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Saturday 31 March 2012

हिन्दी साहित्य की विकास यात्रा--निराला युग से आगे-"अगीत।"


             कविता, पूर्व-वेदिकयुग, वैदिक युग, पश्च-वेदिक व पौराणिक काल में वस्तुतः मुक्त-छन्द ही थी। वह ब्रह्म की भांति स्वच्छंद व बन्धन मुक्त ही थी। आन्चलिक गीतों, रिचाओं, छन्दों, श्लोकों व विश्व भर की भाषाओं में अतुकान्त छन्द काव्य आज भी विद्यमान है। कालान्तर में मानव-सुविधा स्वभाव वश, चित्र प्रियता वश, ज्ञानाडम्बर, सुखानुभूति-प्रीति हित; सन्स्थाओं, दरवारों, मन्दिरों, बन्द कमरों में काव्य-प्रयोजन हेतु, कविता छन्द-शास्त्र व अलन्करणों के बन्धन में बंधती गई तथा उसका वही रूप प्रचलित व सार्वभौम होता गया। इस प्रकार वन-उपवन में स्वच्छंद विहार करने वाली कविता-कोकिला, वाटिकाओं, गमलों, क्यारियों में सजे पुष्पों पर मंडराने वाले भ्रमर व तितली होकर रह गयी। वह प्रतिभा प्रदर्शन व गुरु गौरव के बोध से, नियन्त्रण व अनुशासन से बोझिल होती गयी, और स्वाभाविक , ह्रदय स्पर्शी, स्वभूत, निरपेक्ष कविता; विद्वतापूर्ण व सापेक्ष काव्य में परिवर्तित होती गयी, साथ ही देश, समाज़, राष्ट्र, जाति भी बन्धनों में बंधते गये। स्वतन्त्रता पूर्व की कविता यद्यपि सार्व भौम प्रभाव वश छन्दमय ही है तथापि उसमें देश, समाज़, राष्ट्र को बन्धन-मुक्ति की छटपटाहत व आत्मा को स्वच्छंद करने की, जन-जन प्रवेश की इच्छा है। निराला जी से पहले भी आल्हखंड के जगनिक, टैगोर की बांगला कविता, प्रसाद, मैथिली शरण गुप्त, हरिओध, पन्त आदि कवि सान्त्योनुप्रास-सममात्रिक कविता के साथ-साथ; विषम-मात्रिक-अतुकान्त काव्य की भी रचना कर रहे थे, परन्तु वो पूर्ण रूप से प्रचलित छन्द विधान से मुक्त, मुक्त-छन्द कविता नहीं थी।
यथा--- 
"दिवस का अवसान समीप था
गगन भी था कुछ लोहित हो चला
तरु-शिखा पर थी अब राजती
कमलिनी कुल-वल्लभ की विभा। "
-----अयोध्या सिंह उपाध्याय "हरिओध

"तो फ़ि क्या हुआ
सिद्ध राज जयसिंह
मर गया हाय
तुम पापी प्रेत उसके। "
------मैथिली शरण गुप्त

"विरह, अहह, कराहते इस शब्द को
निठुर विधि ने आंसुओं से है लिखा। "
-----सुमित्रा नन्दन पन्त 
                   
इस काल में भी गुरुडम, प्रतिभा प्रदर्शन मे संलग्न अधिकतर साहित्यकारों, कवियों, राजनैतिज्ञों का ध्यान राष्ट्र-भाषा के विकास पर नहीं था। निराला ने सर्वप्रथम बाबू भारतेन्दु व महावीर प्रसाद द्विवेदी जी को यह श्रेय दिया। निराला जी वस्तुत काव्य को वैदिक साहित्य के अनुशीलन में, बन्धन मुक्त करना चाहते थे ताकि कविता के साथ-साथ ही व्यक्ति , समाज़, देश, राष्ट्र की मुक्ति का मार्ग भी प्रशस्त हो सके। "परिमल" में वे तीन खंडों में तीन प्रकार की रचनायें प्रस्तुत करते हैं। अन्तिम खंड की रचनायें पूर्णतः मुक्त-छंद कविताएं हैं। हिन्दी के उत्थान, सशक्त बांगला से टक्कर, प्रगति की उत्कट ललक व खडी बोली को सिर्फ़ आगरा के आस-पास की भाषा समझने वालों को गलत ठहराने और खड़ी बोली की, जो शुद्ध हिन्दी थी व राष्ट्र भाषा होने के सर्वथा योग्य, उपयुक्त व हकदार थी, सर्वतोमुखी प्रगति व बिकास की ललक मेंनिराला जी कविता को स्वच्छंन्द व मुक्त छंद करने को कटिबद्ध थे।  इस प्रकार मुक्त-छंद, अतुकान्त काव्य व स्वच्छद कविता की स्थापना हुई। 
                     
परंतु निराला युग या स्वय निराला जी की अतुकान्त कविता, मुख्यतयाः छायावादी, यथार्थ वर्णन, प्राचीनता की पुनरावृत्ति, सामाजिक सरोकारों का वर्णन, सामयिक वर्णन, राष्ट्र्वाद तक सीमित थी। क्योंकि उनका मुख्य उद्धेश्य कविता को मुक्त छन्द मय करना व हिन्दी का उत्थान, प्रतिष्ठापन था। वे कवितायें लम्बी-लम्बी, वर्णानात्मक थीं, उनमें वस्तुतः आगे के युग की आधुनिक युगानुरूप आवश्यकता-सन्क्षिप्तता के साथ तीव्र भाव सम्प्रेषणता, सरलता, सुरुचिकरता के साथ-साथ, सामाजिक सरोकारों के समुचित समाधान की प्रस्तुति का अभाव था। यथा---कवितायें,   "अबे सुन बे गुलाब.....";"वह तोड़ती पत्थर....." ; "वह आता पछताता ...." उत्कृष्टता, यथार्थता, काव्य-सौन्दर्य के साथ समाधान का प्रदर्शन नहीं है। उस काल की मुख्य-धारा की नयी-नयी धाराओं-अकविता, यथार्थ-कविता, प्रगतिवादी कविता-में भी समाधान प्रदर्शन का यही अभाव है।
यथा-- 
  
 "तीन टांगों पर खड़ा
नत ग्रीव
धैर्य-धन गदहा" अथवा-- 
"वह कुम्हार का लड़का
और एक लड़की
भैंस की पीठ पर कोहनी टिकाये
देखते ही देखते चिकोटी काटी 
और......."

 
इनमें आक्रोश, विचित्र मयता, चौंकाने वाले भाव तो है, अंग्रेज़ी व योरोपीय काव्य के अनुशीलन में; परन्तु विशुद्ध भारतीय चिन्तन व मंथन से आलोड़ित व समाधान युक्त भाव नहीं हैं। इन्हीं सामयिक व युगानुकूल आवश्यकताओं के अभाव की पूर्ति व हिन्दी भाषा, साहित्य, छंद-शास्त्र व समाज के और अग्रगामी, उत्तरोत्तर व समग्र विकास की प्राप्ति हेतु नवीन धारा  "अगीत" का आविर्भाव हुआ, जो निराला-युग के काव्य-मुक्ति आन्दोलन को आगे बढ़ाते हुए भी उनके मुक्त-छंद काव्य से पृथक अगले सोपान की धारा है। यह धारा, सन्क्षिप्तता, सरलता, तीव्र-भाव सम्प्रेषणता व सामाजिक सरोकारों के उचित समाधान से युक्त युगानुरूप कविता की कमी को पूरा करती है। उदाहरणार्थ----

"कवि चिथड़े पहने
चखता संकेतों का रस
रचता-रस, छंद, अलंकार
ऐसे कवि के
क्या कहने। "
                 ---------------डा रंगनाथ मिश्र सत्य

"अज्ञान तमिस्रा को मिटाकर
आर्थिक रूप से समृद्ध होगी
प्रबुद्ध होगी
नारी! , तू तभी स्वतन्त्र होगी। "
                   ------ श्रीमती सुषमा गुप्ता

"संकल्प ले चुके हम
पोलिओ-मुक्त जीवन का
धर्म और आतंक के - 
विष से मुक्ति का
संकल्प भी तो लें हम। "
                     -----महाकवि श्री जगत नारायण पान्डेय

" सावन सूखा बीत गया तो
दोष बहारों को मत देना
तुमने सागर किया प्रदूषित"
                     -----डा. श्याम गुप्त 
              
इस धारा "अगीत" का प्रवर्तन सन १९६६ ई. में काव्य की सभी धाराओं मे निष्णात, कर्मठ व उत्साही वरिष्ठ कवि आ. रंग नाथ मिश्र सत्यने लखनऊ से किया। तब से यह विधा, अगणित कवियों, साहित्यकारों द्वारा विभिन्न रचनाओं, काव्य-संग्रहों, अगीत -खण्ड-काव्यों व महा काव्यों आदि से समृद्धि के शिखर पर चढ़ती जा रही है। 
             
इस प्रकार निश्चय ही अगीत, अगीत के प्रवर्तक डा. सत्य व अगणित रचनाकार , समीक्षक व रचनायें, निराला-युग से आगे, हिन्दी, हिन्दी सा्हित्य, व छन्द शास्त्र के विकास की अग्रगामी ध्वज व पताकायें हैं, जिसे अन्य धारायें, यहां तक कि मुख्य धारा गीति-छन्द विधा भी नहीं उठा पाई; अगीत ने यह कर दिखाया है, और इसके लिये कृत-संकल्प है। 
                                                                                          ---------

डा. श्याम गुप्त 
के-३४८, आशियाना, लखनऊ-२२६०१२. 
मो. ०९४१५१५६४६४.

Thursday 29 March 2012

अगीत-विधा एवं उसका विम्ब-विधान... (डा श्याम गुप्त)



               

                 अगीत-विधा एवं उसका विम्ब-विधान
                      (डा श्याम गुप्त)                     

       हिन्दी कविता जगत में हिन्दी अतुकान्त काव्य-धारा की एक नवीन धारा “अगीत-विधा” अब  एक स्थापित विधा है। यह महाप्राण निराला से आगे मुक्त-अतुकान्त छ्न्द की एक नवीन धारा है, जिसने सन्क्षिप्तता  को धारण किया है एवं आज के युग की आवश्यकता  है। यह ५ से ८ पन्क्तियॊ की कविता है। कविता जगत मैं अगीत-विधा का आजकल काफ़ी प्रचलन है .। यह विधा १९६६ से लखनऊ नगर  से डा. रंगनाथ मिश्र सत्य द्वारा  प्रचलित की गयी है। और आज देश की सीमायें लांघ कर अन्तर्राष्ट्रीय क्षितिज़ पर अपना परचम लहरा रही है। अगीत एक छोटा अतुकान्त गीत-रचना है, ५ से ८ पन्क्तियों की,जिसमें  मात्रा व वर्ण संख्या बंधन नहीं, गति, यति व गेयता होनी चाहिये। जो निराला जी के लंबे अतुकांत गीतों से भिन्न है। इसमें लघु नज़्मों, दोहों व शे,र जैसी सटीक भाव सम्प्रेषणता है, सन्क्षिप्तता में सम्पूर्णता। यथा…
   
   इधर उधर जाने से क्या होगा ,
   मोड मो पर जमी हुई हैं,
   परेशानियां,
   शब्द शब्द अर्थ रहित
   कह रहीं कहानियां;
   मन को बहलाने से क्या होगा   --डा रन्गनाथ मिश्र सत्य

तनहाइयां,
जीवन में-
रोमांचक अनुभूति लाती हैं;
संयोग की एक रसता से-
ऊबे मन को,
वियोग रूपी अनल से,
सहलाती है;
जीवन में समरसता लाती हैं।    ---- सुषमा गुप्ता

    




      आजकल अगीत-विधा में विविध छन्द प्रचलन में हैं;- (the diffrant kinds of rhymes belonging AGEET poetry are )….जो निम्न वर्णित हैं….
१.अगीत छन्द—   ५ से ८ तक पन्क्तियों की अतुकान्त रचना, मात्रा व वर्ण संख्या बंधन नहीं, गति, यति व गेयता होनी चाहिये। उदाहरणार्थ….
  
    मानव व पशु मॆं यही है अन्तर,
    पशु नहीं करता ,
    छ्लछन्द और जन्तर- मन्तर।
    शॆतान ने पशु को,
    माया सन्सार कब दिखाया था;
    ग्यान का फ़ल तो ,
    सिर्फ़ आदम ने ही खाया था।    --डा. श्याम गु्प्त
 
   उन्नति को चाहिये
   नया नज़रिया,
   अन्ना हज़ारे,
   कुछ करना चाह्ते हैं
   हमें उनका
   साथ देना चाहिये।    ----मंगल प्रसाद ’मंगल’


२.लयबद्ध-अगीत छंद--  -५ से १० पन्क्तियों का अतुकान्त गीत, सममात्रिक, प्रत्येक पन्क्ति में  १६-१६ मात्रायें निश्चित, गतिमयता, लयबद्धता व गेयता होनी चाहिये ----उदाहरणार्थ—-
    “ श्रेष्ठ कला का जो मन्दिर था,
     तेरे   गीत  सजा  मेरा मन,
     प्रियतम तेरी  विरह पीर में;
     पतझड सा वीरान   होगया ।
     जैसे धुन्धलाये  शब्दों की  ,
     धुन्धले अर्ध मिटे चित्रों की,
     कला बीथिका एक पुरानी ।“    --- डा श्याम गुप्त ( प्रेम-काव्य से )





३.सप्तपदी गतिबद्ध अगीत छन्द---सात पक्तियों वाली, सममात्रिक, गतिमयता व गेयता युक्त अतुकान्त रचना प्रत्येक पन्क्ति में--१६ मात्रायें।

“छुब्ध  होरहा है हर मानव ,
पनप रहा है वैर निरन्तर,
राम और शिव के अभाव में,
विकल हो रहीं मर्यादायें;
पीडाएं हर सकूं जगत की,
ग्यान मुझे दो प्रभु प्रणयन का।     --जगत नारायण पान्डे  (मोह और पश्चाताप से)


४.. लयबद्द षटपदी अगीत छन्द —छह पन्क्तियों युक्त, सममात्रिक ,१६-१६ मात्राओं की लयबद्ध, गतिमय, गेय अतुकान्त रचना…. उदाहरणार्थ….
    
     “पर ईश्वर है जगत नियन्ता ,
     कोई है   अपने ऊपर  भी,
     रहे तिरोहित अहं-भाव सब ,
     सत्व-गुणों से युत हो मानव,
     सत्यं, शिवम भाव अपनाता,
     सारा जग सुन्दर हो जाता ।“    ---डा श्याम गुप्त ( श्रिष्टि महाकाव्य से)

५..नव-अगीत छंद--- ३ से अधिक ५ से कम पन्क्तियों वाला, अतुकान्त अगीत छन्द-- -  यथा--          
   
            बेडियां तोडो, 
          ग्यान दीप जलाओ,
          नारी! अब -
          तुम्ही राह दिखाओ;
          समाज को जोडो.        -सुषमा गुप्ता   
     
     देश की प्रगति ही,
     सबका कल्याण,
     यही हमारा उद्देश्य,
     रखती हूं मैं
     इसका ध्यान ।  ---विजय कुमारी मौर्य ’विजय’

६.त्रिपदा-अगीत छंद--- तीन पंक्तियों की, सममात्रिक, १६-१६ मात्राओं की अतुकान्त रचना……यथा…..
    
      “प्रीति –प्यार में नया नहीं कुछ,
      वही  पुराना  किस्सा  यारो ;
      लगता शाश्वत नया-नया सा । “ – डा श्याम गुप्त 

       “प्यार बना ही रहे हमेशा ,
      एसा सदा नहीं क्यों होता ;
      सुन्दर नहीं नसीब सभी का।“---- सुषमा गुप्ता

७.त्रिपदा अगीत गज़ल-– त्रिपदा-अगीत छन्दों की मालिका, तीन से अधिक छन्द, प्रथम छन्द की तीनों पंक्तियों के अन्त मैं वही शब्द पुनराव्रत्ति, बाकी छन्दों की अन्तिम पन्क्ति मैं वही शब्द आव्रत्ति, अन्तिम छंद में रचनाकार अपना नाम, उपनाम दे सकता है। उदाहरणार्थ…..
          
             
     पागल दिल

भग्न अतीत की बात करें,
व्यर्थ बात की क्या बात करें;
अब नवोन्मेष की बात करें।

यदि महलों मैं जीवन हंसता,
झोंपडियों में जीवन पलता;
क्या ऊंच नीच की बात करें।

शीश झुकायें क्यों पश्चिम को,
क्यों अतीत से हम भरमायें;
कुछ आदर्शों की बात करें 

शास्त्र ,बडे बूडे बालक,
है सम्मान देना पाना तो;
मत श्याम व्यन्ग्य की बात करें   --डा श्याम गुप्त


     
          अगीत विधा में अबतक लगभग ५० पुस्तकें प्रकाशित होचुकीं हैं….अगीत  के सोलह महारथी”,.. ’अगीत के इक्कीस स्तम्भ’ आदि   श्री जगतनाराय पांडे वं  डा. श्याम गुप्त द्वारा अगीत-महाकाव्य   खन्ड-काव्य लिखे गये हैं।-
महाकाव्य--
-सौमित्र गुणाकर-- ( श्री ज.ना. पान्डे--श्री लक्षमण जी के चरित्र-चित्रण पर)
-
सृष्टि-(ईषत इच्छा या बिगबैन्ग-एक अनुत्तरित उत्तर)---डा श्याम गुप्त
खन्ड काव्य-
-मोह और पश्चाताप---( ज.ना. पान्डे- राम कथा )
-
शूर्पखा ----(डा श्याम गुप्त)
        अगीत विधा के कुछ मुख्य कवियों के नाम –
. डा ऊषा गुप्ता -प्रोफ़ेसर हिन्दी विभाग ,लखनऊ वि वि, अगीत की मुख्य प्रेरणा.
२ डा रंग नाथ मिश्र सत्य, लखनऊ अगीत के संस्थापक व प्रवर्तक
३ श्री जगत नारायण पांडे -प्रथम अगीत महाकाव्य व खंडकाव्य के रचयिता
४ डा श्याम गुप्ता --मूर्त संसार व अमूर्त ईश्वर पर प्रथम महाकाव्य एवं खंड काव्य रचयिता एवं अगीत के विभिन्न छंदों के प्रवर्तक…..
५ सोहन लाल सुबुद्ध कवि व अगीत पर शास्त्रीय आलेखों के लेखक
६ पार्थो सेनसुषमा गुप्ता, डा योगेश गुप्ता, श्रीमती इन्दुबाला, रामप्रकाश शुक्ल, विजय कुमारी मौर्य, नन्दकुमार मनोचा, व -----अन्य देश, विदेश मैं फैले हुए बहुत से कविगण .......
                                             
c/o निर्विकार पन्कज श्याम                                 ----  डा श्याम गुप्त’
फ़्लेट न.६०६७, ६वां फ़्लोर, टावर-६
प्रेस्टिज शान्तिनिकेतन,
बेन्गलूरू, कर्नाटक.
                

Tuesday 27 March 2012

छंद का विस्तृत आकाश ....आकाश को छोटा न कर ....डा श्याम गुप्त ...


                 वे जो सिर्फ छंदोबद्ध कविता ही की बात करते हैं, वस्तुतः छंद, कविता, काव्य-कला व साहित्य का अर्थ ठीक प्रकार से नहीं जानते-समझते एवं संकुचित अर्थ व विचार धारा के पोषक हैं। वे केवल तुकांत-कविता को ही छंदोबद्ध कविता कहते हैं। कुछ तो केवल वार्णिक छंदों -कवित्त, सवैया, कुण्डली आदि -को ही छंद समझते हैं। छंद क्या है ? कविता क्या है ?
                        
वस्तुतः कविता, काव्य-कला, गीत आदि नाम तो बाद मैं आए। आविर्भाव तो छंद -नाम ही हुआ है। छंद ही कविता का वास्तविक सर्व प्रथम नाम है। सृष्टि-महाकाव्य- में सृष्टि निर्माण की प्रक्रिया में कवि कहता है--
                                        "
चतुर्मुख के चार मुखों से ,
                                         
ऋक,यजु ,साम ,अथर्व वेद सब ;
                                          
छंद शास्त्र का हुआ अवतरण ,
                                          
विविध ज्ञान जगती मैं आया। "----श्रृष्टि खंड से।
            
वास्तव में प्रत्येक कविता ही छंद है। प्राचीन रीतियों के अनुसार आज भी विवाहोपरांत प्रथम दिवस पर दुल्हा-दुल्हिन को छंद -पकैया खेल खिलाया जाता है (कविता नहीं)। इसमें दौनों कविता मैं ही बातें करते हैं। इसके दो अर्थ हैं --
    १.कविता का असली नाम छंद है.,छंद ही कविता है।
     २ काव्य -कला जीवन के कितने करीब है । जो छंद बनाने मैं प्रवीणता, ज्ञान की कसौटी है वह संसार-चक्र में जाने के लिए उपयुक्त है । आगे आने वाला जीवन छंद की भांति अनुशासित परन्तु निर्बंध, लालित्यपूर्ण, विवेकपूर्ण, सहज, सरल, गतिमय व तुकांत-अतुकांत की तरह प्रत्येक आरोह-अवरोह को झेलने में समर्थ रहे।
           छंद का अर्थ है अनुशासन । स्वानुशासन में बंधी, लयबद्ध रचना, चाहे तुकांत हो या अतुकांत। वैदिक छंद व मन्त्र सभी अतुकांत हैं परन्तु लयानुशासन बद्ध--हिन्दी में अगीत ने यही स्वीकारा है । जब कहा जाता है कि "स्वच्छंदचारी न शिवो न विष्णु यो जानाति स पंडितः"----अर्थात शिव व विष्णु स्व छंद, अर्थात स्वानुशासन के व्यवहारी हैं, किसी जोड़-तोड़ के अनुशासन के नहीं ..स्वलय. स्वभाव,आत्मानुवत,आत्मभूत, सहज भाव वाला। अगीत कविता भाव यही है ।
                
अतः छंद ही कविता है, हर कविता छंद है -तुकांत, अतुकांत; गीत-अगीत सभी । छंद का अपना विस्तृत आकाश है। आकाश को छोटा न कर।