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Friday, 2 November 2012

सृष्टि महाकाव्य(क्रमश:) ..चतुर्थ सर्ग...संकल्प....




सृष्टि महाकाव्य-(ईषत-इच्छा या बिगबेंग--एक अनुत्तरित उत्तर) --डा श्याम गुप्त.....



सृष्टि - अगीत महाकाव्य--

(यह महाकाव्य अगीत विधामें आधुनिक विज्ञान ,दर्शन व वैदिक-विज्ञान के समन्वयात्मक विषय पर सर्वप्रथम रचित महाकाव्य है , इसमें -सृष्टि की उत्पत्ति, ब्रह्माण्ड व जीवन और मानव की उत्पत्ति के गूढ़तम विषयको सरल भाषा में व्याख्यायित कियागया है | इस .महाकाव्य को हिन्दी साहित्य की अतुकांत कविता की 'अगीत-विधा' के छंद - 'लयबद्ध षटपदी छंद' -में
निवद्ध किया गया है जो एकादश सर्गों में वर्णित है).... ...... रचयिता --डा श्याम गुप्त ...

चतुर्थ सर्ग-( संकल्प खंड )--
प्रस्तुत खंड में- वैदिक विज्ञान के अनुसार ईश-तत्व, जिसे विभिन्न नामों से पुकारा जाता है, किस प्रकार व क्यों सृष्टि का संकल्प करता है एवं लय व सृष्टि के क्रम के अनुसार न तो कुछ नया बनता है न नष्ट होता है, मूल पदार्थ अविनाशी है बस रूप बदलता है, इस दर्शन( अब आधुनिक विज्ञान के अनुसार भी) का वर्णन एवं आदि-सृष्टि कणों के उत्पादन की प्रक्रिया का, इससे समस्त सृष्टि हुई, प्रारम्भ दिखाया गया है |...
-
बाद प्रलय के, सृष्टि से पहले,
वह ईशतत्ववह वेन-विराट;
परमात्वभाव , ऋत ,ज्येष्ठ ब्रह्म ५ ,
चेतन , जिसकी प्रतिमा कोई
वह एक अकेला ही स्थित था;
वह कौन,कहाँ था, किसे पता ?
-
वह होता है सदा उपस्थित ,
व्यक्ता-व्यक्त, बस रूप बदलकर
प्रलय,सृष्टि या साम्यकाल में,
कुछ नया बनता,नष्ट होता
सदाधार ७, वह मूल इसलिए,
सद भी है, वह नासद भी है
-
वह आच्छादित रहता सब में,
सब अन्तर्निहित उसी में है
सद-नासद, प्रकृति-पुरुष सभी,
इस कारण-ब्रह्म में निहित रहें
वह सदा अकर्मा, अविनाशी ,
परे सभी से, केवल दृष्टा
-
वह था, है, होता है या नहीं,
कब कौन कहाँ यह समझ सका
वह हिरण्यगर्भ या अपः मूल,
वे देव प्रकृति ऋषि ज्ञान सभी ;
 
 हैं व्याप्त उसी में, फिर कैसे,
वे भला जान पायें उसको
-
उस पार-ब्रह्म को ऋषियों ने,
आत्मानुभूति से पहचाना
पाया और अन्तर्निहित किया,
ज़ाना समझा गाया लिखा
अनुभव से यज्ञ की वेदी पर,
वे गीत उसी के गाते हैं
-
कर्म रूप में, भोग हेतु और,
मुक्ति हेतु उस जीवात्मा के
आत्मबोध से वह परात्पर,
या अक्रिय असत चेतन सत्ता;
अव्यक्त स्वयंभू या परिभू १० ,
ने किया भाव-संकल्प सृष्टि हित
-
हिरण्यगर्भ, सतब्रह्म, सक्रिय-चेतन ,
या व्यक्त रूप, अव्यक्त असत का
हुआ उपस्थित, स्वयं भाव से,
सक्रियसत्व११,उस अक्रियतत्व१२ का
चिदाकाश में , १३ रूप में,
वह निःसंग ही स्वयं व्यक्त था
-
जीव प्रकृति सद-नासद, चेतन,
मूल अपः, अव्यक्त भाव में
सत तम रज के साम्यरूप में,
स्थित थे उस हिरण्यगर्भ में
कार्य रूप, उस कारण का, जो -
कारण रूप,सृष्टि और लय का
-
मनः रेत संकल्प कर्म, जो-
प्रथम काम-संकल्प जगत का
सृष्टि-प्रवृत्ति की ईषत-इच्छा,
"एकोहं बहुस्याम"१४ रूप में
महाकाश में हुई प्रतिध्वनित ,
हिरण्यगर्भ के सगुण भाव से
१०-
मूल प्रकृति अव्यक्त भाव में,
अन्तर्निहित जो हिरण्यगर्भ में ।
 हुई अवतरित व्यक्त भाव बन,
रूप-सृष्टि१५ की मूल ऊर्जा, जो-
सत तम रज साम्यावस्था में,
थी स्थित उस शांत प्रकृति१६ में
११-
उस अनंत की ईषत इच्छा,
उभरी बन कर रूप में
महाकाश का नाद-अनाहत१७
 स्पंदन तब हुआ कणों में,
भंग हुई तब साम्यावस्था,
साम्य प्रकृति के,साम्य कणों की
१२-
स्पंदन से, साम्य कणों के,
अक्रिय अपः, होगया सक्रिय सत
हलचल से और द्वंद्व-भाव से ,
सक्रिय कणों के, बनी भूमिका-
सृष्टि-कणों के उत्पादन की ;
महाकाश की उस अशांति१८ में॥ .... .................क्रमश:...


{ कुंजिका---१ से ६ तक=निराकार परब्रह्म , अक्रिय -असद-असत , परमतत्व के विभिन्न नाम ; =सबका मूल आधार ; =कारणों का कारण पूर्ण ब्रह्म, पर-ब्रह्म ( वही १ से ७ तक); ९= स्वयं उत्पन्न ; १०= सब में छाया हुआ , सब को आच्छादित करता हुआ ; ११= सक्रिय हुआ परम तत्व( हिरण्य गर्भ, व्यक्त ईश्वर ) ; १२=अक्रिय मूल परमात्व तत्व जो हिरण्यगर्भ रूप में सक्रिय हुआ; १३= अंतरक्ष में उद्भूत प्रथम मूल अनाहत नाद ( स्वयम उत्पन्न आदि ध्वनि ..ओउम); १४=अब में एक से बहुत होजाऊँ , ईश्वर का आदि सृष्टि संकल्प); १५= वास्तविक पदार्थ रचना; १६= व्यक्त मूल प्रकृति की शांत, साम्य, अवस्था ,बिना किसी गति ,हलचल के ; १७=बिना टकराव के उत्पन्न ईश्वरीय आदि ध्वनि..ॐ ध्वनि जो समस्त व्यक्त अंतरिक्ष में ध्वनित होती है और साम्य प्रकृति की शांत अवस्था-व्यवस्था को भंग करके सृष्टि-सृजन का प्रक्रिया के प्रारम्भ का कारण बनती है; १८= व्यक्त मूल प्रकृति की शांत व साम्य अवस्था के भंग होने से उत्पन्न हल-चल--क्रिया-प्रक्रिया , जिससे सृष्टि-क्रम प्रारम्भ होता है | }

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                                           क्रमश:  पंचम् सर्ग ...अगली पोस्ट में