंह 'अखिलेश' ( स्मरण )
" आँख मूद कर हुक्म बजाना,
सच की बात न मुंह पर लाना ;
पड जाएगा कष्ट उठाना | " ---- डा श्याम गुप्त ( वक्रोक्ति )
" ओ मानवता के दुश्मन !
थोड़े से दहेज के लिए,
जलादी प्यारी सी दुल्हन;
ठहर ! तुझे पछताना पडेगा,
ऊँट को पहाड़ के नीचे
आना पडेगा | " ----- विजय कुमारी मौर्या ( लोकोक्ति )
" मन के अंधियारे पटल पर ,
तुम्हारी छवि,
ज्योति-किरण सी लहराई;
एक नई कविता,
पुष्पित हो आई | " ------ डा श्याम गुप्त ( अप्रस्तुत )
( ब) काव्य के गुण और अगीत ----
आचार्य मम्मट के अनुसार काव्य के गुण उसके अपरिहार्य तत्व हैं |अलान्कारादी युक्त होने पर भी गुणों से हीं काव्य आनंददायी नहीं होता | ये काव्य की आतंरिक शोभाकारक हैं | काव्य के उत्कर्ष में मुख्य तत्व होते हैं | यद्यपि काव्याचार्यों के विभिन्न मत हैं परन्तु मूल रूप में काव्य के समस्त गुणों का मुख्यतः तीन गुणों में समावेश करके वर्णन किया जाता है | ये हैं---माधुर्य, ओज व प्रसाद ---ये गुण चित्त की वृत्तियों को को विषय-भावानुसार प्रकट व प्रदीप्त करते हैं | माधुर्य --- का सम्बन्ध आह्लाद से है जिसमें अंतःकरण आनंद से द्रवित हो जाता है | ओज -- से चित्त दीप्त, प्रदीप्त व सम्पूर्ण होकर जोश , आवेग व ज्ञान के प्रकाश से भर उठाता है | प्रसाद गुण --का सम्बन्ध व्याकपत्व, विकासमानता व प्रफुल्लता से है | अर्थात जो श्रवण मात्र से ही अपना अर्थ प्रकट कर दे | आचार्य विश्वनाथ के अनुसार --" स प्रसाद: समस्तेषु रसेषु रचनाषु च "..अर्थात प्रसाद गुण समस्त रसों व रचनाओं का सहज सामान्य व आवश्यक गुण है |
अगीत काव्य मुख्यतया: प्रसाद गुण द्वारा सहज भव-संप्रेषणीयता युक्त विधा है , परन्तु सामाजिक सरोकारों से युक्त होने के कारण तीनों ही गुण प्रचुर मात्रा में पाए जाते हैं | कुछ उदाहरण प्रस्तुत हैं-----माधुर्य गुण युक्त कुछ अगीत देखिये ------
" सपने में मिलने तुम आये,
धीरे से तन छुआ,
आँखें भर आईं , दी दुआ;
मौन स्तब्ध साक्षात हुआ ,
सहसा विश्वास जमा -
मन को तुम आज बहुत भाये | " ------ डा सत्य
" विविध रंगकी सुमन वल्लरी ,
विविध रंग की सुमनावालियाँ ;
एवं नव पल्लव लड़ियों से,
सीता ने विधि भांति सजाया |
हर्षित होकर लक्ष्मण बोले,
'करें पदार्पण स्वागत है प्रभु ! " ---- शूर्पणखा खंड काव्य से
ओज --अर्थात नवीन उद्बोधन, नवोन्मेष, उत्साह , ओज से पाठक का मन ज्ञानवान, स्फूर्त व दीप्त होजाय | वाणी, मन , शरीर , अंतस, बुद्धि व ज्ञान से व्यक्ति प्रदीप्त हो उठे -----
" रक्त बीज भस्मासुर ,
रावण अनेक यहाँ ;
शकुनी दुर्योधन-
कंस द्वार द्वार पर ;
चाहिए एक और -
नीलकंठ आज फिर | " -----श्रीकृष्ण द्विवेदी 'द्विजेश'
" नव युग का मिलकर
निर्माण करें ,
मानव का मानव से प्रेम हो ,
जीवन में नव बहार आये |
सारा संसार एक हो,
शान्ति औए सुख में-
यह राष्ट्र लहलहाए " ----डा सत्य
प्रसाद गुण के कुछ उदाहरण देखें | सीधी सीधी बात मन के अंदर तक विस्तार करती हुई, अर्थ- प्रतीति देती है----
" तुमे मिलने आऊँगा,
बार बार आऊँगा |
चाहो तो ठुकरादो,
चाहो तो प्यार करो |
भाव बहुत गहरे हैं,
इनको दुलरालो | " --- डा सत्य
" संकल्प ले चुके हम,
पोलियो मुक्त जीवन का,
धर्म और आतंक के ,
विष से मुक्ति का,
संकल्प भी तो लें हम | " ---जगत नारायण पांडे
(स्) अभिधा, लक्षणा, व्यंजना -----
कथ्य की तीन शक्तियाँ, कथ्यानुसार अर्थ-प्रतीति व भाव उत्पन्न करती हैं | कवि अपनी कल्पना शक्ति से कथ्य में विशिष्ट लक्षणा, शब्द व अर्थगत लाक्षणिकता उत्पन्न कर सकता है जो अर्थ-प्रतीति को रूपकों आदि द्वारा लाक्षणिकता देकर कथ्य-सौंदर्य प्रकट करता है ( लक्षणा ) अथवा दूरस्थ भाव या अन्य विशिष्ट व्यंजनात्मक भाव देकर कथ्य में दूरस्थ सन्देश, छद्म-सन्देश या कूट-सन्देश या अन्योक्तियों द्वारा विशिष्ट अर्थ-प्रतीति से शब्द या भाव व्यंजना उत्पन्न करके कथ्य सौंदर्य बढाता है (व्यंजना ); अथवा वह सीधे सीधे शब्दों में अर्थ्वात्तात्मक भाव-कथ्य का वर्णन कर सकता है ताकि विषय की क्लिष्टता , अर्थ-प्रतीति में बाधक न बने और सामान्य से सामान्य जन में भी भाव-सम्प्रेषण किया जा सके (अभिधा ) |
यद्यपि अगीत मुख्यतया अभिधेयता को ग्रहण करता है तथापि विविध विषय-बोध के कारण व अगीत कवियों के भी प्रथमतः गीति व छंद विधा निपुण होने के कारण लक्षणाये व व्यंजनाएं भी पर्याप्त मात्रा में सहज ढंग से पाई जाती हैं | यह प्रस्तुत उदाहरणों से और भी स्पष्ट होजाता है --
लक्षणात्मक अगीत ----
" शरद पूर्णिमा सुछवि बिखेरे ,
पुष्पधन्वा शर संधाने,
युवा मन पर किये निशाना;
सब ओर छागई प्रणय गंध
कामिनी के पुलके अंग् अंग् ,
नयन वाण आकर हैं घेरे | " ---- सोहन लाल सुबुद्ध ( अर्थ लक्षणा )
" स्वप्नों के पंखों पर,
चढ कर आती है ;
नींद-
सच्ची साम्यवादी है | " --- डा श्याम गुप्त ( शब्द लक्षणा )
" निजी स्वार्थ के कारण मानव ,
अति दोहन कर रहा प्रकृति का |
प्रतिदिन एक ही स्वर्ण अंड से ,
उसका लालच नहीं सिमटता |
चीर कलेजा एक साथ ही ,
पाना चाहे स्वर्ण खजाना | " ---- सृष्टि महाकाव्य से
व्यंजनात्मक अगीतों के उदाहरण प्रस्तुत हैं.-----
" तुमने तो मोम का ,
पिघलना ही देखा है |
पिघलने के भीतर का,
ताप नहीं देखा |" -----डा सरोजिनी अग्रवाल
" गीदड़ों के शोर में,
मन्त्रों की वाणी ,
दब गयी है ;
भीड़ की चीखों में,
मधुरिम् स्वर,
नहीं मिलते | " ----डा मिथिलेश दीक्षित
अभिधात्मक अगीतों के निम्न उदाहरण पर्याप्त होंगे -----
" कुछ नेताओं का,
वजूद कैसा;
स्वयं के लिए ही जीते ;
सत्य तुम बिलकुल रीते | " ---- क्षमा पूर्णा पाठक
" मेरी मां ने मुझे पढ़ाया ,
मां न चाहती क्या पढ़ पाता ;
आजीवन पछताता रहता |
मेरे हिस्से का श्रम करके,
उसने ही स्कूल पठाया ,
मुझको रचनाकार बनाया | " --- सोहन लाल सुबुद्ध
" नीम ,
जिसमें गुण है असीम ;
मानव हितकारी ,
हारता अनेक बीमारी ;
द्वार की शोभा है नीम ,
पारिवारिक हकीम है नीम | " ----- सुरेन्द्र कुमार वर्मा ( मेरे अगीत छंद से )
" गीत मेरे तुमने जो गाये,
मेरे मन की पीर अजानी ,
छलक उठी आंसू भर आये |
सोच रहा बस जीता जाऊं ,
गम् के आंसू पीता जाऊं |
गाता रहूँ गीत बस तेरे ,
बिसरादूं सारे जग के गम् | " --- प्रेम काव्य से ( डा श्याम गुप्त )
---- इति ---
पिछली पोस्ट से आगे ......अलंकार ......
मुख्यतया अंग्रेज़ी साहित्य के अलंकार -----मानवीकरण व ध्वन्यात्मक अलंकार भी देखें .......
" असफलता आज थक गयी है ,
गुजरे हैं हद से कुछ लोग ,
उनकी पहचान क्या करें ?
अमृत पीना बेकार,
प्राणों की चाह है अधूरी ,
विह्वलता और बढ़ गयी है |" ------डा सत्य ( मानवीकरण )
" नदिया मुस्कुराई
कल कल कल खिलखिलाई ,
फिर लहर लहर लहराई |" ----- डा श्याम गुप्त -प्रेम काव्य से-ध्वन्यात्मक )
पुनुरुक्ति प्रकाश व वीप्सा अलंकार ------
" श्रम से जमीन का नाता जोड़ें ,
श्रम जीवन का मूलाधार ,
श्रम से कभे न मानो हार ;
श्रम ही श्रमिकों की मर्यादा,
श्रम के रथ को फिर से मोड़ें | " ------ डा सत्य ( पुनुरुक्ति प्रकाश )
" एक रबड़ ,
खिंची खिंची खिंची -
और टूट गयी ;
ज़िन्दगी रबड़ नहीं ,
तो और क्या है ? " -----राजेश कुमार द्विवेदी ( वीप्सा )
अन्योक्ति, स्मरण, वक्रोक्ति, लोकोक्ति, असंगति व अप्रस्तुत अलंकार ------
" बालू से सागर के तट पर ,
खूब घरोंदे गए उकेरे |
वक्त की ऊंची लहर उठी जब,
सब कुछ आकर बहा ले गयी |
छोड़ गयी कुछ घोंघे सीपी,
सजा लिए हमने दामन में || " ----- प्रेम काव्य से ( अन्योक्ति )
" अजब खेल हैं, मेरे बंधु !
गड्ढे तुम खोदते हो ,
गिरता मैं हूँ ;
करते तुम हो-
भरता मैं हूँ |
फिर भी न जाने कौन सी डोर ,
खींच लेजाती है तुम्हारे पास ,
मेरे अस्तित्व को;
साँसें तुम्हारी निकलती हैं,
मरता मैं हूँ | " ------ मंगल दत्त द्विवेदी 'सरस' ( असंगति
" घिर गए हैं नील नभ में घन,
तडपने लग गए तन मन ;
किसी की याद आई है,
महक महुए से आयी है | " ---- डा श्रीकृष्ण सिंह 'अखिलेश' ( स्मरण )
" आँख मूद कर हुक्म बजाना,
सच की बात न मुंह पर लाना ;
पड जाएगा कष्ट उठाना | " ---- डा श्याम गुप्त ( वक्रोक्ति )
" ओ मानवता के दुश्मन !
थोड़े से दहेज के लिए,
जलादी प्यारी सी दुल्हन;
ठहर ! तुझे पछताना पडेगा,
ऊँट को पहाड़ के नीचे
आना पडेगा | " ----- विजय कुमारी मौर्या ( लोकोक्ति )
" मन के अंधियारे पटल पर ,
तुम्हारी छवि,
ज्योति-किरण सी लहराई;
एक नई कविता,
पुष्पित हो आई | " ------ डा श्याम गुप्त ( अप्रस्तुत )
( ब) काव्य के गुण और अगीत ----
आचार्य मम्मट के अनुसार काव्य के गुण उसके अपरिहार्य तत्व हैं |अलान्कारादी युक्त होने पर भी गुणों से हीं काव्य आनंददायी नहीं होता | ये काव्य की आतंरिक शोभाकारक हैं | काव्य के उत्कर्ष में मुख्य तत्व होते हैं | यद्यपि काव्याचार्यों के विभिन्न मत हैं परन्तु मूल रूप में काव्य के समस्त गुणों का मुख्यतः तीन गुणों में समावेश करके वर्णन किया जाता है | ये हैं---माधुर्य, ओज व प्रसाद ---ये गुण चित्त की वृत्तियों को को विषय-भावानुसार प्रकट व प्रदीप्त करते हैं | माधुर्य --- का सम्बन्ध आह्लाद से है जिसमें अंतःकरण आनंद से द्रवित हो जाता है | ओज -- से चित्त दीप्त, प्रदीप्त व सम्पूर्ण होकर जोश , आवेग व ज्ञान के प्रकाश से भर उठाता है | प्रसाद गुण --का सम्बन्ध व्याकपत्व, विकासमानता व प्रफुल्लता से है | अर्थात जो श्रवण मात्र से ही अपना अर्थ प्रकट कर दे | आचार्य विश्वनाथ के अनुसार --" स प्रसाद: समस्तेषु रसेषु रचनाषु च "..अर्थात प्रसाद गुण समस्त रसों व रचनाओं का सहज सामान्य व आवश्यक गुण है |
अगीत काव्य मुख्यतया: प्रसाद गुण द्वारा सहज भव-संप्रेषणीयता युक्त विधा है , परन्तु सामाजिक सरोकारों से युक्त होने के कारण तीनों ही गुण प्रचुर मात्रा में पाए जाते हैं | कुछ उदाहरण प्रस्तुत हैं-----माधुर्य गुण युक्त कुछ अगीत देखिये ------
" सपने में मिलने तुम आये,
धीरे से तन छुआ,
आँखें भर आईं , दी दुआ;
मौन स्तब्ध साक्षात हुआ ,
सहसा विश्वास जमा -
मन को तुम आज बहुत भाये | " ------ डा सत्य
" विविध रंगकी सुमन वल्लरी ,
विविध रंग की सुमनावालियाँ ;
एवं नव पल्लव लड़ियों से,
सीता ने विधि भांति सजाया |
हर्षित होकर लक्ष्मण बोले,
'करें पदार्पण स्वागत है प्रभु ! " ---- शूर्पणखा खंड काव्य से
ओज --अर्थात नवीन उद्बोधन, नवोन्मेष, उत्साह , ओज से पाठक का मन ज्ञानवान, स्फूर्त व दीप्त होजाय | वाणी, मन , शरीर , अंतस, बुद्धि व ज्ञान से व्यक्ति प्रदीप्त हो उठे -----
" रक्त बीज भस्मासुर ,
रावण अनेक यहाँ ;
शकुनी दुर्योधन-
कंस द्वार द्वार पर ;
चाहिए एक और -
नीलकंठ आज फिर | " -----श्रीकृष्ण द्विवेदी 'द्विजेश'
" नव युग का मिलकर
निर्माण करें ,
मानव का मानव से प्रेम हो ,
जीवन में नव बहार आये |
सारा संसार एक हो,
शान्ति औए सुख में-
यह राष्ट्र लहलहाए " ----डा सत्य
प्रसाद गुण के कुछ उदाहरण देखें | सीधी सीधी बात मन के अंदर तक विस्तार करती हुई, अर्थ- प्रतीति देती है----
" तुमे मिलने आऊँगा,
बार बार आऊँगा |
चाहो तो ठुकरादो,
चाहो तो प्यार करो |
भाव बहुत गहरे हैं,
इनको दुलरालो | " --- डा सत्य
" संकल्प ले चुके हम,
पोलियो मुक्त जीवन का,
धर्म और आतंक के ,
विष से मुक्ति का,
संकल्प भी तो लें हम | " ---जगत नारायण पांडे
(स्) अभिधा, लक्षणा, व्यंजना -----
कथ्य की तीन शक्तियाँ, कथ्यानुसार अर्थ-प्रतीति व भाव उत्पन्न करती हैं | कवि अपनी कल्पना शक्ति से कथ्य में विशिष्ट लक्षणा, शब्द व अर्थगत लाक्षणिकता उत्पन्न कर सकता है जो अर्थ-प्रतीति को रूपकों आदि द्वारा लाक्षणिकता देकर कथ्य-सौंदर्य प्रकट करता है ( लक्षणा ) अथवा दूरस्थ भाव या अन्य विशिष्ट व्यंजनात्मक भाव देकर कथ्य में दूरस्थ सन्देश, छद्म-सन्देश या कूट-सन्देश या अन्योक्तियों द्वारा विशिष्ट अर्थ-प्रतीति से शब्द या भाव व्यंजना उत्पन्न करके कथ्य सौंदर्य बढाता है (व्यंजना ); अथवा वह सीधे सीधे शब्दों में अर्थ्वात्तात्मक भाव-कथ्य का वर्णन कर सकता है ताकि विषय की क्लिष्टता , अर्थ-प्रतीति में बाधक न बने और सामान्य से सामान्य जन में भी भाव-सम्प्रेषण किया जा सके (अभिधा ) |
यद्यपि अगीत मुख्यतया अभिधेयता को ग्रहण करता है तथापि विविध विषय-बोध के कारण व अगीत कवियों के भी प्रथमतः गीति व छंद विधा निपुण होने के कारण लक्षणाये व व्यंजनाएं भी पर्याप्त मात्रा में सहज ढंग से पाई जाती हैं | यह प्रस्तुत उदाहरणों से और भी स्पष्ट होजाता है --
लक्षणात्मक अगीत ----
" शरद पूर्णिमा सुछवि बिखेरे ,
पुष्पधन्वा शर संधाने,
युवा मन पर किये निशाना;
सब ओर छागई प्रणय गंध
कामिनी के पुलके अंग् अंग् ,
नयन वाण आकर हैं घेरे | " ---- सोहन लाल सुबुद्ध ( अर्थ लक्षणा )
" स्वप्नों के पंखों पर,
चढ कर आती है ;
नींद-
सच्ची साम्यवादी है | " --- डा श्याम गुप्त ( शब्द लक्षणा )
" निजी स्वार्थ के कारण मानव ,
अति दोहन कर रहा प्रकृति का |
प्रतिदिन एक ही स्वर्ण अंड से ,
उसका लालच नहीं सिमटता |
चीर कलेजा एक साथ ही ,
पाना चाहे स्वर्ण खजाना | " ---- सृष्टि महाकाव्य से
व्यंजनात्मक अगीतों के उदाहरण प्रस्तुत हैं.-----
" तुमने तो मोम का ,
पिघलना ही देखा है |
पिघलने के भीतर का,
ताप नहीं देखा |" -----डा सरोजिनी अग्रवाल
" गीदड़ों के शोर में,
मन्त्रों की वाणी ,
दब गयी है ;
भीड़ की चीखों में,
मधुरिम् स्वर,
नहीं मिलते | " ----डा मिथिलेश दीक्षित
अभिधात्मक अगीतों के निम्न उदाहरण पर्याप्त होंगे -----
" कुछ नेताओं का,
वजूद कैसा;
स्वयं के लिए ही जीते ;
सत्य तुम बिलकुल रीते | " ---- क्षमा पूर्णा पाठक
" मेरी मां ने मुझे पढ़ाया ,
मां न चाहती क्या पढ़ पाता ;
आजीवन पछताता रहता |
मेरे हिस्से का श्रम करके,
उसने ही स्कूल पठाया ,
मुझको रचनाकार बनाया | " --- सोहन लाल सुबुद्ध
" नीम ,
जिसमें गुण है असीम ;
मानव हितकारी ,
हारता अनेक बीमारी ;
द्वार की शोभा है नीम ,
पारिवारिक हकीम है नीम | " ----- सुरेन्द्र कुमार वर्मा ( मेरे अगीत छंद से )
" गीत मेरे तुमने जो गाये,
मेरे मन की पीर अजानी ,
छलक उठी आंसू भर आये |
सोच रहा बस जीता जाऊं ,
गम् के आंसू पीता जाऊं |
गाता रहूँ गीत बस तेरे ,
बिसरादूं सारे जग के गम् | " --- प्रेम काव्य से ( डा श्याम गुप्त )
---- इति ---
अगीत साहित्य दर्पण