अगीत की शिक्षाशाला....
( लय व गति काव्य-विधा के अपरिहार्य तत्व व विशेषताएं हैं जो इसे गद्य-विधा से पृथक करती
है | यति --काव्य को संगीतमयता के आरोह-अवरोह के साथ कथ्य व भाव को अगले स्तर पर परिवर्तन की
स्पष्टता से विषय सम्प्रेषण को आगे बढाती है | तुकांत बद्धता ..काव्य के शिल्प सौंदर्य को बढाती है परन्तु
संक्षिप्तता, शीघ्र भाव-सम्प्रेषणता व अर्थ-प्रतीति का ह्रास करती है | अतः वैदिक छंदों व ऋचाओं की अनुरूपता
व तादाम्य लेते हुए अगीत मूलतः अतुकांत छंद है | हाँ लय व गति इसके अनिवार्य तत्व हैं तथा तुकांत, यति,
मात्रा व गेयता का बंधन नहीं है | अगीत वस्तुतः अतुकांत गीत है |
कार्यशाला १८..... प्रेम अगीत .....
१.
गीत तुम्हारे मैंने गाये
अश्रु नयन में भर भर आये |
याद तुम्हारी घिर घिर आयी,
गीत नहीं बन पाए मेरे |
अब तो तेरी ही सरगम पर,
मेरे गीत ढला करते हैं|
मेरे ही रस छंद भाव सब,
मुझसे ही होगये पराये ||
२.
श्रेष्ठ कला का जो मंदिर था
तेरे गीत सजा मेरा मन |
प्रियतम तेरी विरह पीर में,
पतझड़ सा वीरान होगया |
जैसे धुन्धलाये शब्दों की ,
धुंधले अर्ध मिटे चित्रों की ,
कलावीथिका एक पुरानी ||
३.
तुम जो सदा कहा करती थीं ,
मीत सदा मेरे बन रहना |
तुमने ही मुख फेर लिया क्यों,
मैंने तो कुछ नहीं कहा था |
शायद तुमको नहीं पता था ,
मीत भला कहते हैं किसको |
मीत शब्द को नहीं पढ़ा था,
तुमने मन के शब्द कोष में ||
४.
बालू से सागर के तट पर,
खूब घरोंदे गए उकेरे |
वक्त की ऊंची लहर उठी जब,
सब कुछ आकर बहा लेगयी
छोड़ गयी कुछ घोंघे-सीपी ,
सजा लिए हमने दामन में |||