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Tuesday, 6 November 2012

सृष्टि महाकाव्य ---सप्तम सर्ग --ब्रह्मा प्रादुर्भाव एवं स्मरण खंड ......




सृष्टि महाकाव्य ---सप्तम सर्ग --ब्रह्मा प्रादुर्भाव एवं स्मरण खंड ......


     सृष्टि महाकाव्य-(ईषत- इच्छा या बिगबेंग--एक अनुत्तरित उत्तर )-- -------वस्तुत सृष्टि हर पल, हर कण कण में होती रहती है,यह एक सतत प्रक्रिया है , जो ब्रह्म संकल्प-(ज्ञान--ब्रह्मा को ब्रह्म द्वारा ज्ञान) ,ब्रह्म इच्छा-(एकोहं बहुस्याम ... इच्छा) सृष्टि (क्रिया- ब्रह्मा रचयिता ) की क्रमिक प्रक्रिया है --किसी भी पल प्रत्येक कण कण में चलती रहती है, जिससे स्रिष्टि व प्रत्येक पदार्थ की उत्पत्ति होती हैप्रत्येक पदार्थ नाश(लय-प्रलय- लय  ) की ओर प्रतिपल उन्मुख है
(यह महाकाव्य अगीत विधामें आधुनिक विज्ञान ,दर्शन व वैदिक-विज्ञान के समन्वयात्मक विषय पर सर्वप्रथम रचितमहाकाव्य है , इसमें -सृष्टि की उत्पत्ति, ब्रह्माण्ड व जीवन और मानव की उत्पत्ति के गूढ़तम विषयको सरल भाषा मेंव्याख्यायित कियागया है | इस .महाकाव्य को हिन्दी साहित्य की अतुकांत कविता की 'अगीत-विधा' के छंद - 'लयबद्धषटपदी अगीत छंद' -में
निवद्ध किया गया है जो एकादश सर्गों में वर्णित है).... ...... रचयिता --डा श्याम गुप्त ...

                        पिछले सर्ग में मूल तत्व पंचौदन अजः से मूल अंड , ब्रह्मांड (असंख्य ब्रह्मांडों) के बनने की प्रक्रिया का वर्णन किया गया था| प्रस्तुत सप्तम सर्ग में -- उस अंड से आगे सृष्टि कैसे होगी यह ज्ञान कैसे प्राप्त हुआ एवं उस ज्ञान प्राप्ति तक सृष्टि -रचने की प्रक्रिया क्यों व कैसे, कब तक बंद रही, फिर कैसे प्रारम्भ हुई इस पर वैदिक व आधुनिक मत की व्याख्या प्रस्तुत की जारही है-----कुल ११ छंद ...
१-
रहा साल भर१ अंड में, ब्रह्मा,
ऊपर नीचे आदि मध्य में ;
बिखरे तत्व मिला, रचने के-
सृष्टि,  यत्न थे सारे निष्फल |
आदि-शक्ति की सु प्रेरणा से,
तपः किया, प्रार्थना विष्णु की ||
२-
महाउदधि, जलरूप अयन२ में,
सृष्टि की इच्छा में रत जो;
विष्णु नाम से रहा शयन रत,
शेष ब्रह्म३ पर वह नारायण |
नाभि-केंद्र  से  नारायण के,
स्वर्ण-नाल पर खिला जलज-दल||
३-
ब्रह्मा, धर कर रूप चतुर्मुख४ ,
काल-स्वरुप उस महा विष्णु का;
स्वर्ण कमल पर हुआ अवतरित |
और तभी से ब्रह्मा का दिन,
हुआ प्रभावी और समय की,
नियमन-गणना  हुई तभी से ||
४-
आदि रचयिता, काल नियंता,
सृजन हेतु उस स्वर्ण-नाल पर;
रहा घूमता, ऊपर-नीचे -
कई युगों तक५ , यही सोचता;
कैसे रचूँ सृष्टि यह सारी,
नहीं स्मरण था कुछ भी तो ||
५-
नव विज्ञान है यह समझाता,
हाइड्रोजन-हीलियम बनने की;
प्रक्रिया के बाद, सृष्टि-क्रम ,
स्थिर रहा था कई युगों६ तक |
और युगों के बाद ही पुनः ,
सृष्टि-सृजन प्रारम्भ हुआ था ||
६-
यह ब्रह्माण्ड बस फ़ैल रहा था,
और पुनः जब शीतल७ होकर ;
इलेक्ट्रोन एवं केन्द्रक के,
मध्य हुआ क्षीण प्रतिकर्षण |
आपस में जुड़कर फिर ये कण ,
रचने लगे विविध कण-प्रतिकण||
७-
वैदिक दर्शन यह कहता है,
ब्रह्मा को विस्मृत था सब कुछ |
तप, प्रभु-इच्छा,आद्य-शक्ति के,
कृपा-भाव से ही ब्रह्मा को;
हुआ स्मरण ,पुरा सृष्टि-क्रम;८
सृष्टि पुनः आरम्भ हुई तब ||
८-
तप, आराधना-महा-विष्णु की,
ब्रह्मा ने की, आर्त भाव से |
वह प्रसविनी-शक्ति९विष्णु की-
सरस्वती, वीणा-ध्वनि करती,
प्रकट हुई, स्वर-स्फुरणा१० से,
सृष्टि-ज्ञान ब्रहमा ने पाया ||
९-
प्रभु-इच्छा, माँ की स्फुरणा,
और शब्द के ज्ञान के बिना;
भला एक कण भर भी जग में,
ज्ञान किसे और कब होता है|
बिना ज्ञान ब्रह्मा भी कैसे,
कहाँ एक कण भी रच सकता ||
१०-
स्तुति, अर्चन और वन्दना ,
माँ वाणी की, की ब्रह्मा ने |
आदि वेद-माँ , गायत्री का-
धरकर रूप, सरस्वती माता-
समा गईं वे ज्ञान रूप में,
ब्रह्मा के मुख रूप ,ह्रदय में ||
११-
वाणी के उन ज्ञान स्वरों से,
विद्या रासायनिक संयोग की;
बिखरे कण नियमित करने की;
सृष्टि-सृजन की पुरा प्रक्रिया११
का स्मरण हुआ ब्रह्मा को,
रचने लगे सृष्टि हर्षित मन || --------क्रमश:--आगे -अष्ठम सर्ग......


{कुंजिका--- १=ब्रह्मा एक वर्ष ( ब्रह्मा का --युगों मानव वर्ष तक - अंड के परि-पक्व होने का समय ) अंड में घूमता रहा और अपना उत्पत्ति का अभिप्रायः नहीं पता था |; २= नार -जल, अयन-निवास---जल (अंतरिक्ष ) में स्थित नारायण विष्णु ; ३= सृष्टि के मूल अंड रचना के पश्चात शेष ऊर्जा , जिसे शेषनाग , शेष-ब्रह्म कहा गया है जो नारायण के साथ सदैव उपस्थित है ; ४= चार-मुखों( चतुर्दिक ज्ञान सहित ) वाला ब्रह्मा का सृष्टा रूप में आविर्भाव ; ५ व ६ = ब्रह्मा को युगों तक अपने अन्दर स्थित सृष्टि ज्ञान का स्मरण नहीं होरहा था अतः सृष्टि-रचना प्रक्रिया युगों तक रुकी रही--- आधुनिक विज्ञान के अनुसार एनीहिलेशन अवस्था के पश्चात ( बिगबेंग के प्रथम तीन मिनट पश्चात) अति-प्रवल ताप पर हीलियम-हाइड्रोजन बनकर सारे इलेक्ट्रोंस समाप्त होगये थे अतः परमाणु व परमाणु-पूर्व कणों के न्यूक्लियस से परमाणु नहीं बन पारहे थे अतः युगों तक सृष्टि प्रक्रिया रुकी रही थी |; =आधुनिक विज्ञान के अनुसार युगों बाद अति-शीतल ताप होने पर नवीन इलेक्ट्रोंस बनना प्रारम्भ हुआ वे केन्द्रक (प्रोटोन+न्यूत्रों ) के चारों और घूमने लगे व पदार्थ बनने की प्रक्रिया पुनः प्रारम्भ हुई |; ८ व ११ =प्रत्येक कल्प में महाप्रलय के बाद पुनः पुनः सृष्टि -सृजन की क्रमिक प्रक्रिया ; ९=आदि-ब्रह्म , विष्णु के आदि कार्यकारी शक्ति , योगमाया, मूल ऊर्जा का उत्प्रेरक रूप ; १०= आदि-नादस्वर-आदि-वाणी-वीणा स्वर द्वारा सृष्टि ज्ञान का पुनः स्मरण तत्पश्चात ब्रह्मा सृष्टि सृजन कर्म में रत हुए }






Sunday, 4 November 2012

सृष्टि महाकाव्य--षष्टम सर्ग, ब्रह्मान्ड खन्ड......डा श्याम गुप्त......





सृष्टि महाकाव्य-(ईषत- इच्छा या बिगबेंग--एक अनुत्तरित उत्तर )--

षष्टम सर्ग, ब्रह्मान्ड खन्ड....





     -------वस्तुत सृष्टि हर पल, हर कण कण में होती रहती है, एक सतत प्रक्रिया है , जो ब्रह्म संकल्प-(ज्ञान--ब्रह्मा को ब्रह्म द्वारा ज्ञान) ,ब्रह्म इच्छा-एकोहं बहुस्याम ...( इच्छा) सृष्टि (क्रिया- ब्रह्मा रचयिता ) की क्रमिक प्रक्रिया है --किसी भी पल प्रत्येक कण कण में चलती रहती है, जिससे स्रिष्टि प्रत्येक पदार्थ की उत्पत्ति होती है प्रत्येक पदार्थ नाश(लय-प्रलय- शिव ) की और प्रतिपल उन्मुख है
(यह
महाकाव्य अगीत विधामें आधुनिक विज्ञान ,दर्शन वैदिक-विज्ञान के समन्वयात्मक विषय पर सर्वप्रथमरचित महाकाव्य है , इसमें -सृष्टि की उत्पत्ति, ब्रह्माण्ड जीवन और मानव की उत्पत्ति के गूढ़तम विषयकोसरल भाषा में व्याख्यायित कियागया है | इस .महाकाव्य को हिन्दी साहित्य की अतुकांत कविता कीअगीत-विधा' के छंद - 'लयबद्ध षटपदी अगीत छंद' -में '
निवद्ध किया गया है जो एकादश सर्गों में वर्णित है).... ...... रचयिता --डा श्याम गुप्त ...
---पन्चम सर्ग में जटिल भौतिक व रासायनिक क्रियाओं द्वारा मूल पदार्थ बनने की वैदिक विज्ञान व आधुनिक विज्ञान के मत वर्णित किये गए थे. -- , .प्रस्तुत षष्टम सर्ग -ब्रह्माण्ड खंड में बने हुए पंचौदन अजः ( मूल पदार्थ ) से आगे जड़ व जीव जगत की उत्पत्ति कैसे हुई इसका प्रारम्भिक रूप वर्णित किया जाएगा.
१-
ईक्षण तप१ से हिरण्यगर्भ के ,
भू, सावित्री२ भाव प्रकृति से-
सब जग रूप पदार्थ बन गए |
भुवः , गायत्री३ भाव उसीका,
अपरा-परा४ अव्यक्त रूप में,
चेतन सृष्टि का मूल रूप था||
२-
पराशक्ति से परात्पर की,
प्रकट स्वयंभू, आदि शम्भु थे|
अपरा-शंभु संयोग हुआ जब,
व्यक्त भाव,महतत्व५ बन गया|
हुआ विभाजित व्यक्त पुरुष में,
एवं व्यक्त आदि-माया में ||
३-
पालक, धारक और संयोगक,
संहारक लय सृजक रूप में;
महाविष्णु,महाशिव और ब्रह्मा,
बन असीम संकल्प शक्ति सब,
प्रकट हुए उस असीम से वे,
व्यक्त पुरुष से, आदि-विष्णु६ से ||
४ -
पालक, धारक, यौगिक ऊर्जा,
मूल, संहारक, सृज़क, स्फुरणा,
रमा  उमा  सावित्री७  रूपा;
सभी शक्तियां प्रकट होगईं |
स्वयं भाव में आदि-शक्ति से ,
व्यक्त आदि-माया, अपरा की ||
५-
महाविष्णु-रमा संयोग से,
प्रकट हुए चिद-बीज८ अनंत;
फैले थे जो परम-व्योम में,
कण कण में बन कर हेमांड |
उस असीम के, महाविष्णु के,
रोम रोम में बन ब्रह्माण्ड ||
६-
महाविष्णु के स्वांश९ तत्व से,
बाम भाग से विष्णु-चतुर्भुज,
विभिन्नांश१० भ्रू-मध्य भाग से,
शिव-ज्योतिर्लिंग, लिंग-महेश्वर |
दक्षिण विभिन्नांश से ब्रह्मा,
प्रकट हुए प्रत्येक अंड में ||
७-
यही ब्रह्म, अंगुष्ठ-ब्रह्म११, बन-
रूप, आत्मा  जीवात्मा   का |
स्थित  है,  प्रत्येक  देह में,
कहलाता है, सर्व-महेश्वर :
आत्म-तत्व प्रत्येक जीव का,
ह्रदयाकाश में , घटाकाश में ||
८-
महाविष्णु शिव ब्रह्मा माया,
दृव्य, प्रकृति, जल, वायु, ऊर्जा,
मन, आकाश सब देव निहित थे;
सूक्ष्म रूप प्रत्येक अंड में |
अपरा, परा, अहं सत्तामय ,
थी स्वतंत्र सत्ता१२ प्रत्येक की ||
९-
महाकाश ही  आदि-विष्णु है,
रोम-रोम कण रूप भुवन का |
प्रकृति,त्रिगुणमय-सत तम रज की,
माया जीव विष्णु ब्रह्मा शिव;
सूक्ष्म भाव हैं परम-तत्व के,
स्थित कण-कण, रोम-रोम में ||
१०-
अब विज्ञान भी यही मानता,
ऋणकण, धनकण, उदासीनकण;
शक्ति गति निर्वात परिधि के;
सहित बने , परमाणु कण सभी |
सूक्ष्म रूप हैं सभी तत्व के,
अखिल विश्व में,चिदाकाश१३के ||
११-
और असीम उस महाकाश में ,
हैं असंख्य ब्रह्माण्ड उपस्थित |
धारण करते हैं, ये सब ही,
अपने अपने सूर्य-चन्द्र सब,
अपने अपने गृह-नक्षत्र सब;
है स्वतंत्र सत्ता प्रत्येक की ||
१२-
"एको सद विप्राः वहुधा वदन्ति "
भिन्न -भिन्न सब रूप उसीके |
इसीलिये कहते हैं हम सब,
अखिल विश्व कण-कण में समाया |
कण-कण में भगवान बसा है,
कण-कण में भगवान की माया ||
१३-
सभी जीव में वही ब्रह्म है,
मुझमें- तुझमें वही ब्रह्म है |
उसी एक को मान के सब में,
जान उसी को हर कण, कण में;
तिनके का भी दिल न दुखाये ,
सो प्रभु को परब्रह्म को पाए || ---क्रमश : ..सप्तम सर्ग..अगले अंक में .


{ कुंजिका -- १= व्यक्त ब्रह्म, हिरण्यगर्भ का सृष्टि संकल्प रूपी तप ; २= व्यक्त ईश्वर का सावित्री(भू) अर्थात प्रकृति भाव जिससे समस्त जड़ ( जीव व जंगम सभी में ) तत्वों का निर्माण होता है.. ; ३= गायत्री(भुव:) , अर्थात ईश्वर का चेतन प्राणमय जिससे सभी चेतन तत्वों का निर्माण होता है; ४= गायत्री , चेतन रूप के व्यक्त शक्ति (अपरा) और पुरुष (परा ) रूप ; ५= मूल व्यक्त तत्व ; ६= वही व्यक्त ईश्वर , व्यक्त आदि पुरुष ; ७= त्रिदेवों की प्रेरक त्रिविध शक्तियां ; ८= मूल ब्रह्माण्ड ,अंड हेमांड, आदि -बीज रूप में , जो सारे अंतरिक्ष में असंख्य ब्रह्माण्ड के रूप में फैले रहते हैं ; ९= मूल शरीर के तत्व से; १०= पर्वर्तिति या अन्य छाया शरीर से ; ११= अन्गुष्ठाकार ब्रह्म , जो लय व सृष्टि के बीच अश्वत्थ-पत्र पर महाअर्णव मेंतैरता हुआ स्थित रहता है | वही पुरुष में, ह्रदयाकाश में,अंतरात्मा के रूप में स्थित होता है|--श्वेताश्वरोपनिषद ३/१३..; १२=प्रत्येक बीजांड,अंड, या ब्रह्माण्ड -अपने अपने सम्पूर्ण सौरमंडल सहित स्वतंत्र सत्ता रूप, स्वतंत्र सृष्टि रूप , जो असंख्य संख्या में सारे अंतरिक्ष में फैले रहते हैं ; अब आधुनिक विज्ञान भी  स्वीकार करता है कि असंख्य ब्रह्माण्ड हैं जिनके समस्त सौर मंडल भी अपने अपने होते हैं | ; १३= अर्णव , महाकाश, अनंत अंतरिक्ष, शून्याकाश , सुन्न भवन, ईथर, क्षीर सागर .}