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Wednesday 25 April 2012

अगीत कवि कुल गुरु –डा रंगनाथ मिश्र ’सत्य’ व अगीत कविता---एक अवलोकन

        
अगीत कवि कुल गुरु –डा रंगनाथ मिश्र ’सत्य’ व अगीत कविता---एक अवलोकन
                     ( डा श्याम गुप्त )

 अगीत गुरु एवं अगीत कविता के कुल-गुरु, हिन्दी साहित्य व कविता में नये युग अगीत युग के सूत्रधार ,हिन्दी के समर्थ कवि व निष्ठावान साहित्यकार –डा रंगनाथ मिश्र” सत्य’ के शिष्य व शिष्याएं, समर्थक, प्रशन्सक व शुभेच्छु, लखनऊ व सारे देश में ही नहीं अपितु विश्व भर में फ़ैल चुके हैं एवं उनकी जगाई हुई अलख तथा स्थापित कविता विधा ’अगीत’ के प्रसार में संलग्न हैं, जो हिन्दी साहित्य में उच्च आदर्शों व मानदन्डों की स्थापना को कटिबद्ध है ।
 महाकवि जायसी व युगप्रवर्तक महावीर प्रसाद द्विवेदी की जन्मस्थली जनपद रायबरेली के ग्राम कुर्री सुदौली में जन्मे व साहित्यकारों की उर्वरा भूमि लखनऊ में स्थापित, लखनऊ वि विद्यालय से  एम ए, पी एच डी , ’अगीत’ के सूत्रधार डा रंगनाथ मिश्र ’सत्य’ एक जुझारू व्यक्तित्व का नाम है जो अपने सरल, उदारमना व्यक्तित्व, सबको साथ लेकर चलने वाले समर्थ साहित्यकार के रूप में हिन्दी जगत में विख्यात हैं ।
यद्यपि कविता की मूलधारा वैदिक युग से ही अतुकान्त-विधा रही, परन्तु हिन्दी में अतुकान्त कविता की विधिवत स्थापना निराला जी ने की। निरालायुग की अतुकान्त कवितायें लम्बे वर्णानात्मक, यथार्थ व पौराणिक विषयों पर आधारित थीं। उससे आगे आधुनिक युग की सामयिक आवश्यकता-संक्षिप्तता,सरलता,रुचिकरता, तीब्र-भावसंप्रेषणता, यथार्थता के साथ साथ सामाजिक-सरोकारों का उचित समाधा्न-प्रदर्शन हेतु “अगीत कविता” की स्थापना हुई, जिसका प्रवर्तन -’लीक छांडि तीनों चलें शायर, सिन्ह, सपूत’- वाले अंदाज १९६६ ई. में में डा सत्य ने’ अखिल भा. अगीत परिषद, लखनऊ’ की स्थापना करके किया। तब से यह युगानुकूल विधा अगणित कवियों, साहित्यकारों द्वारा रचित कविताओं, काव्य-संग्रहों, खंड-काव्यों, महाकाव्यों व विभिन्न अगीत-छंदों के अवतरण से निरन्तर समृद्धि -शिखर की ओर प्रयाणरत है जो निश्चय ही हिन्दी भाषा, साहित्य व कविता एवं छंदशास्त्र के इतिहास व विकास की अग्रगामी ध्वज व पताकाएं हैं।
 अनेकों काव्य-ग्रंथों की रचना व संपादन के साथ ही डा सत्य ने १९७५ ई. में “संतुलित कहानी” एवं १९९८ई. में हिन्दी समीक्षा क्षेत्र में “संघात्मक समीक्षा “ पद्दति की स्थापना की। उनकी कर्मठता, लगन, धैर्य पूर्ण सेवा व परिश्रम के फ़लस्वरूप उन्हें देश भर में विभिन्न पुरस्कार व सम्मान प्रात हुए। उनके प्रशन्सकों ने उनके जन्मदिन, १ मार्च को ’साहित्यकार दिवस” के रूप में मनाना प्रारम्भ कर दिया। नगर की विभिन्न साहित्यिक संस्थाओंने उनके संयोजकत्व में व अ.भा.अगीत परिषद के सह-तत्वावधान में गोष्ठियां, कवि-मेले व कवि-कुंभ आदि आयोजित करने प्रारम्भ कर दिये। एसे व्यक्तित्व को यदि अगीत कविकुल्गुरु की उपधि से पुकारा जाय तो अतिशयोक्ति नहीं होगी।  जब सत्य जी कहते हैं----
 “आंखों को चित्र भागया,                         तथा        “अहंकार मन से दूर करें हम
  बाधाएं एक नहीं हज़ारों                                 जीवन में समरसता लायें
 आशाएं कर रहीं श्रंगार।“                                                                 प्रगति पंथ पर बढते जायें                        
                                                  मन में विश्वास हो,नूतन उत्साह हो
                                                  संघर्षों को मिलकर दूर करें।“
                             
                            

                                   
                                      

  तो विश्वास सामाजिकता समरसता, नवीन के प्रति उनकी ललक, उत्साह व संघर्षप्रियता के दर्शन होते हैं। जब वे गाते हैं---              “मत जीना बुखार सी ज़िन्दगी,
             सुख दुख में मस्त रहो
              सबका सम्मान करो
             मत करना उधार की ज़िन्दगी।“ --   तो वे अलमस्त, विन्दास, परंतु शान से, बिना किसी दबाव में झुके, बाधाओं से निपटते हुए नज़र आते हैं तथा कवियॊं को भी एक उचित उद्देश्यपूर्ण राह दिखाते हैं।
“आओ राष्ट्र को जगाएं…..”  व “ देवनागरी को अपनाएं…..”आदि अगीतों में  डा सत्य का कवि-मन राष्ट्रीय भावना व हिन्दी के प्रति दीवानगी प्रदर्शन के साथ ही हिन्दी जनमानस व कवियों को भी संबल प्रदान करता है। “ अप्प दीपो भव “ की भांति सत्य जी ने अपना रास्ता स्वयं ही बनाया है एवं जन-मानस व नवीन कवियों को भी उन्होंने दीपक की भांति ग्यान से प्रकाशित किया है और यही संदेश वे--
 “ चलना ही नियति हमारी है,
  जलना ही प्रगति हमारी है……..” अगीत गाकर सभी को देते हैं। “ उदार चेतां तु वसुधैव कुटुम्बकं” पर चलने वाले सत्य जी, सबको साथ लेकर चलने में विश्वास रखते हैं। नव-साहित्यकारों या अन्य को हेय द्रष्टि से देखने-समझने वाले मठाधीशों को वे स्पष्ट उत्तर देते हैं---

“शब्दहीन कौन है यहां
पुलकित हैं सभी यहां आज
परिचित है सभी से समाज
फ़ैल रही मधु भरी किरन
गंधहीन कौन है यहां…..”  ------- ’सत्य जी का स्वयं का क्या योगदान है”, ’अगीत का भविष्य क्या है” आदि आदि व्यर्थ आलोचना करने वालों को ललकार कर जबाव देते हुए वे कहते हैं ---
“दिशाहीन नहीं हूं अभी
पाई है केवल बदनामी
खोज रहे हैं मुझको मेरे प्रेरक सपने
मिलनातुर हैं मुझसे मेरे अपने
क्रियाहीन नहीं हूं अभी
यह तो है जग की नादानी ।“
      एसे कर्मठ, आशावादी,सरल ह्रदय साहित्यकार, पथप्रदर्शक व युगप्रवर्तक डा सत्य ’चरैवैति चरैवैति’ की भांति प्रगति-दीप हाथ में लेकर प्रगतिपथ पर चलते ही जारहे हैं एवं चलते ही रहें एसी मेरी आकांक्षा, आशा व विश्वास है ।



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Monday 9 April 2012

दो अगीत.... डा श्याम गुप्त...


  अर्थ  

अर्थस्वयं ही एक अनर्थ है;
मन में भय  चिंता  भ्रम की -
उत्पत्ति में समर्थ है |
इसकी  प्राप्ति, रक्षण एवं उपयोग में भी ,
करना पडता है कठोर श्रम ;
आज है, कल होगा या होगा नष्ट-
इसका नहीं है कोई निश्चित क्रम |
अर्थ, मानव के पतन में समर्थ है ,
फिर भी, जीवन के -
सभी अर्थों का अर्थ है ||


अर्थ-हीन अर्थ 

अर्थहीन  सब अर्थ होगये ,
तुम जबसे राहों में खोये
शब्द  छंद  रस व्यर्थ होगये,
जब  से तुम्हें भुलाया मैंने |
मैंने  तुमको भुला दिया है ,
यह  तो -कलम यूंही कह बैठी ;
कल  जब तुम स्वप्नों में आकर ,
नयनों  में आंसू भर लाये ;
छलक  उठी थी स्याही मन की |

Friday 6 April 2012

अखिल भारतीय अगीत परिषद् की मासिक कवि-गोष्ठी .....डा श्याम गुप्त

अखिल भारतीय अगीत परिषद् की मासिक कवि-गोष्ठी सम्पन्न --
 १९६६ से लगातार बिना गत्यावरोध के होती चली आरही यह गोष्ठी  डॉ रंगनाथ मिश्र सत्य के आवास 'अगीतायन, ई-३८८५,राजाजी पुरम, लखनऊ पर माह के  प्रत्येक चतुर्थ रविवार को संपन्न होती है।

Saturday 31 March 2012

हिन्दी साहित्य की विकास यात्रा--निराला युग से आगे-"अगीत।"


             कविता, पूर्व-वेदिकयुग, वैदिक युग, पश्च-वेदिक व पौराणिक काल में वस्तुतः मुक्त-छन्द ही थी। वह ब्रह्म की भांति स्वच्छंद व बन्धन मुक्त ही थी। आन्चलिक गीतों, रिचाओं, छन्दों, श्लोकों व विश्व भर की भाषाओं में अतुकान्त छन्द काव्य आज भी विद्यमान है। कालान्तर में मानव-सुविधा स्वभाव वश, चित्र प्रियता वश, ज्ञानाडम्बर, सुखानुभूति-प्रीति हित; सन्स्थाओं, दरवारों, मन्दिरों, बन्द कमरों में काव्य-प्रयोजन हेतु, कविता छन्द-शास्त्र व अलन्करणों के बन्धन में बंधती गई तथा उसका वही रूप प्रचलित व सार्वभौम होता गया। इस प्रकार वन-उपवन में स्वच्छंद विहार करने वाली कविता-कोकिला, वाटिकाओं, गमलों, क्यारियों में सजे पुष्पों पर मंडराने वाले भ्रमर व तितली होकर रह गयी। वह प्रतिभा प्रदर्शन व गुरु गौरव के बोध से, नियन्त्रण व अनुशासन से बोझिल होती गयी, और स्वाभाविक , ह्रदय स्पर्शी, स्वभूत, निरपेक्ष कविता; विद्वतापूर्ण व सापेक्ष काव्य में परिवर्तित होती गयी, साथ ही देश, समाज़, राष्ट्र, जाति भी बन्धनों में बंधते गये। स्वतन्त्रता पूर्व की कविता यद्यपि सार्व भौम प्रभाव वश छन्दमय ही है तथापि उसमें देश, समाज़, राष्ट्र को बन्धन-मुक्ति की छटपटाहत व आत्मा को स्वच्छंद करने की, जन-जन प्रवेश की इच्छा है। निराला जी से पहले भी आल्हखंड के जगनिक, टैगोर की बांगला कविता, प्रसाद, मैथिली शरण गुप्त, हरिओध, पन्त आदि कवि सान्त्योनुप्रास-सममात्रिक कविता के साथ-साथ; विषम-मात्रिक-अतुकान्त काव्य की भी रचना कर रहे थे, परन्तु वो पूर्ण रूप से प्रचलित छन्द विधान से मुक्त, मुक्त-छन्द कविता नहीं थी।
यथा--- 
"दिवस का अवसान समीप था
गगन भी था कुछ लोहित हो चला
तरु-शिखा पर थी अब राजती
कमलिनी कुल-वल्लभ की विभा। "
-----अयोध्या सिंह उपाध्याय "हरिओध

"तो फ़ि क्या हुआ
सिद्ध राज जयसिंह
मर गया हाय
तुम पापी प्रेत उसके। "
------मैथिली शरण गुप्त

"विरह, अहह, कराहते इस शब्द को
निठुर विधि ने आंसुओं से है लिखा। "
-----सुमित्रा नन्दन पन्त 
                   
इस काल में भी गुरुडम, प्रतिभा प्रदर्शन मे संलग्न अधिकतर साहित्यकारों, कवियों, राजनैतिज्ञों का ध्यान राष्ट्र-भाषा के विकास पर नहीं था। निराला ने सर्वप्रथम बाबू भारतेन्दु व महावीर प्रसाद द्विवेदी जी को यह श्रेय दिया। निराला जी वस्तुत काव्य को वैदिक साहित्य के अनुशीलन में, बन्धन मुक्त करना चाहते थे ताकि कविता के साथ-साथ ही व्यक्ति , समाज़, देश, राष्ट्र की मुक्ति का मार्ग भी प्रशस्त हो सके। "परिमल" में वे तीन खंडों में तीन प्रकार की रचनायें प्रस्तुत करते हैं। अन्तिम खंड की रचनायें पूर्णतः मुक्त-छंद कविताएं हैं। हिन्दी के उत्थान, सशक्त बांगला से टक्कर, प्रगति की उत्कट ललक व खडी बोली को सिर्फ़ आगरा के आस-पास की भाषा समझने वालों को गलत ठहराने और खड़ी बोली की, जो शुद्ध हिन्दी थी व राष्ट्र भाषा होने के सर्वथा योग्य, उपयुक्त व हकदार थी, सर्वतोमुखी प्रगति व बिकास की ललक मेंनिराला जी कविता को स्वच्छंन्द व मुक्त छंद करने को कटिबद्ध थे।  इस प्रकार मुक्त-छंद, अतुकान्त काव्य व स्वच्छद कविता की स्थापना हुई। 
                     
परंतु निराला युग या स्वय निराला जी की अतुकान्त कविता, मुख्यतयाः छायावादी, यथार्थ वर्णन, प्राचीनता की पुनरावृत्ति, सामाजिक सरोकारों का वर्णन, सामयिक वर्णन, राष्ट्र्वाद तक सीमित थी। क्योंकि उनका मुख्य उद्धेश्य कविता को मुक्त छन्द मय करना व हिन्दी का उत्थान, प्रतिष्ठापन था। वे कवितायें लम्बी-लम्बी, वर्णानात्मक थीं, उनमें वस्तुतः आगे के युग की आधुनिक युगानुरूप आवश्यकता-सन्क्षिप्तता के साथ तीव्र भाव सम्प्रेषणता, सरलता, सुरुचिकरता के साथ-साथ, सामाजिक सरोकारों के समुचित समाधान की प्रस्तुति का अभाव था। यथा---कवितायें,   "अबे सुन बे गुलाब.....";"वह तोड़ती पत्थर....." ; "वह आता पछताता ...." उत्कृष्टता, यथार्थता, काव्य-सौन्दर्य के साथ समाधान का प्रदर्शन नहीं है। उस काल की मुख्य-धारा की नयी-नयी धाराओं-अकविता, यथार्थ-कविता, प्रगतिवादी कविता-में भी समाधान प्रदर्शन का यही अभाव है।
यथा-- 
  
 "तीन टांगों पर खड़ा
नत ग्रीव
धैर्य-धन गदहा" अथवा-- 
"वह कुम्हार का लड़का
और एक लड़की
भैंस की पीठ पर कोहनी टिकाये
देखते ही देखते चिकोटी काटी 
और......."

 
इनमें आक्रोश, विचित्र मयता, चौंकाने वाले भाव तो है, अंग्रेज़ी व योरोपीय काव्य के अनुशीलन में; परन्तु विशुद्ध भारतीय चिन्तन व मंथन से आलोड़ित व समाधान युक्त भाव नहीं हैं। इन्हीं सामयिक व युगानुकूल आवश्यकताओं के अभाव की पूर्ति व हिन्दी भाषा, साहित्य, छंद-शास्त्र व समाज के और अग्रगामी, उत्तरोत्तर व समग्र विकास की प्राप्ति हेतु नवीन धारा  "अगीत" का आविर्भाव हुआ, जो निराला-युग के काव्य-मुक्ति आन्दोलन को आगे बढ़ाते हुए भी उनके मुक्त-छंद काव्य से पृथक अगले सोपान की धारा है। यह धारा, सन्क्षिप्तता, सरलता, तीव्र-भाव सम्प्रेषणता व सामाजिक सरोकारों के उचित समाधान से युक्त युगानुरूप कविता की कमी को पूरा करती है। उदाहरणार्थ----

"कवि चिथड़े पहने
चखता संकेतों का रस
रचता-रस, छंद, अलंकार
ऐसे कवि के
क्या कहने। "
                 ---------------डा रंगनाथ मिश्र सत्य

"अज्ञान तमिस्रा को मिटाकर
आर्थिक रूप से समृद्ध होगी
प्रबुद्ध होगी
नारी! , तू तभी स्वतन्त्र होगी। "
                   ------ श्रीमती सुषमा गुप्ता

"संकल्प ले चुके हम
पोलिओ-मुक्त जीवन का
धर्म और आतंक के - 
विष से मुक्ति का
संकल्प भी तो लें हम। "
                     -----महाकवि श्री जगत नारायण पान्डेय

" सावन सूखा बीत गया तो
दोष बहारों को मत देना
तुमने सागर किया प्रदूषित"
                     -----डा. श्याम गुप्त 
              
इस धारा "अगीत" का प्रवर्तन सन १९६६ ई. में काव्य की सभी धाराओं मे निष्णात, कर्मठ व उत्साही वरिष्ठ कवि आ. रंग नाथ मिश्र सत्यने लखनऊ से किया। तब से यह विधा, अगणित कवियों, साहित्यकारों द्वारा विभिन्न रचनाओं, काव्य-संग्रहों, अगीत -खण्ड-काव्यों व महा काव्यों आदि से समृद्धि के शिखर पर चढ़ती जा रही है। 
             
इस प्रकार निश्चय ही अगीत, अगीत के प्रवर्तक डा. सत्य व अगणित रचनाकार , समीक्षक व रचनायें, निराला-युग से आगे, हिन्दी, हिन्दी सा्हित्य, व छन्द शास्त्र के विकास की अग्रगामी ध्वज व पताकायें हैं, जिसे अन्य धारायें, यहां तक कि मुख्य धारा गीति-छन्द विधा भी नहीं उठा पाई; अगीत ने यह कर दिखाया है, और इसके लिये कृत-संकल्प है। 
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डा. श्याम गुप्त 
के-३४८, आशियाना, लखनऊ-२२६०१२. 
मो. ०९४१५१५६४६४.