साहित्यभूषण डा रंगनाथ मिश्र सत्य का एक नवगीत-----
बरस रहे मचल मचल यादों के घन |
कंपती है भादों की रात,
बतियाँ उर में शूल गयीं |
टेर उठी कान्हा की वंशी
सखियाँ सुध बुध भूल गयीं |
बरस रहे मचल मचल यादों के घन |
कंपती है भादों की रात,
बतियाँ उर में शूल गयीं |
टेर उठी कान्हा की वंशी
सखियाँ सुध बुध भूल गयीं |
बहक रहा निश्वांसों का पागलपन ||
मोती ढरते आँखों से
चमकीली किरणों जैसे |
टूट गया मन का कंगन
आऊँ पास भला कैसे |
कंचनी फुहारों में परस गया तन ||
गुलाबांसों के फूल खिले,
फटा पड़ रहा नील कपास |
राग रागिनी तरुओं की
मंडराती कलियों के पास |
साँसों के घेरे में डूब गया मन |
बरस रहे मचल मचल यादों के घन ||
मोती ढरते आँखों से
चमकीली किरणों जैसे |
टूट गया मन का कंगन
आऊँ पास भला कैसे |
कंचनी फुहारों में परस गया तन ||
गुलाबांसों के फूल खिले,
फटा पड़ रहा नील कपास |
राग रागिनी तरुओं की
मंडराती कलियों के पास |
साँसों के घेरे में डूब गया मन |
बरस रहे मचल मचल यादों के घन ||
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