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Sunday, 8 March 2015

अगीत की शिक्षाशाला--कार्यशाला -२५....अगीतोत्सव -१५ पर एक वक्तव्य ....डा श्याम गुप्त

                                     अगीत की शिक्षाशाला--कार्यशाला -२५..

अगीतोत्सव -१५ पर मेरे मुखर अगीत के लेखक मुरली मनोहर  कपूर द्वारा दिया गया वक्तव्य में अगीत के विशिष्ट पक्षों को संक्षिप्त में सहज व सरल रूप में रखा गया है---
                 "काव्य में नयेपन की तलाश वस्तुतः सृजनात्मक प्रक्रिया का आधार बनी जो परिणाम हमारे समक्ष आया वह 'अगीत' के नाम से प्रचलन में आया | आगे चलकर अगीत का कलेवर यहीं नहीं  रुकने वाला, यह स्पष्ट दृष्टिगोचर हो रहा है |
                 अगीत के सृजन में अपनी सोच को प्रस्तुत करने में तथा इसको समझाने के लिए अंतर्दृष्टि की आवश्यकता होती  है जो अगीतकारों को विशिष्टता व पहचान देती है |
                यहाँ यह कहना समीचीन होगा की हर काल में रचनाकार अपनी रचनाओं में नए नए तत्वों का समावेश करते रहे हैं| अतः सत्य जी ने १९६६ में गीत के साथ अ प्रत्यय जोड़कर अगीत का सृजन किया क्योंकि वेदों की ऋचाएं भी अगीत में ही सृजित हैं| सहज सम्प्रेषण का माध्यम अगीत ही है |अगीतों के माध्यम से ही हर प्रकार की अनुभूतियों को स्वर दिया जा सकता है|  भावनाएं जब शब्द का रूप लेती हैं तब अगीत का सृजन होता है|अगीत तो यथार्थ के भूमि पर ही टिका है, गीतों की भांतिइसमें कल्पना को अधिक स्थान नहीं दिया गया है |यही कारण है की अज अगीत रचनाकार समाज की आवाज़ बनकर सामने आये हैं| अगीतोत्सव के आयोजन का रचनाकारों पर सुन्दर दूरगामी प्रभाव पडा है व पड रहा है और इसके संस्थापक डा रंगनाथ मिश्र सत्य जी अपने प्रयास में सार्थक सिद्ध हुए हैं|   एक विधा के तौर पर भविष्य में 'अगीतवाद'  और अधिक भव्य रूप अपना लेगा एसा मेरा विश्वास है| "

                       प्रस्तुत हैं कुछ नए अगीत ----
बादल फिर बरस गए
कहीं बाढ़ का प्रकोप
घर घर सब उजड़ गए
कहीं कहीं खेतों में काम
करते है कृषक भगवान
कहीं कहीं ऐसा भी घटित हुआ
जीव जंतु पानी को तरस गए |       ----डा रंगनाथ मिश्र ;सत्य'


आतुर अबोले से नयन
थक थक कर रह जाते हैं ,
पिता ही नहीं
माँ भी घर पर नहीं है ,
बंद दरवाजों के पीछे
नन्हा ह्रदय टूटता रहता है-
एकाकी  अँधेरे का सर्प
उसे रोज़ रोज़ डसता है |           -------स्नेह प्रभा दिल्ली


योगी चाँद रूपी दीपक से प्रकाशित
आकाशी वितान के नीचे
पृथ्वी रूपी शय्या पर
भुजाओं के तकियों के सहारे
पवन का पंखा झलती हुई
विरक्ति रूपी स्त्री के साथ
सोता है सुख से ;
जो नहीं उपलब्ध है कंचन सेज पर
कांचन-कामिनी की काया-छायाके
भुजपाश में |                               -----------सुषमा गुप्ता ,लखनऊ


मानव रचना से पहले
ॐ शब्द रचाया प्रभु ने ,
मुखरित हुआ ज्ञान
ऋचाओं का शब्दों से ;
शब्द बिना
मानव होता पशुओं के सदृश्य
ये अलंकृत भाव न होते ,
ये गीत-अगीत
कैसे लिखते हम
यदि शब्द न होते |           ---- मुरली मनोहर कपूर















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