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Friday 6 December 2013

अगीत साहित्य के अलख निरंजन –डा रंग नाथ मिश्र ‘सत्य’....डा श्याम गुप्त



                 अगीत साहित्य के अलख निरंजनडा रंगनाथ मिश्र ‘सत्य’
                          
            हिन्दी साहित्य-जगत में अगीत-विधा, संतुलित कहानी एवं संघीय समीक्षा पद्धति आदि विधाओं के प्रवर्तन द्वारा अपनी अलग से एक विशिष्ट पहचान बनाने वाले डा.रंगनाथ मिश्र जी ‘सत्य-पथ के पाथेय’ हैं आपने अपना उपनाम ही ‘सत्य’ रख लिया है | अपने नामानुसार ही वे बहुरंगी व्यक्तित्व व बहु-विधायी साहित्यकार तो हैं ही, बहु-नामी शख्शियत भी हैं | भारतेंदु हरिश्चन्द्र, महावीरप्रसाद द्वेदी व निराला जी की भांति युगप्रवर्तकअज्ञेय की भांति प्रयोगवादी डा.सत्य के आज तक जितने नामाकरण व नामोपाधिकरण हुए हैं उतने नामों से साहित्य-जगत में शायद ही किसी को पुकारा गया हो| हो सकता है कि कभी स्कूलों कालेजों में ‘अ’ मानी ‘अगीत’ के साथ-साथ डा रंगनाथ के पर्यायवाची भी पढाए-पूछे जाने लगें |  
             जहां पूर्व न्यायाधीश–साहित्यकार श्री रामचंद्र शुक्ल जी सत्यजी को ‘साधना का व्रती’.... ‘अदम्य संगठन कर्ता’...अनुष्ठानधर्मायोग्यतम संचालक ..का नाम देते हैं तो गीतकार डा चक्रधर नलिन जी उन्हें ‘युग-प्रवर्तक’ व ‘प्रयोगधर्मी’ का और जंग बहादुर सक्सेना ..’काव्य का दिशा वाहक’ | प्रोफ.उषा सिन्हा उन्हें ‘अगीत विधा का बट-बृक्ष’ नामित करती हैं तो रूसी भाषाविद संगमलाल मालवीय- ‘लखनऊ साहित्यिक व्यायामशाला का अखाडेबाज़ चौधरी’ और प्रोफ. नेत्रपाल सिंह ‘साहित्यकार दिवस के प्रेरणा स्रोत’ के नाम से पुकारते हैं | उनके योग्य शिष्य सूर्य प्रसाद मिश्र ‘हरिजन’ उन्हें ‘सत्य का सूर्य’ का नाम देते हैं तो श्रीमती स्नेहलता व देवेश द्विवेदी ‘साहित्यिक संत’ का | गुरुवर, गुरूजी, गुरुदेव नाम से तो वे अपनी अगीत मंडली, शिष्य मंडली, अगीत पाठशाला व अगीत कार्यशाला, अगीत साहित्य-जगत  एवं  सारे युवा-साहित्यकार जगत में जाने ही जाते हैं; जो उनके शिष्य-शिष्याओं, प्रशंसकों, साथियों की लंबी संख्या व उनकी लोकप्रियता की व्याख्या करता है | सृजन संस्था के अध्यक्ष डा.योगेश गुप्ता उन्हें ‘कर्म-योद्धा’ का नाम देते हैं|
             उनके अभिन्न साथी व शिष्य श्री पार्थोसेन उन्हें ’आंदोलनकारी व्यक्तित्व’ कहते हैं  वरिष्ठ वयोवृद्ध सुकवि शारदा प्रसाद मिश्र के वे ‘विलक्षण साहित्य सेवी” हैं |  कवयित्री डा मंजू शुक्ला ने उन्हें ‘हिन्दी के सच्चे सिपाही’ का नाम दिया है और विजय कुमारी मौर्या के लिए वे ‘सत्य का आईना‘ हैं | पट्ट-शिष्य तेज नारायण राही के लिए ‘साहित्य धाम का काव्य संत’ हैं तो स्नेहप्रभा (दिल्ली) ने उनका लिए ‘एक तपस्वी’ का नाम उद्घोषित किया है | वैदिक विद्वान श्री धुरेन्द्र बिसरिया जी उन्हें ‘सत्य का साधक’...’संकल्प का धनी‘...’अरुंधती तारा’...’कर्म-रथी व ‘उद्गीथ का प्रणेता” आदि नामों से नवाज़ते हैं |  और भी जाने कितने नाम हैं सत्य जी के | ‘हिन्दी का सूर्य’...’साहित्य उपवन का अनोखा सुमन”...और कवि अनिल किशोर ‘निडर’ उन्हें इस 'युग का चतुरानन’ पुकारते हैं ...
        “खिले अगीत-गीत हर आँगन,
        तुम हो इस युग के चतुरानन |”

 और मैं स्वयं डा श्याम गुप्त उन्हें अगीत का ‘कवि-कुल-गुरु’ कहता हूँ तथा आज अगीत का अलख निरंजन‘ |
               सतत परिवर्तनशीलता ही प्रकृति-नटी का स्थिर नियम है, चिर-सत्य है, यही प्रकृति है, प्राकृतिक बंधन भी है, रूढिवादिता भी, प्रगतिशीलता भी | इसी प्रकार सतत नवीन चिंतन शैली, कुछ न कुछ सोचते रहना, नया करते रहना, रूढ़िवादी कवि की भांति झोला कंधे पर डाले परन्तु परिवर्तन के चितेरे की भांति चरैवेति-चरैवेति ...चलते रहना ...आते-जाते रहना, सारे नगर में ..देश में... सत्य जी का नियम है |  अपने बहुमुखी कृतित्वों, सर्वाधिक साहित्यिक कृत्यों, असंख्य शिष्य-शिष्याओं व युवा कवियों को एवं तमाम साहित्यिक संस्थाओं को अगीत-परिषद के सह-संयोजकत्व में गतिमान, प्रगतिमान रखने वाला बहुयामी व्यक्तित्व समाये वे साहित्यिक जगत के विलक्षण व्यक्तित्व ही हैं साथ ही वे ऐसे व्यक्ति व साहित्यकार भी हैं जिनकी सबसे अधिक आलोचना भी होती है| परन्तु वे अपने स्वभावानुसार, नामानुसार अपनी ही धुन में चलते जारहे हैं सतत, अनथक, अविराम, अविचलित, अनासक्त-भाव व सत्य-भाव से | अगति में भी गतिमयता लिए हुए ...अगीत.. गुनुगुनाते हुए .....
          “‘सत्य और संयम

              मन में उत्साह भरें,

                 जीवन आशान्वित हो

                     शान्ति के सहारे,

                        हिंसा का त्याग करें ;

                          सबको सुख देकरके

                               हम गरल पियें ||”


                                         

Wednesday 4 December 2013

अगीत की शिक्षाशाला........कार्यशाला १३...रसों का परिपाक....

                                 अगीत में रस छंद अलंकार योजना 

                  कार्यशाला १३.....अगीत में रसों का परिपाक.....




                       
अगीत कविता में लगभग सभी  रसों का परिपाक समुचित मात्रा में हुआ है | सामाजिक एवं  
समतामूलक समाज के उदेश्य प्रधान विधा होने के कारण यद्यपि शांत, करुणा, हास्य ..रसों को अधिक देखा  
जाता है तथापि सभी रसों का उचित मात्रा में  उपयोग हुआ है |
 
                   वीर रस का उदाहरण प्रस्तुत है ....
 
" हम क्षत्री है वन में मृगया,
करना तो खेल हमारा  है |
तुम जैसे दुष्ट मृग-दलों को,
हम  सदा  खोजते  रहते  हैं |
चाहे  काल स्वयं सम्मुख हो,
नहीं मृत्यु से डरते हैं हम || "                           ---शूर्पणखा काव्य उपन्यास से ( डा श्याम गुप्त )

      
           रौद्र रस का एक उदाहरण पं. जगत नारायण पांडे के महाकाव्य सौमित्र गुणाकर से दृष्टव्य करें --
 

" क्रोध देखकर भृगु नायक का,
मंद हुई  गति धारा-गगन की;
मौन  सभा मंडप में छाया |
बोले,' कौन दुष्ट है जिसने -
भंग किया पिनाक यह शिव का ;
उत्तर नहीं मिला तो तत्क्षण ,
कर दूंगा निर्वीर्य धारा को || "

            
श्रृंगार रस का एक उदाहरण देखें -----
 

" नैन नैन मिल गए सुन्दरी,
नैना  लिए झुके भला क्यों ;
मिलते क्या बस झुक जाने को |"                        ----त्रिपदा अगीत ( डा श्याम गुप्त )

          
भक्ति रस ---का एक उदाहरण प्रस्तुत है....
 

" मां वाणी !
मुझको ज्ञान दो 
कभी आये मुझमें  स्वार्थ ,
करता  रहूँ सदा परमार्थ ;
पीडाओं को हर दे मां !
कभी  सत्पथ से-
मैं भटकूं 
करता रहूँ तुम्हारा ध्यान | "                         ------डा सत्य

               
हास्य कवि व्यंगकार सुभाष हुडदंगी का एक हास्य-व्यंग्य प्रस्तुत है-----
 

" जब आँखों से आँखों को मिलाया 
तो  हुश्न और प्यार नज़र आया;
मगर जब नखरे पे नखरा उठाया ,
तो मान यूँ गुनुगुनाया --
'
कुए में कूद के मर जाना,
यार तुम शादी मत करना |"

               
वैराग्य, वीभत्स करूण रस के उदाहरण भी रंजनीय हैं-----
 

 मरणोपरांत जीव,
यद्यपि मुक्त होजाता है ,
संसार से , पर--
कैद रहता है वह मन में ,
आत्मीयों के याद रूपी बंधन में ,
और होजाता है अमर | "                       ----डा श्याम गुप्त

"
जार जार लुंगी में,
लिपटाये  आबरू ;
पसीने से तर,
 
भीगा जारहा है-
आदमी |"                                        ----धन सिंह मेहता

"
केवल बचे रह गए कान,
जिव्हा आतातायी ने छीनी ;
माध्यम से-
भग्नावशेष के ,
कहते अपनी क्रूर कहानी | "              ------गिरीश चन्द्र वर्मा 'दोषी '

"
झुरमुट के कोने में,
कमर का दर्द लपेटे
दाने बीनती परछाई;
जमान ढूँढ रहा है 
खुद को किसी ढेर में | "                    ----जगत नारायण पांडे