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Sunday 3 June 2012

श्याम गुप्त की पुस्तक समीक्षा : अमेरिकी प्रवासी भारतीय:हिदी प्रतिभाएं



  समीक्ष्य-पुस्तक- -अमेरिकी प्रवासी भारतीय : हिन्दी प्रतिभाएं ( प्रथम व द्वितीय भाग ),
  लेखिका -डा ऊषा गुप्ता , प्रकाशक -न्यू रायल बुक कंपनी , लालबाग , लखनऊ.
 समीक्षक --डा श्याम गुप्त.
           "
जननी जन्म भूमि स्वर्गादपि गरीयसी ", यही सच है; और यह सच पूरी तरह उभर कर आया है डा ऊषा गुप्ता, भू. पू. प्रोफ. हिन्दी विभाग लखनऊ वि. विद्यालय द्वारा दो भागों में रचित समीक्ष्य पुस्तक 'अमेरिकी प्रवासी भारतीय:हिदी प्रतिभाएं ' में। पुस्तक में लेखिका ने अपने देश से दूर बसे विभिन्न धर्म,व्यवसाय व क्षेत्र के व्यक्तियों के भावोद्गारों को उनकी कृतियों , काव्य रचनाओं , कहानियों द्वारा बड़े सुन्दर ढंग से प्रस्तुत किया है। जहां विभिन्न रचनाओं में देश की माटी की सुगंधित यादें हैबिछुड़ने का दर्द है, वहीं संमृद्धि   में मानवता के डूबने का कष्ट एवं अपने देश भारत की दुर्दशा की पीड़ा भी है। देखिये---   ----                  
 
 "वह बात आई ,
न बल्ख़ में न बुखारे में  ,
जो छज्जू के चौबारे में।" ---परिचय -प्र.१७.
                                                        *         *            *
यहाँ आदमी बहुत थोड़े हैं ,
फिर भी न जाने क्यों ,
इक दूजे से मुंह मोड़े हैं।------कैलाश नाथ तिवारी
                                                        *      *           *
कैसी थी माधुर्य प्रीति ,
पल पल के उस जीवन में ,
भूल गया हूँ आज,
मशीनी चट्टानों के वन में।----कैलाश नाथ तिवारी .
                                                     *             *                          *
   "
दूर छूट गया बचपन का वह युग जहां सचमुच डाल डाल पर सोने की चिडियाँ बसेरा करती थीं ; अब वह भारत कहाँ रहा। विज्ञान ने , समय की दौड़ ने भारत को विदेशों की स्पर्धा में लाकर खडा कर दिया है ? "  ---- निर्मला अरोरा .
                                                             *            *                   *
वैभवों को भोगते वे ही यहा,
जो यहाँ सन्मार्ग पर न चले कभी ।----- शकुन्तला माथुर .
 
और भी--- 
अमरीका में हमको आये, अपने ऊपर हांसी।
भारत में हम साहब थे, अमरीका में चपरासी।
अमरीका है ऐसा लड्डू , जो भी इसको खाए ,
खाए सो पछताए और न खाए सो पछताए।
    ---- देवेन्द्र नारायण शुक्ल .
                       *          *                 *
और तू कितना सोयेगा हिंद,  
हो गई आधी रात अब तो जाग।  -----देवेन्द्र नारायण शुक्ल .
 
         परिचय में यद्यपि लेखिका ने अमेरिका की प्राकृतिक सुषमा, भौतिक-सौन्दर्य, वैज्ञानिक प्रगति, समृद्धि व एश्वर्य का सांगोपांग वर्णन किया है जो वास्तव में व्यक्ति को दूर-दूर से खींच लाती है; परन्तु साथ में ही ...." नंदन कानन के सौन्दर्य .....", " कैसर बाग़ के इमली के पेड़ ....", कभी ऐसा ही था मेरा लखनऊ ...."  की याद तथा यहाँ अमेरिका में  "..बड़े अपनत्व से हाय हेलो! कहकर आपका मन जीत लेंगे , बस इतना ही , आगे फुल स्टाप। "  एवं   " भारत में जीवन की कठिनाइयों पर जोरों शोरों से विवाद, आध्यात्मिक चर्चा, गली मुहल्लों की गप-शप, - वयस्कों व वृद्धों के समय काटने के अच्छे साधन हैं। पर अमेरिका में क्या करें ?......"   कहकर समृद्धि व ऐश्वर्य की चमक धमक के पीछे जीवन के भयावह खोखलेपन के सत्य को भी उजागर किया है। कवि अंतर्मन निष्पक्ष होता है।

            
पशु -पक्षी के तरह सुबह-सुबह निकल जाना,और देर शाम को अपने अपने कोटरों में लौट आना ही जीवन है तो सारे ऐश्वर्य का क्या ऐसे में अपने देश के सुगंध बरबस याद आती ही है। यही भाव इस पुस्तक की आत्मा है। सबका मिलकर त्यौहार मनाना, होली, दिवाली, ईद व क्रिसमस भी; यही आत्मीयता .. " वसुधैव कुटुम्बकम " भारत हैजो कहीं नहीं है। सचमुच- सुदूर में भारत को जीवित रखना एक पुनीत कर्म हैहाँ यह स्पष्ट नहीं होता कि अमेरिकी भी उसी जोश से होली दिवाली, ईद मनाते हैं या नहीं ?

           
अभिव्यक्ति, काव्य प्रतिभा, या प्रतिभा किसी देश, काल, जाति, धर्म , व्यवसाय , उम्र व भाषा के मोहताज़ नहीं होती। यह सिद्ध किया है प्रस्तुत पुस्तक में लेखिका डा ऊषा गुप्ता ने; जिसमें अमेरिका स्थित प्रवासी भारतीयों के काव्य प्रतिभा, उनके भारत व अमेरिका के बारे में विचार के साथ साथ वहां हिन्दी के प्रचार प्रसार व भारतीय संस्कृति को जीवित रखने के प्रयासों को भी भारतीयों व विश्व के सम्मुख रखने का प्रयत्न किया है| यह एक महत्वपूर्ण बात है। प्रवासी भारतीयों के हिन्दी प्रेम, कृतित्व, काव्यानुभूति के विषद वर्णन के लिए वे विशेषतः बधाई के पात्र हैं। प्रस्तुत पुस्तक भारतीय व विश्व काव्यजगत में , विश्व साहित्य क़ी एक धारा के भांति प्रवाहित होकर अपना स्थान बनायेगी एवं प्रेरणा स्रोत होगी, ऐसा मेरा मानना है।

           
एक महत्व पूर्ण बात और है कि लगभग सभी कवियों ने छायावादी गीतों से लेकर अगीत विधा तक समान रूप से लिखा है। सभी गीत, अगीत, गद्य - पद्य सभी विधाओं में समान रूप से रचनारत हैं। विधाओं का कोई टकराव नहीं है । यह  "अतीत से जुड़ाव व प्रगति से लगाव " ही प्रगति का लक्षण है। समस्त कवि, कहानीकार, लेखक एवं प्रस्तुत कृति की लेखिका डा ऊषा गुप्ता जी बधाई की पात्र हैं।



Tuesday 15 May 2012

कविवर डी तन्गवेलन की हिन्दी कविता --मातृत्व की महक ... डा श्याम गुप्त


                 
          
                                      चित्तूर, आंध्रप्रदेश में जन्मे, तमिल भाषी ' बेंगलूर में कर्नाटक हिन्दी प्रचार समिति, में कार्यरत, प्रबंध व परिक्षा मंत्री (मानद)- कविवर श्री डी तन्गवेलन ' सहृदय'  ने बनारस हिन्दू वि वि , वाराणसी से एम ए (हिन्दी ) किया| वे तमिल, तेलगू .कन्नड़, हिन्दी व अंग्रेज़ी में नाटक, निबंध  लिखते थे| आपने ८१ वर्ष की उम्र में कविता लिखना प्रारम्भ किया और अपने ८१ वें जन्म दिन पर ८१ कविताओं का संग्रह 'जीवन-शोध' प्रकाशित किया |यह काव्य-संग्रह मुझे सौभाग्य से अपने उपन्यास 'इन्द्रधनुष' के लोकार्पण समारोह पर मेरे सम्मानार्थ प्रदत्त साहित्य के साथ  प्राप्त हुआ।  जीवन के सत्य से अनुप्राणित आपकी कवितायें सामान्य भाषा व उक्तियों में सशक्त अन्योक्तियों के माध्यम से व्यंजना गुण युक्त महत्वपूर्ण  सामाजिक सन्देश प्रसारित करती हैं । संस्कृत-निष्ठ हिन्दी, तमिल-तेलगू निष्ठ स्वर-भाष व अगीत काव्य की भांति अतुकांत गीत-बंद युक्त छंद  इसकी विशेषता है |   एक कविता 'मातृत्व की महक' प्रस्तुत है| ।
गमले के खिले गुलाब ने चलते
कविवर डी तंगवेलन 'सहृदय'
चंचल पवन से भरते अठखेलियाँ ,
अपने गमले की बंदी मिटते से,
सहज कुतूहलवश प्रश्न किया|
'क्या तुझे पास की मिट्टी से
 मिलजुल कर  सदा मोद  से,
मन  बहलाने की मह्दिच्छा मधुर 
कभी न मचली अंतराल से ।'
गमले की मिट्टी ने हंसकर कहा,
'क्यों नहीं होती ! रहती हर दम 
मैं अपने इर्द-गिर्द की सखियों से 
हिले-मिले मन फूले रहती ।
अब भी है मन होता, गले मिलूँ 
मगर मैं ने अपना घर अलग
बसालिया, जो मेरा बहु प्यारा
मानों, मन इससे चिपक गया ।
मेरी थी एक अदम्य कामना
मेरा स्तन्य पीता बालक
घुटनों के बल चलें इस आँगन में ,
दिन रात की मांग, भगवान से ।
मेरे इस सपने को चरितार्थ
करने तू आया आँगन में ।
जन्म देकर तुझे, मैं धन्य हुई,
सार्थक मेरा यह जन्म हुआ ।
कहता जिसे तू बंधन, वह है
वास्तव में मेरा सौभाग्य ,
जो करता स्वर्ग का अवहेलन
है मुक्ति को दूर से सलाम ।'
सुन मातृहृदय का उमडा उद्गार
स्नेह स्निग्ध कामना मंगल ,
फूल खिला, मिला जगत को सुगंध
अनन्य अन्वय अलंकार ।।

Friday 27 April 2012

महाकवि डा श्याम गुप्त मेरी नज़र में.... पार्थो सेन

डा श्याम गुप्त
  पार्थो सेन -लेखक

                    सृजन साहित्यिक एवं सांस्कृतिक संस्था अपने तृतीय वार्षिकोत्सव पर सुप्रसिद्ध शल्य-चिकित्सक एवं समानांतर रूप से साहित्य जगत के वरिष्ठ कवि, लेखक, समीक्षक डॉ श्याम  गुप्त जी को  " सृजन साधना (वरिष्ठ रचनाकार) सम्मान " से विभूषित कर गौरवान्वित है , अतः आज उनके व्यक्तित्व व कृतित्व पर चर्चा स्वाभाविक है।
                    व्यक्तित्व व कृतित्व एक सिक्के के ही दो पहलू हैं। यहाँ यह कहना अनुचित नहीं होगा की कृतित्व ही व्यक्तित्व को ऊंचा करने में सहायक होता है।आज हम जिन्हें महापुरुषों के रूप में सम्मान करते हैं उनके कर्मों ने ही उन्हें  महान  बनाया है जो उनका व्यक्तित्व होगया ।
                      डा श्याम बाबू गुप्त जी ने विधिवत पदार्पण  २००४ में अपनी प्रथम कृति " काव्यदूत "से किया।और अब तक उनकी छः कृतियाँ प्रकाशित होकर प्रशंसित चुकी हैं । यहाँ विस्तार से हम उनके योगदान की चर्चा करना आवश्यक समझते हैं ।
                      आपका जन्म १० नवम्बर, १९४४ ई .को ग्राम मिढाकुर जिला आगरा में हुआ। आपके पिता श्री जगन्नाथ प्रसाद गुप्त व माता का नाम श्रीमती राम भेजी देवी था। दोनों ही संस्कारित व धर्मपारायण थे  जिसका प्रभाव डा गुप्त के जीवन एवं साहित्य पर स्पष्ट रूप से झलकता है। अप चार भाई-बहन के मध्य पाले-बढे और सफलता आपको पग पग पर मिलती रही।
                      साहित्य क्षेत्र में पदार्पण का कोई कारण या संयोग होता है जहां से व्यक्ति उस क्षेत्र में शनैः शनैः अग्रसर होता है। एसा ही कुछ आपके साथ भी हुआ। १९६० ई. में कक्षा आठ के विद्यार्थी के रूप में इनके सहपाठी श्री राम कुमार अग्रवाल कवितायें लिखते थे और इन्हें दिखाते थे, बस यहीं से इनके ह्रदय में भी परिवर्तन आया और आप कलम के साधक बन गए। यहाँ यह सत्य ही है की आप पहले साहित्य के क्षेत्र में आये और तत्पश्चात शल्य-चिकित्सा के जगत में । चूंकि शल्य-चिकित्सा  आपकी जीविका रही अतः यह आवश्यक था कि वे उसका निर्वाह करते। अतः सन २००४ ई. में सेवा निवृत्त होते ही उन्होंने अपनी कृति 'काव्य-दूत ' को हम सबके समक्ष प्रस्तुत कर दिया । प्रथम कृति 'काव्य-दूत' २००४ में आयी, इसमें तुकांत व अतुकांत रचनाओं के विविधता लिए हुए संग्रह है।जिसे अपनी जीवन संगिनी श्रीमती सुषमा गुप्ता को समर्पित किया है ।एक कवितांश देखिये....
               मन के अंतर्द्वंद्व से 
               यह विचार उभर कर आया 
               चेतना ने,
               जीवन की कविता लिखने को सुझाया ।
                                   दूसरी कृति "काव्य-निर्झरिणी " २००५ में गे गीतों का संग्रह है । जिसमें नीति, शिक्षा ,धर्म, अध्यात्म, विज्ञान, दर्शन , संस्कृति आदि सभी निहित हैं ।सरल भाषा में रचित यह संग्रह आपने अपने मात-पिता को समर्पित किया है। दो पंक्तियाँ देखिये----
               कविता वह है जो रहे, सुन्दर सरल, सुबोध।
               जन मानस को कर सके हर्षित, प्रखर, प्रबोध ।।

                                    आपकी तीसरी कृति " काव्य-मुक्तामृत" भी २००५ में प्रकाशित हुई जो अतुकांत गीतों का संग्रह है ।मूल रूप से रचनाएँ मर्यादा, नैतिकता, आचरण-शुचिता पर आधारित हैं।इस कृति को आपने अपने अग्रज डा राम बाबू गुप्ता को समर्पित किया है। कवी स्वयं की समीक्षा करते हुए लिखता है----
                कवि को भरना होता है,
                गागर में सागर ।
                तब कविता होजाती है मुक्त,
                छंद से, छंद भाव-जाल से ,
                बन जाती है,
                मुक्त-छंद कविता ।   
                                      
                                    आपकी चतुर्थ कृति नवीनता लिए हुए २००६ ई. में "सृष्टि " शीर्षक से आयी ।जिसमें सृष्टि व ब्रह्माण्ड को नायक का रूप देकर  अगीत विधा में महाकाव्य की रचना कर हिन्दी साहित्य जगत एवं  अगीत विधा के उन्नयन का एक  सराहनीय कार्य किया है । यह कृति बेटी और दामाद को समर्पित है । एक उदाहरण देखें ...
                  " निज को जग को जानेंगे,
                   समता भाव तभी मानेंगे।
                   तब नर, नर से करे समन्वय,
                   आपस के भावों का अन्वय ।
                                                     ........."
                     
                                    २००७ में आपकी पांचवी कृति " प्रेम-काव्य"   प्रकाशित हुई , जिसमें नायक व नायिका अमूर्त भाव ..प्रेम.. ही है । जो गीतों व छंदों में रचित महाकाव्य है और प्रेम की प्रेरणादायिनी राधाजे को समर्पित है। यह बहुचर्चित कृति रही । एक उदाहरण प्रस्तुत है...

                  सर्जनाएं , वर्जनाएं 
                  नीति की सब व्यंजनायें ।
                  मंद करलो निज स्वरों को,
                  प्रीति स्वर जब गुनुगुनाएं ।।
                                    आपकी छटी पुस्तक  " शूर्पणखा" अगीत -विधा में खंड काव्य है जिसे कवि ने 'काव्य-उपन्यास ' की संज्ञा देकर हिन्दी साहित्य जगत को एक नया सन्देश दिया है । इसमें मानवीय आचरण -शुचिता, अनाचार,पुरुष-नारी -समाज व धर्म पर चर्चा की गयी है । इस कृति को अपने पिता व राष्ट्र-पिता महात्मा गांधी जी दोनों को ही  समर्पित किया गया है ।एक उदाहरण है---
                  " विदुषी शिक्षित और साक्षर ,
                   नारी ही आधार है सदा,
                  हर समाज की नर जीवन की ......" 
इन सभी कृतियों की समीक्षाएं प्रमुख दैनिक व साप्ताहिक पत्रों --दैनिक जागरण ...अगीतायन आदि में प्रकाशित हुईं । कृतियों के शीर्षक स्वयं  एक आदर्श प्रस्तुत करते हैं वैसी ही विषय-वस्तु व सामग्री है। अतः वे निसंदेह ही एक सिद्धहस्त महाकवि हैं ।
                  कृतियों के सृजन के साथ साथ वे ब्लॉग जगत से भी जुड़े हैं एवं विविधब्लॉग  मंचों से विशिष्ट सम्मान भी प्राप्त किये । परिमार्जित हिन्दी  के अतिरिक्त आपने  बृजभाषा में भी कवितायें लिखी हैं ।एक काव्यांश देखिये....
             ''साँचु न्याय व्रत नेमु धरम 
             अब काहू कों न सुहावै ,
             कारे धन की खूब कमाई ,
             पाछे सब जग धावै ।" 

                           हिन्दी के अतिरिक्त डा श्याम गुप्त अंगरेजी में भी कविता लिखते हैं । चार पंक्तियाँ देखें...

           " There was darkness in life,
             And life was a great strife.
             Someone brought the ray of hope,
         And filled the heart with light ."
                                         
                                     कविता के अध्याय के पश्चात 'संतुलित कहानी कार' के रूप में भी आपका परिचय देना आवश्यक है । मूलतः आप संतुलित तथा लघु कहानियां लिखते हैं....खरगोश के जोड़े की कहानी, विकृति की जड़-जो माँ-बाप व बच्चों के संस्कार पर आधारित है...भव-चक्र -वृद्धों की  स्थिति से परिचित कराती है...पाठकों द्वारा सराहे गएँ हैं। आपकी अब तक लगभग बाईस कहानियां प्रकाशित होचुकी हैं।
                                     आपसे साहित्य का कोइ अंग छूटा नहीं  है ।  आप 'संघात्मक समीक्षा पद्धति' से भी  जुड़े हैं । स्नेह-प्रभा जी की " कर्म-बीर " मधु त्रिपाठी जी की "मधु -माधुरी " व डा ऊषा गुप्ता की " अमेरिकी प्रवासी भारतीय कवि "  की समीक्षाएं आपकी प्रशंसित समीक्षाएं हैं। जो अन्य समीक्षकों को दिशा भी  प्रदान करती हैं । समय समय पर आप अन्य लेखकों की रचनाओं पर शुभाशंसाएँ भी देते है । जिनमें में श्री अजित कुमार वर्मा के  व्यंग्य लेखों के संग्रह " मैं गधा हूँ " प्रमुख  है।



                                     इस प्रकार बाईस कहानियाँ, पचास से अधिक आलेख , छः कृतियों के प्रकाशन के अतुरिक्त लगभग आठ अप्रकाशित कृतियाँ भी आपकी उपलब्धि के अंग हैं ।आपको कई साहित्यिक मंचों , ब्लॉग मंचों से सामान प्राप्त हुआ है। आपकी साहित्य यात्रा इसी प्रकार गतिमान रहे इसी मंगलकामना के साथ में डा श्याम गप्त के कृतित्व व व्यक्तित्व को नमन करता हूं एवं सम्मानार्थ बधाई देता हूँ । 

                                                                          -----  पार्थो सेन 
                                                                                   सन्योजक, अ.भा.अगीत परिषद  एवं
                                                                                   सृजन संस्था वार्षिक समारोह समिति 
                                                                                    लखनऊ                 







Wednesday 25 April 2012

डा रंगनाथ मिश्र 'सत्य' के चार अगीत....डा श्याम गुप्त



                          
                हिन्दी कविता में  अगीत विधा  के संस्थापक... कवि डा रंगनाथ मिश्र 'सत्य' के..सामाजिक सरोकार युक्त ... चार अगीत....  
           १.
जीवन में जो कुछ भी 
आज होगया घटित,
कल भी वैसा होगा 
एसा मत सोचो;
ओ मेरे विश्वासी मन
जो कुछ भी है प्राप्त हुआ
उसमें संतोष करो;
यही तो नियति है सबकी 
इस पर विश्वास करो ......।
            २.
नवल वर्ष आया है 
आओ स्वागत करलें ....
नूतन अभियान करें 
सबका सम्मान करें ;
आगे बढ़ने का भी
कुछ तो अब ध्यान करें;
पीछे जो छूट गया
उसको अब जाने दें ,
स्वागत आओ मिलकर
आगत का भी करलें ।
            ३.
आओ संघर्षों को दूर करें .....
जो दुःख मिलते हैं 
उनको स्वीकार करें....
सुख के दिन आयेंगे
उनको जीना सीखें....
सुख में इतराए  मत
दुःख में घबराये मत 
मन की पीडाएं  काफूर करें .....। 
            ४.
जन जन की पीड़ा को...
दूर करें ..।
सोये कोई यहाँ न भूखा 
इसका भी ध्यान हमें
रखना है,
कोई भी रह न सके प्यासा
इसका अभियान हमें
 करना है ,
तन मन की विपदा को 
चूर करें ..... ।

अगीत कवि कुल गुरु –डा रंगनाथ मिश्र ’सत्य’ व अगीत कविता---एक अवलोकन

        
अगीत कवि कुल गुरु –डा रंगनाथ मिश्र ’सत्य’ व अगीत कविता---एक अवलोकन
                     ( डा श्याम गुप्त )

 अगीत गुरु एवं अगीत कविता के कुल-गुरु, हिन्दी साहित्य व कविता में नये युग अगीत युग के सूत्रधार ,हिन्दी के समर्थ कवि व निष्ठावान साहित्यकार –डा रंगनाथ मिश्र” सत्य’ के शिष्य व शिष्याएं, समर्थक, प्रशन्सक व शुभेच्छु, लखनऊ व सारे देश में ही नहीं अपितु विश्व भर में फ़ैल चुके हैं एवं उनकी जगाई हुई अलख तथा स्थापित कविता विधा ’अगीत’ के प्रसार में संलग्न हैं, जो हिन्दी साहित्य में उच्च आदर्शों व मानदन्डों की स्थापना को कटिबद्ध है ।
 महाकवि जायसी व युगप्रवर्तक महावीर प्रसाद द्विवेदी की जन्मस्थली जनपद रायबरेली के ग्राम कुर्री सुदौली में जन्मे व साहित्यकारों की उर्वरा भूमि लखनऊ में स्थापित, लखनऊ वि विद्यालय से  एम ए, पी एच डी , ’अगीत’ के सूत्रधार डा रंगनाथ मिश्र ’सत्य’ एक जुझारू व्यक्तित्व का नाम है जो अपने सरल, उदारमना व्यक्तित्व, सबको साथ लेकर चलने वाले समर्थ साहित्यकार के रूप में हिन्दी जगत में विख्यात हैं ।
यद्यपि कविता की मूलधारा वैदिक युग से ही अतुकान्त-विधा रही, परन्तु हिन्दी में अतुकान्त कविता की विधिवत स्थापना निराला जी ने की। निरालायुग की अतुकान्त कवितायें लम्बे वर्णानात्मक, यथार्थ व पौराणिक विषयों पर आधारित थीं। उससे आगे आधुनिक युग की सामयिक आवश्यकता-संक्षिप्तता,सरलता,रुचिकरता, तीब्र-भावसंप्रेषणता, यथार्थता के साथ साथ सामाजिक-सरोकारों का उचित समाधा्न-प्रदर्शन हेतु “अगीत कविता” की स्थापना हुई, जिसका प्रवर्तन -’लीक छांडि तीनों चलें शायर, सिन्ह, सपूत’- वाले अंदाज १९६६ ई. में में डा सत्य ने’ अखिल भा. अगीत परिषद, लखनऊ’ की स्थापना करके किया। तब से यह युगानुकूल विधा अगणित कवियों, साहित्यकारों द्वारा रचित कविताओं, काव्य-संग्रहों, खंड-काव्यों, महाकाव्यों व विभिन्न अगीत-छंदों के अवतरण से निरन्तर समृद्धि -शिखर की ओर प्रयाणरत है जो निश्चय ही हिन्दी भाषा, साहित्य व कविता एवं छंदशास्त्र के इतिहास व विकास की अग्रगामी ध्वज व पताकाएं हैं।
 अनेकों काव्य-ग्रंथों की रचना व संपादन के साथ ही डा सत्य ने १९७५ ई. में “संतुलित कहानी” एवं १९९८ई. में हिन्दी समीक्षा क्षेत्र में “संघात्मक समीक्षा “ पद्दति की स्थापना की। उनकी कर्मठता, लगन, धैर्य पूर्ण सेवा व परिश्रम के फ़लस्वरूप उन्हें देश भर में विभिन्न पुरस्कार व सम्मान प्रात हुए। उनके प्रशन्सकों ने उनके जन्मदिन, १ मार्च को ’साहित्यकार दिवस” के रूप में मनाना प्रारम्भ कर दिया। नगर की विभिन्न साहित्यिक संस्थाओंने उनके संयोजकत्व में व अ.भा.अगीत परिषद के सह-तत्वावधान में गोष्ठियां, कवि-मेले व कवि-कुंभ आदि आयोजित करने प्रारम्भ कर दिये। एसे व्यक्तित्व को यदि अगीत कविकुल्गुरु की उपधि से पुकारा जाय तो अतिशयोक्ति नहीं होगी।  जब सत्य जी कहते हैं----
 “आंखों को चित्र भागया,                         तथा        “अहंकार मन से दूर करें हम
  बाधाएं एक नहीं हज़ारों                                 जीवन में समरसता लायें
 आशाएं कर रहीं श्रंगार।“                                                                 प्रगति पंथ पर बढते जायें                        
                                                  मन में विश्वास हो,नूतन उत्साह हो
                                                  संघर्षों को मिलकर दूर करें।“
                             
                            

                                   
                                      

  तो विश्वास सामाजिकता समरसता, नवीन के प्रति उनकी ललक, उत्साह व संघर्षप्रियता के दर्शन होते हैं। जब वे गाते हैं---              “मत जीना बुखार सी ज़िन्दगी,
             सुख दुख में मस्त रहो
              सबका सम्मान करो
             मत करना उधार की ज़िन्दगी।“ --   तो वे अलमस्त, विन्दास, परंतु शान से, बिना किसी दबाव में झुके, बाधाओं से निपटते हुए नज़र आते हैं तथा कवियॊं को भी एक उचित उद्देश्यपूर्ण राह दिखाते हैं।
“आओ राष्ट्र को जगाएं…..”  व “ देवनागरी को अपनाएं…..”आदि अगीतों में  डा सत्य का कवि-मन राष्ट्रीय भावना व हिन्दी के प्रति दीवानगी प्रदर्शन के साथ ही हिन्दी जनमानस व कवियों को भी संबल प्रदान करता है। “ अप्प दीपो भव “ की भांति सत्य जी ने अपना रास्ता स्वयं ही बनाया है एवं जन-मानस व नवीन कवियों को भी उन्होंने दीपक की भांति ग्यान से प्रकाशित किया है और यही संदेश वे--
 “ चलना ही नियति हमारी है,
  जलना ही प्रगति हमारी है……..” अगीत गाकर सभी को देते हैं। “ उदार चेतां तु वसुधैव कुटुम्बकं” पर चलने वाले सत्य जी, सबको साथ लेकर चलने में विश्वास रखते हैं। नव-साहित्यकारों या अन्य को हेय द्रष्टि से देखने-समझने वाले मठाधीशों को वे स्पष्ट उत्तर देते हैं---

“शब्दहीन कौन है यहां
पुलकित हैं सभी यहां आज
परिचित है सभी से समाज
फ़ैल रही मधु भरी किरन
गंधहीन कौन है यहां…..”  ------- ’सत्य जी का स्वयं का क्या योगदान है”, ’अगीत का भविष्य क्या है” आदि आदि व्यर्थ आलोचना करने वालों को ललकार कर जबाव देते हुए वे कहते हैं ---
“दिशाहीन नहीं हूं अभी
पाई है केवल बदनामी
खोज रहे हैं मुझको मेरे प्रेरक सपने
मिलनातुर हैं मुझसे मेरे अपने
क्रियाहीन नहीं हूं अभी
यह तो है जग की नादानी ।“
      एसे कर्मठ, आशावादी,सरल ह्रदय साहित्यकार, पथप्रदर्शक व युगप्रवर्तक डा सत्य ’चरैवैति चरैवैति’ की भांति प्रगति-दीप हाथ में लेकर प्रगतिपथ पर चलते ही जारहे हैं एवं चलते ही रहें एसी मेरी आकांक्षा, आशा व विश्वास है ।



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Monday 9 April 2012

दो अगीत.... डा श्याम गुप्त...


  अर्थ  

अर्थस्वयं ही एक अनर्थ है;
मन में भय  चिंता  भ्रम की -
उत्पत्ति में समर्थ है |
इसकी  प्राप्ति, रक्षण एवं उपयोग में भी ,
करना पडता है कठोर श्रम ;
आज है, कल होगा या होगा नष्ट-
इसका नहीं है कोई निश्चित क्रम |
अर्थ, मानव के पतन में समर्थ है ,
फिर भी, जीवन के -
सभी अर्थों का अर्थ है ||


अर्थ-हीन अर्थ 

अर्थहीन  सब अर्थ होगये ,
तुम जबसे राहों में खोये
शब्द  छंद  रस व्यर्थ होगये,
जब  से तुम्हें भुलाया मैंने |
मैंने  तुमको भुला दिया है ,
यह  तो -कलम यूंही कह बैठी ;
कल  जब तुम स्वप्नों में आकर ,
नयनों  में आंसू भर लाये ;
छलक  उठी थी स्याही मन की |

Friday 6 April 2012

अखिल भारतीय अगीत परिषद् की मासिक कवि-गोष्ठी .....डा श्याम गुप्त

अखिल भारतीय अगीत परिषद् की मासिक कवि-गोष्ठी सम्पन्न --
 १९६६ से लगातार बिना गत्यावरोध के होती चली आरही यह गोष्ठी  डॉ रंगनाथ मिश्र सत्य के आवास 'अगीतायन, ई-३८८५,राजाजी पुरम, लखनऊ पर माह के  प्रत्येक चतुर्थ रविवार को संपन्न होती है।