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Sunday 4 November 2012

सृष्टि महाकाव्य--षष्टम सर्ग, ब्रह्मान्ड खन्ड......डा श्याम गुप्त......





सृष्टि महाकाव्य-(ईषत- इच्छा या बिगबेंग--एक अनुत्तरित उत्तर )--

षष्टम सर्ग, ब्रह्मान्ड खन्ड....





     -------वस्तुत सृष्टि हर पल, हर कण कण में होती रहती है, एक सतत प्रक्रिया है , जो ब्रह्म संकल्प-(ज्ञान--ब्रह्मा को ब्रह्म द्वारा ज्ञान) ,ब्रह्म इच्छा-एकोहं बहुस्याम ...( इच्छा) सृष्टि (क्रिया- ब्रह्मा रचयिता ) की क्रमिक प्रक्रिया है --किसी भी पल प्रत्येक कण कण में चलती रहती है, जिससे स्रिष्टि प्रत्येक पदार्थ की उत्पत्ति होती है प्रत्येक पदार्थ नाश(लय-प्रलय- शिव ) की और प्रतिपल उन्मुख है
(यह
महाकाव्य अगीत विधामें आधुनिक विज्ञान ,दर्शन वैदिक-विज्ञान के समन्वयात्मक विषय पर सर्वप्रथमरचित महाकाव्य है , इसमें -सृष्टि की उत्पत्ति, ब्रह्माण्ड जीवन और मानव की उत्पत्ति के गूढ़तम विषयकोसरल भाषा में व्याख्यायित कियागया है | इस .महाकाव्य को हिन्दी साहित्य की अतुकांत कविता कीअगीत-विधा' के छंद - 'लयबद्ध षटपदी अगीत छंद' -में '
निवद्ध किया गया है जो एकादश सर्गों में वर्णित है).... ...... रचयिता --डा श्याम गुप्त ...
---पन्चम सर्ग में जटिल भौतिक व रासायनिक क्रियाओं द्वारा मूल पदार्थ बनने की वैदिक विज्ञान व आधुनिक विज्ञान के मत वर्णित किये गए थे. -- , .प्रस्तुत षष्टम सर्ग -ब्रह्माण्ड खंड में बने हुए पंचौदन अजः ( मूल पदार्थ ) से आगे जड़ व जीव जगत की उत्पत्ति कैसे हुई इसका प्रारम्भिक रूप वर्णित किया जाएगा.
१-
ईक्षण तप१ से हिरण्यगर्भ के ,
भू, सावित्री२ भाव प्रकृति से-
सब जग रूप पदार्थ बन गए |
भुवः , गायत्री३ भाव उसीका,
अपरा-परा४ अव्यक्त रूप में,
चेतन सृष्टि का मूल रूप था||
२-
पराशक्ति से परात्पर की,
प्रकट स्वयंभू, आदि शम्भु थे|
अपरा-शंभु संयोग हुआ जब,
व्यक्त भाव,महतत्व५ बन गया|
हुआ विभाजित व्यक्त पुरुष में,
एवं व्यक्त आदि-माया में ||
३-
पालक, धारक और संयोगक,
संहारक लय सृजक रूप में;
महाविष्णु,महाशिव और ब्रह्मा,
बन असीम संकल्प शक्ति सब,
प्रकट हुए उस असीम से वे,
व्यक्त पुरुष से, आदि-विष्णु६ से ||
४ -
पालक, धारक, यौगिक ऊर्जा,
मूल, संहारक, सृज़क, स्फुरणा,
रमा  उमा  सावित्री७  रूपा;
सभी शक्तियां प्रकट होगईं |
स्वयं भाव में आदि-शक्ति से ,
व्यक्त आदि-माया, अपरा की ||
५-
महाविष्णु-रमा संयोग से,
प्रकट हुए चिद-बीज८ अनंत;
फैले थे जो परम-व्योम में,
कण कण में बन कर हेमांड |
उस असीम के, महाविष्णु के,
रोम रोम में बन ब्रह्माण्ड ||
६-
महाविष्णु के स्वांश९ तत्व से,
बाम भाग से विष्णु-चतुर्भुज,
विभिन्नांश१० भ्रू-मध्य भाग से,
शिव-ज्योतिर्लिंग, लिंग-महेश्वर |
दक्षिण विभिन्नांश से ब्रह्मा,
प्रकट हुए प्रत्येक अंड में ||
७-
यही ब्रह्म, अंगुष्ठ-ब्रह्म११, बन-
रूप, आत्मा  जीवात्मा   का |
स्थित  है,  प्रत्येक  देह में,
कहलाता है, सर्व-महेश्वर :
आत्म-तत्व प्रत्येक जीव का,
ह्रदयाकाश में , घटाकाश में ||
८-
महाविष्णु शिव ब्रह्मा माया,
दृव्य, प्रकृति, जल, वायु, ऊर्जा,
मन, आकाश सब देव निहित थे;
सूक्ष्म रूप प्रत्येक अंड में |
अपरा, परा, अहं सत्तामय ,
थी स्वतंत्र सत्ता१२ प्रत्येक की ||
९-
महाकाश ही  आदि-विष्णु है,
रोम-रोम कण रूप भुवन का |
प्रकृति,त्रिगुणमय-सत तम रज की,
माया जीव विष्णु ब्रह्मा शिव;
सूक्ष्म भाव हैं परम-तत्व के,
स्थित कण-कण, रोम-रोम में ||
१०-
अब विज्ञान भी यही मानता,
ऋणकण, धनकण, उदासीनकण;
शक्ति गति निर्वात परिधि के;
सहित बने , परमाणु कण सभी |
सूक्ष्म रूप हैं सभी तत्व के,
अखिल विश्व में,चिदाकाश१३के ||
११-
और असीम उस महाकाश में ,
हैं असंख्य ब्रह्माण्ड उपस्थित |
धारण करते हैं, ये सब ही,
अपने अपने सूर्य-चन्द्र सब,
अपने अपने गृह-नक्षत्र सब;
है स्वतंत्र सत्ता प्रत्येक की ||
१२-
"एको सद विप्राः वहुधा वदन्ति "
भिन्न -भिन्न सब रूप उसीके |
इसीलिये कहते हैं हम सब,
अखिल विश्व कण-कण में समाया |
कण-कण में भगवान बसा है,
कण-कण में भगवान की माया ||
१३-
सभी जीव में वही ब्रह्म है,
मुझमें- तुझमें वही ब्रह्म है |
उसी एक को मान के सब में,
जान उसी को हर कण, कण में;
तिनके का भी दिल न दुखाये ,
सो प्रभु को परब्रह्म को पाए || ---क्रमश : ..सप्तम सर्ग..अगले अंक में .


{ कुंजिका -- १= व्यक्त ब्रह्म, हिरण्यगर्भ का सृष्टि संकल्प रूपी तप ; २= व्यक्त ईश्वर का सावित्री(भू) अर्थात प्रकृति भाव जिससे समस्त जड़ ( जीव व जंगम सभी में ) तत्वों का निर्माण होता है.. ; ३= गायत्री(भुव:) , अर्थात ईश्वर का चेतन प्राणमय जिससे सभी चेतन तत्वों का निर्माण होता है; ४= गायत्री , चेतन रूप के व्यक्त शक्ति (अपरा) और पुरुष (परा ) रूप ; ५= मूल व्यक्त तत्व ; ६= वही व्यक्त ईश्वर , व्यक्त आदि पुरुष ; ७= त्रिदेवों की प्रेरक त्रिविध शक्तियां ; ८= मूल ब्रह्माण्ड ,अंड हेमांड, आदि -बीज रूप में , जो सारे अंतरिक्ष में असंख्य ब्रह्माण्ड के रूप में फैले रहते हैं ; ९= मूल शरीर के तत्व से; १०= पर्वर्तिति या अन्य छाया शरीर से ; ११= अन्गुष्ठाकार ब्रह्म , जो लय व सृष्टि के बीच अश्वत्थ-पत्र पर महाअर्णव मेंतैरता हुआ स्थित रहता है | वही पुरुष में, ह्रदयाकाश में,अंतरात्मा के रूप में स्थित होता है|--श्वेताश्वरोपनिषद ३/१३..; १२=प्रत्येक बीजांड,अंड, या ब्रह्माण्ड -अपने अपने सम्पूर्ण सौरमंडल सहित स्वतंत्र सत्ता रूप, स्वतंत्र सृष्टि रूप , जो असंख्य संख्या में सारे अंतरिक्ष में फैले रहते हैं ; अब आधुनिक विज्ञान भी  स्वीकार करता है कि असंख्य ब्रह्माण्ड हैं जिनके समस्त सौर मंडल भी अपने अपने होते हैं | ; १३= अर्णव , महाकाश, अनंत अंतरिक्ष, शून्याकाश , सुन्न भवन, ईथर, क्षीर सागर .}











Friday 2 November 2012

सृष्टि महाकाव्य(क्रमश:) ..चतुर्थ सर्ग...संकल्प....




सृष्टि महाकाव्य-(ईषत-इच्छा या बिगबेंग--एक अनुत्तरित उत्तर) --डा श्याम गुप्त.....



सृष्टि - अगीत महाकाव्य--

(यह महाकाव्य अगीत विधामें आधुनिक विज्ञान ,दर्शन व वैदिक-विज्ञान के समन्वयात्मक विषय पर सर्वप्रथम रचित महाकाव्य है , इसमें -सृष्टि की उत्पत्ति, ब्रह्माण्ड व जीवन और मानव की उत्पत्ति के गूढ़तम विषयको सरल भाषा में व्याख्यायित कियागया है | इस .महाकाव्य को हिन्दी साहित्य की अतुकांत कविता की 'अगीत-विधा' के छंद - 'लयबद्ध षटपदी छंद' -में
निवद्ध किया गया है जो एकादश सर्गों में वर्णित है).... ...... रचयिता --डा श्याम गुप्त ...

चतुर्थ सर्ग-( संकल्प खंड )--
प्रस्तुत खंड में- वैदिक विज्ञान के अनुसार ईश-तत्व, जिसे विभिन्न नामों से पुकारा जाता है, किस प्रकार व क्यों सृष्टि का संकल्प करता है एवं लय व सृष्टि के क्रम के अनुसार न तो कुछ नया बनता है न नष्ट होता है, मूल पदार्थ अविनाशी है बस रूप बदलता है, इस दर्शन( अब आधुनिक विज्ञान के अनुसार भी) का वर्णन एवं आदि-सृष्टि कणों के उत्पादन की प्रक्रिया का, इससे समस्त सृष्टि हुई, प्रारम्भ दिखाया गया है |...
-
बाद प्रलय के, सृष्टि से पहले,
वह ईशतत्ववह वेन-विराट;
परमात्वभाव , ऋत ,ज्येष्ठ ब्रह्म ५ ,
चेतन , जिसकी प्रतिमा कोई
वह एक अकेला ही स्थित था;
वह कौन,कहाँ था, किसे पता ?
-
वह होता है सदा उपस्थित ,
व्यक्ता-व्यक्त, बस रूप बदलकर
प्रलय,सृष्टि या साम्यकाल में,
कुछ नया बनता,नष्ट होता
सदाधार ७, वह मूल इसलिए,
सद भी है, वह नासद भी है
-
वह आच्छादित रहता सब में,
सब अन्तर्निहित उसी में है
सद-नासद, प्रकृति-पुरुष सभी,
इस कारण-ब्रह्म में निहित रहें
वह सदा अकर्मा, अविनाशी ,
परे सभी से, केवल दृष्टा
-
वह था, है, होता है या नहीं,
कब कौन कहाँ यह समझ सका
वह हिरण्यगर्भ या अपः मूल,
वे देव प्रकृति ऋषि ज्ञान सभी ;
 
 हैं व्याप्त उसी में, फिर कैसे,
वे भला जान पायें उसको
-
उस पार-ब्रह्म को ऋषियों ने,
आत्मानुभूति से पहचाना
पाया और अन्तर्निहित किया,
ज़ाना समझा गाया लिखा
अनुभव से यज्ञ की वेदी पर,
वे गीत उसी के गाते हैं
-
कर्म रूप में, भोग हेतु और,
मुक्ति हेतु उस जीवात्मा के
आत्मबोध से वह परात्पर,
या अक्रिय असत चेतन सत्ता;
अव्यक्त स्वयंभू या परिभू १० ,
ने किया भाव-संकल्प सृष्टि हित
-
हिरण्यगर्भ, सतब्रह्म, सक्रिय-चेतन ,
या व्यक्त रूप, अव्यक्त असत का
हुआ उपस्थित, स्वयं भाव से,
सक्रियसत्व११,उस अक्रियतत्व१२ का
चिदाकाश में , १३ रूप में,
वह निःसंग ही स्वयं व्यक्त था
-
जीव प्रकृति सद-नासद, चेतन,
मूल अपः, अव्यक्त भाव में
सत तम रज के साम्यरूप में,
स्थित थे उस हिरण्यगर्भ में
कार्य रूप, उस कारण का, जो -
कारण रूप,सृष्टि और लय का
-
मनः रेत संकल्प कर्म, जो-
प्रथम काम-संकल्प जगत का
सृष्टि-प्रवृत्ति की ईषत-इच्छा,
"एकोहं बहुस्याम"१४ रूप में
महाकाश में हुई प्रतिध्वनित ,
हिरण्यगर्भ के सगुण भाव से
१०-
मूल प्रकृति अव्यक्त भाव में,
अन्तर्निहित जो हिरण्यगर्भ में ।
 हुई अवतरित व्यक्त भाव बन,
रूप-सृष्टि१५ की मूल ऊर्जा, जो-
सत तम रज साम्यावस्था में,
थी स्थित उस शांत प्रकृति१६ में
११-
उस अनंत की ईषत इच्छा,
उभरी बन कर रूप में
महाकाश का नाद-अनाहत१७
 स्पंदन तब हुआ कणों में,
भंग हुई तब साम्यावस्था,
साम्य प्रकृति के,साम्य कणों की
१२-
स्पंदन से, साम्य कणों के,
अक्रिय अपः, होगया सक्रिय सत
हलचल से और द्वंद्व-भाव से ,
सक्रिय कणों के, बनी भूमिका-
सृष्टि-कणों के उत्पादन की ;
महाकाश की उस अशांति१८ में॥ .... .................क्रमश:...


{ कुंजिका---१ से ६ तक=निराकार परब्रह्म , अक्रिय -असद-असत , परमतत्व के विभिन्न नाम ; =सबका मूल आधार ; =कारणों का कारण पूर्ण ब्रह्म, पर-ब्रह्म ( वही १ से ७ तक); ९= स्वयं उत्पन्न ; १०= सब में छाया हुआ , सब को आच्छादित करता हुआ ; ११= सक्रिय हुआ परम तत्व( हिरण्य गर्भ, व्यक्त ईश्वर ) ; १२=अक्रिय मूल परमात्व तत्व जो हिरण्यगर्भ रूप में सक्रिय हुआ; १३= अंतरक्ष में उद्भूत प्रथम मूल अनाहत नाद ( स्वयम उत्पन्न आदि ध्वनि ..ओउम); १४=अब में एक से बहुत होजाऊँ , ईश्वर का आदि सृष्टि संकल्प); १५= वास्तविक पदार्थ रचना; १६= व्यक्त मूल प्रकृति की शांत, साम्य, अवस्था ,बिना किसी गति ,हलचल के ; १७=बिना टकराव के उत्पन्न ईश्वरीय आदि ध्वनि..ॐ ध्वनि जो समस्त व्यक्त अंतरिक्ष में ध्वनित होती है और साम्य प्रकृति की शांत अवस्था-व्यवस्था को भंग करके सृष्टि-सृजन का प्रक्रिया के प्रारम्भ का कारण बनती है; १८= व्यक्त मूल प्रकृति की शांत व साम्य अवस्था के भंग होने से उत्पन्न हल-चल--क्रिया-प्रक्रिया , जिससे सृष्टि-क्रम प्रारम्भ होता है | }

,
                                           क्रमश:  पंचम् सर्ग ...अगली पोस्ट में