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Friday 6 December 2013

अगीत की शिक्षाशाला........कार्यशाला १४ ...अलंकार योजना ....

अगीत की शिक्षाशाला....... कार्यशाला १४.

                                 अगीत में रस छंद अलंकार योजना 

                  कार्यशाला १४ ....अगीत में अलंकार योजना 


                     अलंकार , साहित्य को शब्द-शिल्प अर्थ-सौंदर्य प्रदान करते हैं |  साहित्य में आभूषण की  

भांति प्रयुक्त होते हैं | यद्यपि प्रत्येक वस्तु, भाव क्रिया के अनिवार्य गुण-रूप-तत्व ...." सत्यं शिवम्   

सुन्दरं " के अनुसार सौंदर्य अर्थात अलंकरण काव्य का अंतिम मंतव्य होना चाहिए , तथापि अलंकारों के  

योगदान को नकारा नहीं जा सकता | अतः अगीत में भी पर्याप्त मात्रा में अलंकार प्रयुक्त हुए हैं | मुक्य-मुख्य  

शब्दालंकार अर्थालंकार के उदाहरण प्रस्तुत हैं |

               
अनुप्रास अलंकार ----
 
" आधुनिक कविता  की 
सटीली, पथरीली, रपटीली -
गलियों के बीच ,
अगीत ने सत्य ही 
अपना मार्ग प्रशस्त किया है ;
अनुरोधों, विरोधों, अवरोधों के बीच 
उसने सीना तान कर जिया है | "                      ---- पाण्डेय रामेन्द्र ( अन्त्यानुप्रास )

"
शिक्षित सज्जन सुकृत संगठित 
बने क्रान्ति में स्वयं सहायक | "                   ----- डा श्याम गुप्त (शूर्पणखा खंडकाव्य से )

                
उपमा अलंकार -----

"
बिंदुओं सी रातें 
गगन से दिन बनें ,
तीन ऋतु बीत जाएँ ,
बस यूँही | "                                                 -----मंजू सक्सेना        

"
बहती नदी के प्रबल प्रवाह सा,
उनीदी  तारिकाओं के प्रकाश सा,
कभी तीब्र होती आकांक्षाओं सा,
मैदानों पर बहती समतल धारा सा ,
नन्हे शिशुओं के तुतले बोलों सा ,
यह तो जीवन है  | "                                    -----स्नेह-प्रभा ( मालोपमा )


                    
रूपक अलंकार ------

"
खिले अगीत गीत हर आनन्,
तुम हो इस युग के चतुरानन |"                     ---- अनिल किशोर शुक्ल 'निडर'

"
कामिनी के पुलके अंग् अंग्,
नयन वाण आकर हैं घेरे | "                         ---- सोहन लाल सुबुद्ध

"
पायल छनका कर दूर हुए,
हम कुछ ऐसे मज़बूर हुए ;
उस नाद-ब्रह्म मद चूर हुए |"                       --- त्रिपदा अगीत ( डा श्याम गुप्त )



                    यमक अलंकार -----
 
" जब आसमान से
 
झांका चाँद,
याद आई, आँखें डबडबाईं ,
आंसुओं में तैरने लगा
एक चाँद | "                                    --तथा ..         

"
सोना,
रजनी में सजनी में सुहाता है,
मन को लुभाता है |
अत्यधिक  सोना घातक है ,
कलयुग में सोना पातक है | "                         ----सुरेन्द्र कुमार वर्मा

                     
उत्प्रेक्षा अलंकार ------

"
यह कंचन सा रूप तुम्हारा 
निखर उठा सुरसरि धारा में;
अथवा  सोनपरी सी कोई,
 
हुई अवतरित सहसा जल में ;
अथवा पद वंदन को उतरा,
स्वयं इंदु ही गंगाजल  में | "                               ----डा श्याम गुप्त

"
क्या ये स्वयं काम देव हैं,
अथवा द्वय अश्विनी बंधु  ये |"                          ---- शूर्पणखा खंड-काव्य से


                       
अगीत में  श्लेष अलंकार के उदाहरण की एक झलक देखें -----
 

" दीपक देता है प्रकाश ,
स्वयं अँधेरे में रहता है
सुख-दुःख सहकर ही तो नर,
औरों को सुख देता है | "                                     ---राम प्रकाश राम

"
चलना ही नियति हमारी है,
जलना ही प्रगति हमारी है |"                              ----डा सत्य 

                           
संशय या संदेह अलंकार ------
 
" सांझ की गोधूली की बेला में ,
प्रफुल्लित चांदनी में ;
अमृत की अभिलाषा लिए ,
निहार रही थी एक टक,
झुरमुट में चकवा-चकवी का मिलन ;
प्रिया  प्रियतम से,
 
मोह का पान कर रही थी ;
या यह कोरी कल्पना थी | "                                   ----- घनश्याम दास गुप्ता


                              
अतिशयोक्ति अलंका -----
 
' नव षोडशि सी इठला करके ,
मुस्काती तिरछी चितवन से |
बोली रघुबर से शूर्पणखा ,
सुन्दर पुरुष नहीं तुम जैसा ;
मेरे जैसी सुन्दर नारी,
नहीं जगत में है कोई भी ||"                          ---- डा श्याम गुप्त ( शूर्पणखा खंड-काव्य से )



             

       मुख्यतया अंग्रेज़ी साहित्य के अलंकार --मानवीकरण ध्वन्यात्मक  अलंकार भी देखें...

" असफलता आज थक गयी है ,
गुजरे हैं हद से कुछ लोग ,
उनकी पहचान क्या करें ?
अमृत पीना बेकार,
प्राणों की चाह है अधूरी ,
विह्वलता  और बढ़ गयी है |"                        ------डा सत्य ( मानवीकरण )

"
नदिया मुस्कुराई 
कल कल कल खिलखिलाई ,
फिर लहर लहर लहराई |"                            ----- डा श्याम गुप्त -प्रेम काव्य से-ध्वन्यात्मक )

 
                पुनुरुक्ति-प्रकाश वीप्सा अलंकार ------
 
" श्रम से जमीन का नाता जोड़ें ,
श्रम जीवन का मूलाधार ,
श्रम से कभे मानो हार ;
श्रम ही श्रमिकों की मर्यादा,
श्रम के रथ को फिर से मोड़ें | "                            ------ डा सत्य ( पुनुरुक्ति प्रकाश )

"
एक रबड़ ,
खिंची खिंची खिंची -
और टूट गयी ;
ज़िन्दगी रबड़ नहीं ,
तो और क्या है ? "                                            -----राजेश कुमार द्विवेदी ( वीप्सा )

 

                      अन्योक्ति,  स्मरण,  वक्रोक्ति,  लोकोक्ति,  असंगति अप्रस्तुत अलंकार ------

" बालू से सागर के तट पर ,
खूब घरोंदे गए उकेरे |
वक्त की ऊंची लहर उठी जब,
सब कुछ आकर बहा ले गयी |
छोड़ गयी कुछ घोंघे सीपी,
सजा लिए हमने दामन में || "                       ----- प्रेम काव्य से ( अन्योक्ति )

"
अजब खेल हैंमेरे बंधु !
गड्ढे तुम खोदते हो ,
गिरता मैं हूँ ;
करते तुम हो-
भरता मैं हूँ |
फिर भी जाने कौन सी डोर ,
खींच लेजाती है तुम्हारे पास ,
मेरे अस्तित्व को;
साँसें तुम्हारी निकलती हैं,
मरता मैं हूँ | "                                              ------ मंगल दत्त द्विवेदी 'सरस' ( असंगति

"
घिर गए हैं नील नभ में घन,
तडपने  लग गए तन मन ;
किसी  की याद  आई है,
महक महुए से आयी है | "                             ---- डा श्रीकृष्ण सिंह 'अखिलेश' ( स्मरण )

"
आँख मूद कर हुक्म बजाना,
सच  की बात मुंह पर लाना ;
पड जाएगा कष्ट उठाना | "                          ---- डा श्याम गुप्त ( वक्रोक्ति )

"
मानवता के दुश्मन !
थोड़े से दहेज के लिए,
जलादी प्यारी सी दुल्हन;
ठहर ! तुझे पछताना पडेगा,
ऊँट को पहाड़ के नीचे 
आना पडेगा | "                                         ----- विजय कुमारी मौर्या ( लोकोक्ति )

"
मन के अंधियारे पटल पर ,
तुम्हारी छवि,
ज्योति-किरण सी लहराई;
एक नई कविता,
पुष्पित हो आई | "                                  ------ डा श्याम गुप्त ( अप्रस्तुत )




                          ----------- क्रमश ...कार्यशाला -१५ ...अगीत में छंद यात्रा.......





अगीत साहित्य के अलख निरंजन –डा रंग नाथ मिश्र ‘सत्य’....डा श्याम गुप्त



                 अगीत साहित्य के अलख निरंजनडा रंगनाथ मिश्र ‘सत्य’
                          
            हिन्दी साहित्य-जगत में अगीत-विधा, संतुलित कहानी एवं संघीय समीक्षा पद्धति आदि विधाओं के प्रवर्तन द्वारा अपनी अलग से एक विशिष्ट पहचान बनाने वाले डा.रंगनाथ मिश्र जी ‘सत्य-पथ के पाथेय’ हैं आपने अपना उपनाम ही ‘सत्य’ रख लिया है | अपने नामानुसार ही वे बहुरंगी व्यक्तित्व व बहु-विधायी साहित्यकार तो हैं ही, बहु-नामी शख्शियत भी हैं | भारतेंदु हरिश्चन्द्र, महावीरप्रसाद द्वेदी व निराला जी की भांति युगप्रवर्तकअज्ञेय की भांति प्रयोगवादी डा.सत्य के आज तक जितने नामाकरण व नामोपाधिकरण हुए हैं उतने नामों से साहित्य-जगत में शायद ही किसी को पुकारा गया हो| हो सकता है कि कभी स्कूलों कालेजों में ‘अ’ मानी ‘अगीत’ के साथ-साथ डा रंगनाथ के पर्यायवाची भी पढाए-पूछे जाने लगें |  
             जहां पूर्व न्यायाधीश–साहित्यकार श्री रामचंद्र शुक्ल जी सत्यजी को ‘साधना का व्रती’.... ‘अदम्य संगठन कर्ता’...अनुष्ठानधर्मायोग्यतम संचालक ..का नाम देते हैं तो गीतकार डा चक्रधर नलिन जी उन्हें ‘युग-प्रवर्तक’ व ‘प्रयोगधर्मी’ का और जंग बहादुर सक्सेना ..’काव्य का दिशा वाहक’ | प्रोफ.उषा सिन्हा उन्हें ‘अगीत विधा का बट-बृक्ष’ नामित करती हैं तो रूसी भाषाविद संगमलाल मालवीय- ‘लखनऊ साहित्यिक व्यायामशाला का अखाडेबाज़ चौधरी’ और प्रोफ. नेत्रपाल सिंह ‘साहित्यकार दिवस के प्रेरणा स्रोत’ के नाम से पुकारते हैं | उनके योग्य शिष्य सूर्य प्रसाद मिश्र ‘हरिजन’ उन्हें ‘सत्य का सूर्य’ का नाम देते हैं तो श्रीमती स्नेहलता व देवेश द्विवेदी ‘साहित्यिक संत’ का | गुरुवर, गुरूजी, गुरुदेव नाम से तो वे अपनी अगीत मंडली, शिष्य मंडली, अगीत पाठशाला व अगीत कार्यशाला, अगीत साहित्य-जगत  एवं  सारे युवा-साहित्यकार जगत में जाने ही जाते हैं; जो उनके शिष्य-शिष्याओं, प्रशंसकों, साथियों की लंबी संख्या व उनकी लोकप्रियता की व्याख्या करता है | सृजन संस्था के अध्यक्ष डा.योगेश गुप्ता उन्हें ‘कर्म-योद्धा’ का नाम देते हैं|
             उनके अभिन्न साथी व शिष्य श्री पार्थोसेन उन्हें ’आंदोलनकारी व्यक्तित्व’ कहते हैं  वरिष्ठ वयोवृद्ध सुकवि शारदा प्रसाद मिश्र के वे ‘विलक्षण साहित्य सेवी” हैं |  कवयित्री डा मंजू शुक्ला ने उन्हें ‘हिन्दी के सच्चे सिपाही’ का नाम दिया है और विजय कुमारी मौर्या के लिए वे ‘सत्य का आईना‘ हैं | पट्ट-शिष्य तेज नारायण राही के लिए ‘साहित्य धाम का काव्य संत’ हैं तो स्नेहप्रभा (दिल्ली) ने उनका लिए ‘एक तपस्वी’ का नाम उद्घोषित किया है | वैदिक विद्वान श्री धुरेन्द्र बिसरिया जी उन्हें ‘सत्य का साधक’...’संकल्प का धनी‘...’अरुंधती तारा’...’कर्म-रथी व ‘उद्गीथ का प्रणेता” आदि नामों से नवाज़ते हैं |  और भी जाने कितने नाम हैं सत्य जी के | ‘हिन्दी का सूर्य’...’साहित्य उपवन का अनोखा सुमन”...और कवि अनिल किशोर ‘निडर’ उन्हें इस 'युग का चतुरानन’ पुकारते हैं ...
        “खिले अगीत-गीत हर आँगन,
        तुम हो इस युग के चतुरानन |”

 और मैं स्वयं डा श्याम गुप्त उन्हें अगीत का ‘कवि-कुल-गुरु’ कहता हूँ तथा आज अगीत का अलख निरंजन‘ |
               सतत परिवर्तनशीलता ही प्रकृति-नटी का स्थिर नियम है, चिर-सत्य है, यही प्रकृति है, प्राकृतिक बंधन भी है, रूढिवादिता भी, प्रगतिशीलता भी | इसी प्रकार सतत नवीन चिंतन शैली, कुछ न कुछ सोचते रहना, नया करते रहना, रूढ़िवादी कवि की भांति झोला कंधे पर डाले परन्तु परिवर्तन के चितेरे की भांति चरैवेति-चरैवेति ...चलते रहना ...आते-जाते रहना, सारे नगर में ..देश में... सत्य जी का नियम है |  अपने बहुमुखी कृतित्वों, सर्वाधिक साहित्यिक कृत्यों, असंख्य शिष्य-शिष्याओं व युवा कवियों को एवं तमाम साहित्यिक संस्थाओं को अगीत-परिषद के सह-संयोजकत्व में गतिमान, प्रगतिमान रखने वाला बहुयामी व्यक्तित्व समाये वे साहित्यिक जगत के विलक्षण व्यक्तित्व ही हैं साथ ही वे ऐसे व्यक्ति व साहित्यकार भी हैं जिनकी सबसे अधिक आलोचना भी होती है| परन्तु वे अपने स्वभावानुसार, नामानुसार अपनी ही धुन में चलते जारहे हैं सतत, अनथक, अविराम, अविचलित, अनासक्त-भाव व सत्य-भाव से | अगति में भी गतिमयता लिए हुए ...अगीत.. गुनुगुनाते हुए .....
          “‘सत्य और संयम

              मन में उत्साह भरें,

                 जीवन आशान्वित हो

                     शान्ति के सहारे,

                        हिंसा का त्याग करें ;

                          सबको सुख देकरके

                               हम गरल पियें ||”