इस चिट्ठे पर हिन्दी की अतुकान्त कविता धारा की एक विशेष विधा " अगीत- कविता " व उसके साहित्य के विविध रूप-भाव प्रस्तुत किये जायेंगे.....
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Friday 7 September 2012
Wednesday 5 September 2012
‘अगीत साहित्य दर्पण’ क्रमश :....प्रस्तावना..डा रंग नाथ मिश्र 'सत्य'...
. प्रस्तावना
‘अगीत साहित्य दर्पण’ रचनाकारों के लिए एक
मानक ग्रन्थ होगा –डा. रंगनाथ मिश्र ’सत्य’....
हिन्दी साहित्य को समर्पित, मूलतः
चिकित्सक व सर्जन महाकवि डा श्याम गुप्त द्वारा लिखित ‘अगीत साहित्य दर्पण’ प्रकाशित होकर विज्ञ पाठकों के समक्ष प्रस्तुत
होने जा रहा है| इसमें लेखक ने अगीत छंद विधा व उसका साहित्यिक पक्ष विस्तार से
लिखने का समुचित प्रयास किया है| डा श्याम गुप्त ने अगीत-विधा में सृष्टि व् जीवन
की उत्पत्ति पर “सृष्टि–ईशत-इच्छा या बिगबैंग” महाकाव्य तथा रामकथा पर आधारित
नारी-विमर्श पर “शूर्पणखा” खंड काव्य का प्रणयन करके अगीत की स्थापना में अपना
अमूल्य योगदान दिया है|
सन
१९६६ ई. में मैंने अपने कुछ सहयोगियों के साथ ‘अखिल भारतीय अगीत परिषद’
साहित्यिक व सांस्कृतिक संस्था की स्थापना की| एक पत्रक प्रकाशित करके सारे
देश के प्रवुद्ध रचनाकारों को भेजा, जिसमें सुझाव मांगे गए थे कि अगीत काव्य-विधा
को किस प्रकार स्थापित करके समाज को नयी दिशा प्रदान की जाय| बहुत से सुझाव आये
एवं सैकड़ों नए रचनाकारों ने इस विधा से जुडकर कार्य आरंभ कर दिया |
सन
१९६०-७० के दशक में साहित्यकार-रचनाकार यह नहीं सुनिश्चित कर पाए कि कविता को कौन
सी सही दिशा प्रदान की जाय | कविता के क्षेत्र में अकविता, ठोस-कविता, चेतन-कविता,
अचेतन-कविता, युयुत्सावादी-कविता, खबरदार-कविता, कबीरपंथी, आदि आंदोलन चले| गीत
में नयागीत, नवगीत, अनुगीत जैसे नए-नए आंदोलन आये| इन सब पर विशेष रूप से
पाश्चात्य दर्शन का प्रभाव था| फ्रांस से जो आंदोलन चले वे बंगला साहित्य में आये,
तत्पश्चात उन्हें हिन्दी में अपनाया जाने लगा | इन आन्दोलनों में अस्पष्टता व
सर्वसाधारण के लिए दुर्वोधता झलकती रही| अतः यह आवश्यक हुआ कि कविता में ‘अगीत-काव्य’
को स्वीकार किया जाय |
वैज्ञानिक अन्वेषणों से संसार में दूरी का
महत्व सिमट गया है| विश्व ने जहां इस शताव्दी के पूर्वार्ध में दो महायुद्धों के
दुष्परिणामों को नयी शक्तियों के उभरते शीत-युद्धों की सरगर्मी के रूप में देखा है
वहीं एक सर्वथा नए धरातल पर प्रतिष्ठित युवा-चेतना का उन्मेष भी विभिन्न रूपों में
सामने आया है| स्वतन्त्रता के पश्चात भारतीय समाज और साहित्य में भी इसी
प्रकार अपनी पूर्व-परम्परा से हटकर अधिक चैतन्य व स्वाभाविक होने लगा | हम जानते
हैं कि भारत को भी कई महायुद्धों का सामना करना पडा | इस संक्रांति काल में
युवक-युवतियों में पाश्चात्य सभ्यता को अपनाने की होड लगी हुई थी| एसी स्थिति में
मैंने २०-२५ सहयोगियों के साथ ‘हिन्दी कविता में अगीत-आंदोलन’ की शुरूआत
की जो युवा चेतना के उन्मेष का दृष्टा था | तब से १९९२ तक पच्चीस वर्षों में अगीत
विधा पर कई काव्य-संग्रह प्रकाशित हुए| तदुपरांत हिन्दी के विद्वान समीक्षक डा
विश्वंभर नाथ उपाध्याय, कुलपति कानपुर वि.वि., अ.भा. अगीत परिषद की संरक्षक डा उषा
गुप्ता, पद्मश्री प.बचनेश त्रिपाठी, संगमलाल मालवीय (मास्को), डा लक्ष्मी नारायण
लाल दुबे ( सागर वि.वि.), सुबोध मिश्र,संपादक सफरनामा आदि की प्रेरणा से अखिल
भारतीय अगीत परिषद की की रजत जयन्ती वर्ष पर परिचयात्मक ग्रन्थ “अगीत काव्य
के चौदह रत्न” प्रकाशित कराया
गया| जिसमें चौदह अगीत कवियों १०-१० अगीत प्रकाशित किये गए|
सन १९६६-६७ में जो अगीत का
मेनीफेस्टो प्रकाशित हुआ उसमें यह स्पष्ट कर दिया गया था कि अगीत खोज की और
अग्रसर है उसमें नए रचनाकार बराबर जुडते रहेंगे क्योंकि खोज कभी रूढिगत नहीं होती|
अगीत विधा के रचनाकार किसी ‘वाद’ में विश्वास नहीं रखते किन्तु कोई भी आंदोलन अधिक
दिनों तक चलता है तो वह वाद का रूप ले लेता है | अतः आज ४५-४६ वर्षों बाद हम इसे ‘अगीतवाद’
के नाम से भी पुकार सकते हैं | अगीत विधा का आकाशवाणी , दूरदर्शन, देश-विदेश की
पत्र-पत्रिकाओं द्वारा, शोध-प्रबंधों व कानपुर व लखनऊ के विश्व-विद्यालयों में
परीक्षाओं में प्रश्न पूछे जाने से व्यापक प्रचार-प्रसार हुआ है| साथ ही इस
विधा का विकास कई कोटियों के माध्यम से हुआ है यथा कविता के....शिल्प, मात्रा,
गुणवत्ता, विविध-साहित्य, विषय, भाषा, उपादान व भाव की कोटि |
अगीत काव्य पर दूसरा परिचयात्मक
काव्य-संग्रह १९९३ में “ अगीत काव्य के इक्कीस स्तंभ”. तृतीय संग्रह
अगीतोत्सव -९५ के अवसर पर ”अगीत काव्य के अष्ठादस पथी” एवं चौथा संकलन आजादी के स्वर्ण-जयन्ती वर्ष
१९९७ को गांधी-शास्त्री जन्म-दिवस पर “अगीत-काव्य के सोलह महारथी” के
नाम से प्रकाशित हुआ| अगीत का पांचवा संकलन “ अगीत काव्य के पैंतालीस सशक्त
हस्ताक्षर “ के नाम से प्रकाशित होकर शीघ्र प्रस्तुत किया जाएगा|
‘अगीत काव्य के चौदह रत्न’.. व ‘अगीत
काव्य के इक्कीस स्तंभ’ एवं ‘अगीत काव्य के अष्ठादस पथी’ का संपादन मेरे द्वारा
किया गया जो अ.भा.अगीत परिषद की संरक्षक डा ऊषा गुप्ता, ब्रज-विभूति चौ.नबाव सिंह
यादव,भू.पू. मंत्री उ.प्र व प.रामचंद्र शुक्ल पूर्व न्यायाधीश को समर्पित किये गए|
‘अगीत काव्य के सोलह महारथी’ का संपादन मेरे व डा नीरज कुमार द्वारा किया ग्याजो
मेरे भतीजे युवा साहित्यकार यशशेष अरुणकुमार मिश्र उर्फ श्रीधर को समर्पित किया
गया|
वर्त्तमान दो दशकों में अगीत-विधा में महाकाव्य
व खंड-काव्य भी लिखे गए हैं| ‘मोह और पश्चाताप’, सृष्टि, शूर्पणखा
व ‘सौमित्र गुणाकर’ आदि महाकाव्य एवं खंड-काव्य प्रकाशित हुए जो अगीतवाद की स्थापना में
मील-स्तंभ का कार्य कर रहे हैं |
मैं यह जानता हूँ कि परम्परागत काव्य में
शिल्पगत विशेषताओं के अंतर्गत छंद-विधान योजना, पद्यात्मक भाषाशैली व अलंकार सौष्ठव आदि का महत्वपूर्ण स्थान है |
अगीत काव्य के कवियों ने इन परम्पराओं का त्याग किया है | तथापि काव्य-भाव होने से
काव्य-सौन्द्र्यानुसार अलंकार व रस-भाव तो प्रत्येक प्रकार की कविता में स्वतः ही
आजाते हैं| अगीत काव्य में परम्परागत छंदों के स्थान पर मुक्त-छंद व गद्यात्मक
शैली को अपनाया है| भाषा पर भी नए प्रयोग किये हैं| अगीत-काव्य में यह स्वीकारा
गया है कि संक्षिप्तता के माध्यम से कवि अपनी बात कहे| अगीत कवियों में निराशा,
कुंठा, घुटन, आस्था-अनास्था, समष्टि-कल्याण की भावना व लघु-मानव की प्रतिष्ठा हेतु
विद्रोह के स्वर भी अभिव्यक्त हुए हैं|
महाकवि डा श्याम गुप्त द्वारा लिखित यह “
अगीत साहित्य दर्पण” अगीत विधा के रचनाकारों व सभी साहित्यकारों के लिए वरदान
सिद्ध होगा | महाकवि ने कठिन श्रम और अध्ययन करके इसे तैयार किया है जिसमें
अगीत-काव्य के सभी मानदंडों को स्थापित करने में अपनी लेखनी का प्रयोग करते हुए
गतिमय सप्तपदी, लयबद्ध षट्पदी अगीत, नव-अगीत, त्रिपदा अगीत, त्रिपदा अगीत हज़ल आदि
अगीत की विभिन्न विधाओं का भी उल्लेख किया है| उनके द्वारा आगे भी अगीतवाद की
स्थापना में अन्य ग्रन्थ भी लिखे जायेंगे और उनके अन्य अगीत संग्रह, महाकाव्य व
खंडकाव्य आदि आगे भी प्रकाशित होंगे, ऐसी मेरी आशा ही नहीं विश्वास है | मैं
महाकवि डा श्याम गुप्त की लेखनी का वंदन-अभिनन्दन करता हूँ और कामना करता हूँ कि
कि यह ग्रन्थ ‘अगीत साहित्य दर्पण’ अगीत विधा के रचनाकारों को अपना अमूल्य योगदान
दे | मंगल कामनाओं के साथ |....मेरे दो अगीत प्रस्तुत हैं....
परिवर्तन, हिन्दी
के प्रति रहो समर्पित ...|
जीवन का मूल मन्त्र; हिन्दी ही भारत की
आशा ,
जैसा कल बीता होगी यही
राष्ट्र की भाषा ;
जो आज जी रहे देवनागरी को
अपनाएं ,
आगे जो आएगा , प्रगति पथ पर
,
उसमें भी होंगे – बढ़ाते जाएँ |
उत्थान-पतन |
हस्ताक्षर
सम्प्रति—
अगीतायन, (
डा रंगनाथ मिश्र ‘सत्य’...एम् ए,पी.एच.डी)
ई-३८८५,राजाजी पुरम, लखनऊ-१७ अध्यक्ष –अखिल भारतीय अगीत
परिषद, लखनऊ मो.९३३५९९०४३५ ...दूभा.०५२२-२४१४८१७
------- क्रमश:-- अगीत साहित्य दर्पण ...शुभाशंसा...अगली पोस्ट में ..
अगीत का छंद-विधान ...अगीत साहित्य दर्पण ...डा श्याम गुप्त
अगीत का छंद-विधान ....डा श्याम गुप्त की नयी पुस्तक.....अगीत साहित्य दर्पण ...
अतुकांत कविता की एक विशिष्ट विधा---अगीत कविता---का प्रथम छंद-विधान--एक शास्त्रीय ग्रन्थ
नाम पुस्तक--- अगीत साहित्य दर्पण (अगीत काव्य एवं अगीत छंद विधान )
रचयिता ------ डा श्याम गुप्त
प्रकाशन ------ सुषमा प्रकाशन , लखनऊ एवं अखिल भारतीय अगीत परिषद , लखनऊ
प्रकाशन वर्ष --१ मार्च, २०१२ ई....पृष्ठ ---९४ ...मूल्य ....१५०/-रु.
संक्षिप्त विवरण
समर्पण--- डा रंगनाथ मिश्र सत्य एवं महाकवि श्री जगत नारायण पांडे को |
प्रस्तावना----"'अगीत साहित्य दर्पण' रचनाकारों के लिए एक मानक ग्रन्थ होगा"- -डा रंगनाथ मिश्र 'सत्य' संस्थापक अध्यक्ष , अखिल भारतीय अगीत परिषद, लखनऊ
शुभाशंसा ----प्रोफ. कैलाश देवी सिंह, पीएचडी . डी लिट, विभागाध्यक्ष, हिन्दी तथा आधुनिक भाषा विभाग, लखनऊ वि. विद्यालय, लखनऊ |
दो शब्द ------ कविवर श्री रामदेव लाल 'विभोर' महामंत्री, काव्य कला मंदिर, लखनऊ |
पूर्व कथन व आभार .... लेखक
मंगलाचरण ----
१.
माँ वाणी! माँ सरस्वती |
माँ शारदे |
अगीत को नवीन सुरलय ताल का
संसार दे |
नए नए स्वर, छंद-
नवल विचार दे |
यह अगीत काव्य ,
जन जन में विस्तार पाए ;
मूढमति श्याम का -
माँ जीवन सुधार दे ||
२.
हे अगीत ! तुम निहित गीत में,
गीत तुम्हारे अंतर स्थित |
नए छंद , नव भाव, नवल स्वर ,
ले अवतरित हुए हे चेतन !
वंदन हित वाणी-विनायकौ ,
नमन श्याम का हो स्वीकार ||
विषय - अनुक्रमणिका ....
प्रथम अध्याय ....अगीत: एतिहासिक पृष्ठभूमि व् परिदृश्य ..
द्वितीय अध्याय ....अगीत : क्यों व क्या है एवं उसकी उपयोगिता ..
तृतीय अध्याय ...अगीत : वर्त्तमान परिदृश्य व भविष्य की संभावना ..
चतुर्थ अध्याय ....अगीत छंद व उनका रचना विधान ..
पंचम अध्याय ....अगीत की भाव संपदा ..
षष्ठ अध्याय ..... अगीत का कला पक्ष ......
----क्रमश .....प्रस्तावना ...अगली पोस्ट में ......
Monday 13 August 2012
साहित्य मूर्ति डा रंगनाथ मिश्र 'सत्य' पर पुस्तक का लोकार्पण एवं सृजन संस्था का वार्षिक सम्मान समारोह ....डा श्याम गुप्त ..
लोकार्पित पुस्तक |
पुस्तक का लोकार्पण --श्री गधाधर नारायण, प्रोफ मौ.मुजम्मिल, विनोद चन्द्र पांडे ,महेश चन्द्र द्विवेदी , रामचंद्र शुक्ल, डा सत्य , डा योगेश व देवेश द्विवेदी |
संस्था के अध्यक्ष डा योगेश गुप्त ने अथितियों का स्वागत करते हुए संस्था के कार्यों व उद्देश्यों का विवरण दिया | संचालन संस्था के महामंत्री श्री देवेश द्विवेदी 'देवेश' द्वारा किया गया | वाणी वन्दना सुप्रसिद्ध संगीतकार श्रीमती कमला श्रीवास्तव द्वारा की गयी |
समाम्नित साहित्यकार--साथ में डॉ योगेश गुप्त , प्रोफ. उषा सिन्हा व प्रोफ मौ.मुजम्मिल |
डा श्याम गुप्त ने संस्था की प्रशंसा करते हुए कहा कि यह संस्था वरिष्ठ व युवा रचनाकारों के मध्य एक सेतु का कार्य कर रही है जो हिन्दी, हिन्दी साहित्य व राष्ट्र की सेवा का एक महत्वपूर्ण आयाम है| अपने वक्तव्य "'अगीत के अलख निरंजन डा रंगनाथ मिश्र 'सत्य' " पर बोलते हुए उन्होंने डा सत्य के विभिन्न नामों व उपाधि-नामों पर चर्चा करते हुए बताया कि डॉ सत्य के आज तक जितने नामकरण हुए हैं उतने शायद ही किसी साहित्यकार के हुए हों |
इस अवसर पर बोलते हुए प्रोफ. मोहम्मद मुजम्मिल ने बताया कि जिस प्रकार देश में आर्थिक उदारीकरण हुआ उसी प्रकार साहित्य में भी काव्य में उदारीकरण डा रंगनाथ मिश्र द्वारा स्थापित विधा अगीत ने किया है |
सम्मानित कवियों व डा रंग नाथ मिश्र द्वारा काव्य-पाठ भी किया गया | धन्यवाद ज्ञापन संस्था के उपाध्यक्ष राजेश श्रीवास्तव ने किया |
डा रंग नाथ मिश्र 'सत्य' - काव्य-पाठ |
Monday 30 July 2012
संघात्मक समीक्षा पद्दति द्वारा पुस्तक समीक्षा ....पार्थ सेन...
(प्रचलित समीक्षा -पद्दति में किसी पुस्तक या कहानी आदि की समीक्षा करने में केवल उस पुस्तक के विषय वस्तु की ही समीक्षा की जाती है परन्तु संघात्मक समीक्षा पद्दति द्वारा पुस्तक समीक्षा ....में पुस्तक की सम्पूर्ण समीक्षा की जाती है अर्थात विषय-वस्तु के साथ-साथ उसके लेखक/ कवि के बारे में, लेखक द्वारा आत्म-कथ्य , समर्पण व आभार , पुस्तक की छपाई, आवरण-पृष्ठ, उसपर चित्र , मूल्य, अन्य विद्वानों द्वारा लिखी गयीं भूमिकाओं के तथ्यांकन एवं प्रकाशक आदि द्वारा दिए गए विवरण व कथ्य इत्यादि की भी सम्पूर्ण समीक्षा की जाती है | यह विधा हिन्दी कविता में अगीत -विधा के संस्थापक डा रंगनाथ मिश्र 'सत्य' द्वारा प्१९९५ से प्रचलित की गयी ...देखिये एक समीक्षा...)
समीक्ष्य कृति --- इन्द्रधनुष ( उपन्यास)....लेखक -डा श्याम गुप्त ....मूल्य ....७५/- रु.....पृष्ठ--१०४.
संपर्क-- सुश्यानिदी, के-३४८, आशियाना, लखनऊ -२२६०१२ .
प्रकाशन वर्ष-- २०११. ई.... प्रकाशक.... सुषमा प्रकाशन , आशियाना, लखनऊ |
समीक्षक-- पार्थो सेन ..
डा श्याम गुप्त जी चिकित्सा जगत से सेवा-निवृत्त होने के पश्चात हिन्दी साहित्य जगत में पूर्णतया समर्पित हैं | मूलतः आप एक प्रसिद्ध कवि हैं एवं अगीत विधा के रचयिता हैं | उपन्यास क्रम में 'इन्द्रधनुष' आपका प्रथम प्रयास है | इसके पूर्व आप गीत व अगीत दोनों ही विधाओं में शूर्पणखा, सृष्टि, प्रेमकाव्य आदि छ: काव्यों का सृजन कर चुके हैं | जो साहित्य जगत में सराहे गए | इस उपन्यास में इन्द्रधनुष के सात रंगों की तरह ही सात मुख्य बिंदु --स्त्री, पुरुष, अलौकिक-प्रेम, कविता, वेद-वेदान्त, चिकित्सा जगत व सामाजिक परिदृश्य हैं | अतः शीर्षक सार्थक है |
लेखक स्वयं एक शल्य-चिकित्सक भी है |अतः उपन्यास का प्रारम्भ मैडीकल कालेज के वातावरण से होता है | वे स्वयं एक कवि भी हैं तो यत्र-तत्र संवादों में कविता का का समावेश है | संवादों में चिकित्सा संबंधी चर्चाओं के अतिरिक्त कई मूल्यवान परिचर्चाएं हैं | जैसे एक स्थान पर पात्र जयंत कृष्णा कहता है...
"...सदियों से भारत में दो प्रतिकूल विचार धाराएं चली आ रही हैं |
एक ब्राह्मण वादी व दूसरी ब्राह्मण विरोधी , जो अम्बेडकरवादी विचार धारा है |"
इसी चर्चा में भाग लेती हुई एक अन्य पात्र सुमि कहती है....
" वास्तव में वे धाराएं देव-संस्कृति व असुर संस्कृतियाँ हैं | क्योंकि न तो राम ब्राह्मण थे न कृष्ण ही जबकि रावण ब्राहमण था परन्तु ब्राह्मण-विरोधी |"
पूरा उपन्यास मैडीकल कालेज के छात्र कृष्ण गोपाल ...केजी तथा सुमित्रा ...सुमि ..के मध्य संवादों पर आधारित है जिसका कुछ अंश अतीत है | दोनों सहपाठी हैं | एक आकर्षण दोनों के मध्य उत्पन्न होता है यद्यपि नायिका पहले से ही वाग्दत्ता है | दोनों का पृथक-पृथक विवाह होता है और सफल भी है | यद्यपि वे अलग अलग होजाते हैं व रहते हैं परन्तु एक आत्मिक जुड़ाव व बौद्धिक-आत्मिक प्रेम सम्बन्ध जो सुमि व केजी के मध्य था, सदा बना रहता है जो एक चर्चा में कवितामय संवाद से परिलक्षित होता है... केजी का कहना है...
"प्रियतम प्रिय का मिलना जीवन,
साँसों का चलना है जीवन|
मिलना और बिछुडना जीवन,
जीवन हार भी जीत भी जीवन |"
सुमि का कथन देखिये.....
प्यार है शाश्वत कब मारता है,
रोम रोम में रहता है |
अजर अमर है वह अविनाशी,
मन में रच बस रहता है |"
उपन्यास का अंत दुखांत है | सुमि की मौत एक हवाई दुर्घटना में हो जाती है , पाठक यहीं मर्माहत हो जाता है | उपन्यास में शिक्षित वर्ग का परिवेश है, पात्र, संवाद तथा वातावरण उसी के अनुरूप है | यौन सम्बन्ध रहित अलौकिक प्रेम की महत्ता इस उपन्यास का सन्देश है |
भाषा मूलतः परिमार्जित हिन्दी है | आवश्यकतानुसार अन्य भाषाओं के शब्दों का समावेश है | शैली प्रभावशाली व संवाद सारगर्भित हैं |
कृति मनुष्य के आचार-विचार व समाज को शिक्षा देने वाली नारियों को समर्पित है |प्रोफ. बी . बै. ललिताम्बा ( बेंगलूरू ) , भू.पू अध्यक्ष, हिन्दी विभाग, इंदौर वि.वि (म.प्र.) व कवि श्री मधुकर अष्ठाना ने अपना आशीर्वाद इस पुस्तक को प्रदान किया है | लेखक ने अशरीरी प्रेम को महत्त्व देते हुए उपन्यास का सृजन किया है जैसा कि उपन्यास में उल्लेख है|
आवरण पर एक सुन्दर लेखक द्वारा ही स्वनिर्मित हस्त-चित्र है | मूल्य सर्वथा उचित है | एक डाक्टर मनुष्य जीवन को बहुत करीब से देखता है अतः उसका अलग ही अनुभव है |इस कृति को एक प्रेरणादायी प्रसंग मानना अधिक उचित प्रतीत होता है | डा श्याम गुप्त जी की सारी कृतियाँ शालीनता लिए होती हैं | आज के शारीरिक संबंध पर आधारित प्रेम के युग में इस उपन्यास का स्वागत अवश्य होना चाहिए | हार्दिक बधाई , मैं अपने एक अगीत से यह समीक्षा पूरी करता हूँ--
"निहारूंगा मैं तुझे अपलक
जैसे एक अबोध तकता है
इन्द्रधनुष एक टक |"
----- .समीक्षक .... पार्थोसेन ...
समीक्ष्य कृति --- इन्द्रधनुष ( उपन्यास)....लेखक -डा श्याम गुप्त ....मूल्य ....७५/- रु.....पृष्ठ--१०४.
संपर्क-- सुश्यानिदी, के-३४८, आशियाना, लखनऊ -२२६०१२ .
प्रकाशन वर्ष-- २०११. ई.... प्रकाशक.... सुषमा प्रकाशन , आशियाना, लखनऊ |
समीक्षक-- पार्थो सेन ..
डा श्याम गुप्त जी चिकित्सा जगत से सेवा-निवृत्त होने के पश्चात हिन्दी साहित्य जगत में पूर्णतया समर्पित हैं | मूलतः आप एक प्रसिद्ध कवि हैं एवं अगीत विधा के रचयिता हैं | उपन्यास क्रम में 'इन्द्रधनुष' आपका प्रथम प्रयास है | इसके पूर्व आप गीत व अगीत दोनों ही विधाओं में शूर्पणखा, सृष्टि, प्रेमकाव्य आदि छ: काव्यों का सृजन कर चुके हैं | जो साहित्य जगत में सराहे गए | इस उपन्यास में इन्द्रधनुष के सात रंगों की तरह ही सात मुख्य बिंदु --स्त्री, पुरुष, अलौकिक-प्रेम, कविता, वेद-वेदान्त, चिकित्सा जगत व सामाजिक परिदृश्य हैं | अतः शीर्षक सार्थक है |
लेखक स्वयं एक शल्य-चिकित्सक भी है |अतः उपन्यास का प्रारम्भ मैडीकल कालेज के वातावरण से होता है | वे स्वयं एक कवि भी हैं तो यत्र-तत्र संवादों में कविता का का समावेश है | संवादों में चिकित्सा संबंधी चर्चाओं के अतिरिक्त कई मूल्यवान परिचर्चाएं हैं | जैसे एक स्थान पर पात्र जयंत कृष्णा कहता है...
"...सदियों से भारत में दो प्रतिकूल विचार धाराएं चली आ रही हैं |
एक ब्राह्मण वादी व दूसरी ब्राह्मण विरोधी , जो अम्बेडकरवादी विचार धारा है |"
इसी चर्चा में भाग लेती हुई एक अन्य पात्र सुमि कहती है....
" वास्तव में वे धाराएं देव-संस्कृति व असुर संस्कृतियाँ हैं | क्योंकि न तो राम ब्राह्मण थे न कृष्ण ही जबकि रावण ब्राहमण था परन्तु ब्राह्मण-विरोधी |"
पूरा उपन्यास मैडीकल कालेज के छात्र कृष्ण गोपाल ...केजी तथा सुमित्रा ...सुमि ..के मध्य संवादों पर आधारित है जिसका कुछ अंश अतीत है | दोनों सहपाठी हैं | एक आकर्षण दोनों के मध्य उत्पन्न होता है यद्यपि नायिका पहले से ही वाग्दत्ता है | दोनों का पृथक-पृथक विवाह होता है और सफल भी है | यद्यपि वे अलग अलग होजाते हैं व रहते हैं परन्तु एक आत्मिक जुड़ाव व बौद्धिक-आत्मिक प्रेम सम्बन्ध जो सुमि व केजी के मध्य था, सदा बना रहता है जो एक चर्चा में कवितामय संवाद से परिलक्षित होता है... केजी का कहना है...
"प्रियतम प्रिय का मिलना जीवन,
साँसों का चलना है जीवन|
मिलना और बिछुडना जीवन,
जीवन हार भी जीत भी जीवन |"
सुमि का कथन देखिये.....
प्यार है शाश्वत कब मारता है,
रोम रोम में रहता है |
अजर अमर है वह अविनाशी,
मन में रच बस रहता है |"
उपन्यास का अंत दुखांत है | सुमि की मौत एक हवाई दुर्घटना में हो जाती है , पाठक यहीं मर्माहत हो जाता है | उपन्यास में शिक्षित वर्ग का परिवेश है, पात्र, संवाद तथा वातावरण उसी के अनुरूप है | यौन सम्बन्ध रहित अलौकिक प्रेम की महत्ता इस उपन्यास का सन्देश है |
भाषा मूलतः परिमार्जित हिन्दी है | आवश्यकतानुसार अन्य भाषाओं के शब्दों का समावेश है | शैली प्रभावशाली व संवाद सारगर्भित हैं |
कृति मनुष्य के आचार-विचार व समाज को शिक्षा देने वाली नारियों को समर्पित है |प्रोफ. बी . बै. ललिताम्बा ( बेंगलूरू ) , भू.पू अध्यक्ष, हिन्दी विभाग, इंदौर वि.वि (म.प्र.) व कवि श्री मधुकर अष्ठाना ने अपना आशीर्वाद इस पुस्तक को प्रदान किया है | लेखक ने अशरीरी प्रेम को महत्त्व देते हुए उपन्यास का सृजन किया है जैसा कि उपन्यास में उल्लेख है|
आवरण पर एक सुन्दर लेखक द्वारा ही स्वनिर्मित हस्त-चित्र है | मूल्य सर्वथा उचित है | एक डाक्टर मनुष्य जीवन को बहुत करीब से देखता है अतः उसका अलग ही अनुभव है |इस कृति को एक प्रेरणादायी प्रसंग मानना अधिक उचित प्रतीत होता है | डा श्याम गुप्त जी की सारी कृतियाँ शालीनता लिए होती हैं | आज के शारीरिक संबंध पर आधारित प्रेम के युग में इस उपन्यास का स्वागत अवश्य होना चाहिए | हार्दिक बधाई , मैं अपने एक अगीत से यह समीक्षा पूरी करता हूँ--
"निहारूंगा मैं तुझे अपलक
जैसे एक अबोध तकता है
इन्द्रधनुष एक टक |"
----- .समीक्षक .... पार्थोसेन ...
Saturday 9 June 2012
संतुलित कहानी.. शुक्र का पारगमन .....
[
संतुलित-कहानी, लघु-कथा की एक विशेष धारा है जो अगीत के प्रवर्तक डा रंग
नाथ मिश्र द्वारा १९७५ में स्थापित की गयी| इन कहानियों में मूलतः
सामाजिक सरोकारों को इस प्रकार संतुलित रूप में प्रस्तुत किया जाता है कि
उनके किसी कथ्य या तथ्यांकन का समाज व व्यक्ति के मन-मष्तिष्क पर कोई
विपरीत अनिष्टकारी प्रभाव न पड़े .. अपितु कथ्यांकन में भावों व विचारों का
एक संतुलन रहे| (जैसे बहुत सी कहानियों या सिने कथाओं में सेक्स वर्णन,
वीभत्स रस या आतंकवाद, डकैती, लूटपाट आदि के घिनोने दृश्यांकन आदि से जन
मानस में उसे अपनाने की प्रवृत्ति व्याप्त हो सकती है |) संतुलित कहानियों
के कई संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं ..यथा..."संतुलित कहानी के नौ रत्न,"
"संतुलित कहानी के पंचादश रत्न."..आदि ...सम्पादन डा रंगनाथ मिश्र सत्य | गिरिजाशंकर
पाण्डेय,राजेन्द्रनाथ सिंह, सुरेन्द्र नाथ, मंजू सक्सेना, डा श्याम
गुप्त आदि की संतुलित कथाएं उल्लेखनीय हैं |]
शुक्र का पारगमन --चित्र राजस्थान पत्रिका साभार |
शुक्र का पारगमन
---संतुलित कहानी... डा श्याम गुप्त
राम प्रसाद जी
चाय की चुस्कियों के साथ टीवी के सम्मुख बैठे समाचार-पत्र भी पढते जारहे थे |
अधिकांस चेनलों पर शुक्र के सूर्य से पारगमन को एक महत्वपूर्ण
घटना बताया जारहा था और यह भी कि अब यह सुन्दर नज़ारा पुनः १०५ वर्ष बाद ही देखने
को मिलेगा | इसे देखने सिर्फ खगोल वैज्ञानिक, ज्योतिषी ही नहीं एकत्र होरहे थे अपितु भारत भर में स्कूल, कालिज, विभिन्न संस्थाएं व संस्थानों के बच्चों,
कर्मचारियों एवं सामान्य पब्लिक के लिए भी स्थान-स्थान पर दूरबीन,
सोलर-फ़िल्टर, वाइड स्क्रीन आदि लगाई गयीं थी
| देखने के लिए लोगों का हुजूम उमडा पड़ रहा था |
वे समाचार-पत्र पढने लगते हैं | प्रथम पृष्ठ पर
बड़े-बड़े अक्षरों में आईपीएल व सचिन तेंदुलकर के छक्कों की चर्चा थी जिससे देश का
नाम दुनिया में ऊंचा होता नज़र आ रहा था और सरकार उन्हें राज्यसभा के लिए मनोनीत
कर दिल्ली में एक बड़ा बंगला एलाट करने का प्लान बना रही थी उनकी सुरक्षा हेतु भी
चिंतामग्न थी | दूसरी ओर पेट्रोल-पम्प पर लगी कतारें व सड़क
पर ट्रेफिक-जाम व आकाश छूती हुई कीमतों पर अनशन करते लोगों के सचित्र समाचार भी
थे| वे पृष्ठ पलटते हैं| मुख्य-मंत्री
द्वारा वर्ष में तीसरी बार अपनी कुर्सी व सरकार
बचाने हेतु विधायकों से मंत्रणा के समाचार के साथ ही नोएडा में डकैती व चार वर्ष
की बच्ची से रेप का ह्रदय-विदारक समाचार पढकर चिंतामग्न हो जाते हैं |
वे टीवी चेनल
बदलते हैं | एक नए सेटिलाईट की आकाश में स्थापना की जारही
थी| स्थापना सफल होते ही वैज्ञानिक, नेता, शासक सभी खुशी से उछल पड़े | अब आप टीवी और अधिक स्पष्ट देख सकते हैं, दुनिया
भर के चेनल | अडवांस मोबाइल पर कम्प्युटर के सभी कार्य
किये जा सकते हैं | आपका घर सारी दुनिया से जुड़ जायगा |
वे फिर समाचार-पत्र देखने लगते हैं | राजधानी के ही समीपवर्ती सुदूर-क्षेत्रों में सूखे के कारण किसानों
द्वारा आत्महत्या, एक जून की रोटी के जुगाड हेतु कम्मो
द्वारा अपनी बच्ची को बेचा गया, के समाचार मन को उद्विग्न
कर देते हैं| टीवी चेनल पर ‘डांस-इंडिया-डांस’
प्रोग्राम् में बच्चे ‘इन्हीं लोगों ने ले
लीना दुपट्टा मेरा’ पर डांस कर रहे हैं | ‘हंसी के फुहारे’ प्रोग्राम में निर्णायक बात-बेबात
पर हँसती है| एक चेनल पर कुछ विचारक व मनीषी रिश्वतखोरी,
भ्रष्टाचार व घोटालों पर अपने अपने विचार प्रस्तुत कर रहे होते
हैं जिन्हें तेज-तर्रार संचालिका कभी पूरे नहीं होने देती है और किसी भी निर्णय
पर पहुंचे बिना संचालिका के वक्तव्य के साथ शो समाप्त हो जाता है |
वे समाचार-पत्र में किसी स्कूल में केजी में दाखिले हेतु २५ से ५० लाख
तक डोनेशन माँगने का समाचार पढते हैं | अगले पृष्ठ पर ‘बातूनी ताऊ’ के हास्य-व्यंग्य कालम में देश की
महान समस्याओं को सुलझाने के हास्यास्पद उपाय सुझाए
गए हैं| अरबपति ‘किलगेट’....
‘कमोड’ को और अधिक उन्नत व सुविधाजनक बनाने
हेतु निवेश करना चाहते हैं | अगले पृष्ठ पर किसी वृद्धजन
का इंटरव्यू छापा है जिन्हें दो वर्ष हुए सेवा-निवृत्त हुए अभी तक पेंशन नहीं
बंधी है | यह पढकर उन्हें ध्यान
आता है कि उन्हें तो दफ्तर के बाबू ने चार बार
लौटाने के बाद आज बुलाया है पेंशन-पत्र के लिए ११ बजे और साड़े-दश बज चुके हैं ||
तभी श्यामलाल जी आजाते हैं, कहते हैं अरे,
चलिए-चलिए शुक्र, सूर्य को पार कर रहा है देखते हैं, सामने मैदान में दूरबीन
लगाई हुई है, सोलर फ़िल्टर भी है | फिर
यह सुन्दर दृश्य अगले जन्म में ही देखने को मिलेगा |
रामप्रसाद जी अचानक कह उठते हैं, वह तो ठीक है पर
क्या यह पारगमन देखकर, उन्नत-टीवी, मोबाइल,
सचिन के छक्के या मुख्यमंत्री की सरकार बच जाने से, बच्चों के डांस करने से...देश में रेप
बंद होजाएंगे, किसान आत्महत्या
करना बंद कर देंगे, भ्रष्टाचार से मुक्ति मिलेगी और मेरी
पेंशन शीघ्र ही मिलने लगेगी |
--------- डा श्याम गुप्त , ९४१५१५६४६४
|
श्याम स्मृति ....आधुनिक मनुस्मृति ...डा श्याम गुप्त के चार अगीत ...
पुत्र
वे चलते थे ,
पिता के, अग्रजों के पदचिन्हों पर-
ससम्मान, सादर सानंद,
आग्यानत होकर -
देश राष्ट्र समाज उन्नतिहित ,
सुपुत्र कहलाते थे |
आज वे पिताको, अग्रजों को,
मनमर्जी से चलाते हैं ,एन्जॉय करने हेतु,
अवज्ञारत होकर ,
स्वयं को एडवांस्ड बताते हैं ,
सनी कहलाते हैं |
सुख-चैन
वह दिनरात ,
जी तोडकर,सुखचैन छोडकर -
सुख-साधन के -
उपकरण बनाने में जुटा है , ताकि-
जी सके..सुख चैन से |
राजनीतिज्ञ
वह जो ठीक लगता था ,
वही करता था;
सत्य-नीति पर चलता था |
आज वह सभ्य होगया है -
सत्य से शर्माता है,
सच को भी चासनी में लपेट कर बताता है ,
राजनीतिज्ञ कहलाता है |
ईश्वर
वह ईश्वर व उसके गुणों को -
ह्रदय में धारण करता था ;
कहीं भी पूजा, आवाहन कर-
साक्षात् दर्शन पाता था |
जब उसने मंदिर-मूर्तियों को मन लगाया,
ईश्वर बताया ,
तब से आज तक-
ईश्वर को नहीं पाया |
वे चलते थे ,
पिता के, अग्रजों के पदचिन्हों पर-
ससम्मान, सादर सानंद,
आग्यानत होकर -
देश राष्ट्र समाज उन्नतिहित ,
सुपुत्र कहलाते थे |
आज वे पिताको, अग्रजों को,
मनमर्जी से चलाते हैं ,एन्जॉय करने हेतु,
अवज्ञारत होकर ,
स्वयं को एडवांस्ड बताते हैं ,
सनी कहलाते हैं |
सुख-चैन
वह दिनरात ,
जी तोडकर,सुखचैन छोडकर -
सुख-साधन के -
उपकरण बनाने में जुटा है , ताकि-
जी सके..सुख चैन से |
राजनीतिज्ञ
वह जो ठीक लगता था ,
वही करता था;
सत्य-नीति पर चलता था |
आज वह सभ्य होगया है -
सत्य से शर्माता है,
सच को भी चासनी में लपेट कर बताता है ,
राजनीतिज्ञ कहलाता है |
ईश्वर
वह ईश्वर व उसके गुणों को -
ह्रदय में धारण करता था ;
कहीं भी पूजा, आवाहन कर-
साक्षात् दर्शन पाता था |
जब उसने मंदिर-मूर्तियों को मन लगाया,
ईश्वर बताया ,
तब से आज तक-
ईश्वर को नहीं पाया |
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