Followers

Monday 15 April 2013

सृजन साहित्यिक संस्था की नव-सम्वत्सर गोष्ठी ...डा श्याम गुप्त ...



                          


डा सत्य- अध्यक्षीय वक्तव्य साथ में डा श्याम गुप्त  व डा.सुरेश शुक्ला


                     लखनऊ के युवा साहित्यकारों की साहित्यिक व सांस्कृतिक संस्था ‘सृजन’ की माह के प्रत्येक दूसरे रविवार को आयोजित मासिक गोष्ठी दि.१४-४-१३ रविवार को राजाजीपुरम के स्टडी-सर्कल के सभागार में सुप्रिसिद्ध कवि, साहित्यकार, गीतकार एवं  एवं अगीताचार्य डा रंगनाथ मिश्र ‘सत्य’ की अध्यक्षता में संपन्न हुई | गोष्ठी के मुख्य अतिथि डा श्याम गुप्त एवं विशिष्ट अतिथि डा सुरेश प्रकाश शुक्ल थे | संचालन युवा कवि एवं संस्था के सचिव देवेश द्विवेदी ‘देवेश’ ने किया |

डा योगेश गुप्त गोष्ठी का प्रारम्भ करते हुए
     गोष्ठी ने एक विद्वत-गोष्ठी का भी रूप का लेलिया जब गोष्ठी का प्रारम्भ करते हुए संस्था के अध्यक्ष डा योगेश ने चिंता व्यक्त करते हुए कहा कि भारतीय नव-संवत्सर प्रारम्भ होचुका है परन्तु अधिकाँश लोग एवं युवा पीढी को यह ज्ञात ही नहीं है, वे तो सिर्फ जनवरी में आने वाले आंग्ल नववर्ष को ही नया साल मानते हैं | नव-संवत्सर, देवता क्या हैं  एवं आज साहित्य की दशा पर कवियों-विद्वानों ने अपने-अपने विचार व्यक्त किये |

संचालक देवेष द्विवेदी ..कवि अशोक पांडे ,के के वैश्य व शांतानंद
    कविवर श्री रामप्रकाश एवं शांतानंद जी ने वाणी वन्दना की | कविवर डा योगेश, देवेश द्विवेदी, शांतानंद, विशाल श्रीवास्तव, कवियत्री सीमाक्षी श्रीवास्तव, छंदकार अशोक पाण्डेय ’अशोक’, कवि सूर्यप्रसाद मिश्र ‘हरिजन’, श्री कृष्ण वैश्य, अलंकार रस्तोगी, डा सुरेश प्रसाद शुक्ला आदि ने अपनी रचनाओं से गोष्ठी को ऊंचाई प्रदान की |  दिल्ली के वैदिक संस्कृत विद्वान् डा कृष्णानंद राय ने हिन्दी के अलावा संस्कृत में रचनाओं से भाव विभोर किया|

कवियत्री सीमाक्षी का काव्य पाठ एवं श्री सूर्यप्रसाद हरिजन, कृष्णानंद पांडे,विशाल श्रीवास्तव , अलंकर रस्तोगी
        मुख्य अतिथि के रूप में डा श्याम गुप्त ने अपने वक्तव्य में नव-संवत्सर की उत्पत्ति उसकी महत्ता बताते हुए उसे सनातन एवं वैज्ञानिक नववर्ष बताया और उसे व्याख्यायित करते हुए
पर नव-संवत्सर आधारित अपने दोहे पढ़े और आह्वान किया.....

        पाश्चात्य  नववर्ष  को, सब त्यागें श्रीमान |
        भारतीय  नववर्ष  हित, अब छेड़ें अभियान || 


      डा श्याम गुप्त ने आगे कहा कि डा योगेश गुप्त की चिंता स्वाभाविक है परन्तु हम सोचें कि आखिर क्यों हमारे युवा व अन्य सामान्य जन को अपनी सांस्कृतिक-बातों का ज्ञान नहीं है | शासन के अलावा विज्ञजनों में अगली पंक्ति में खड़े कवि व साहित्यकारों का भी यह कर्तव्य होता है कि जनसामान्य को अपनी रचनाओं द्वारा अपनी अपनी संस्कृति के बारे में ज्ञान दें एवं युवा कविओं के सम्मुख एक उदाहरण प्रस्तुत करें परन्तु आजकल ...समाचार वाली कवितायें, चुटुकुले वाले निरर्थक हास्य-व्यंग्य एवं  लम्बी-लम्बी वर्णानात्मक, कथ्यात्मक आदि निरर्थक कविताओं व कवियों का बोलवाला है जो सांस्कृतिक-सामाजिक परिप्रेक्ष्य का ज्ञान नहीं के बराबर सम्प्रेषण करती हैं | साहित्य के मूल गुणों की परिभाषा एक ग़ज़ल द्वारा प्रस्तुत की..

  
            साहित्य सत्यं शिवं सुन्दर भाव होना चहिये
            साहित्य शुचि शुभ ज्ञान  पारावार होना चाहिये
        

             श्याम, मतलब सिर्फ़ होना शुद्धता वादी नहीं,
             बहती दरिया रहे, पर तटबंध होना चाहिये



         अध्यक्षीय वक्तव्य में डा रंगनाथ मिश्र सत्य ने विविध कविताओं की समीक्षा की और अपने  सुन्दर सार्वकालिक गीत ‘जीवन की इस नयी डगर पर चलते चलते ठहर गया हूँ ‘ सुनाते हुए कहा कि निश्चय ही लम्बी-लम्बी कविताओं की अपेक्षा संक्षिप्त कविता का युग है इसीलिये ‘अगीत’ की महत्ता है |

          अंत में संस्था के अध्यक्ष डा योगेश ने धन्यवाद ज्ञापन किया |




 

Sunday 24 February 2013

साहित्यकार दिवस...आमंत्रण ...डा श्याम गुप्त ...



 
 

                            


             १ मार्च, २०१३ शुक्रवार को  गांधी भवन, संग्रहालय, लखनऊ में    साहित्यकार दिवस पर  साहित्यकार -सम्मेलन में आप सब आमंत्रित हैं....
                                                                   ------------अखिल भारतीय अगीत परिषद् , लखनऊ.

 

Wednesday 12 December 2012

गीत, अगीत और नवगीत ...१२..१२..१२.. में विशेष पोस्ट ...डा श्याम गुप्त...


                              गीत, अगीत और नवगीत ...१२..१२..१२.. में  विशेष पोस्ट ....

                                     

                                                              

                    आजकल हिन्दी साहित्य व काव्य में पद्य-विधा के सनातन रूप गीत के दो अन्य रूप अगीत एवं नवगीत काफी प्रचलन में हैं | गद्य-विधा से भिन्नता के रूप में जिस कथ्य में, लय के साथ गति यति का उचित समन्वय एवं प्रवाह हो वह काव्य है,गीत है| तुकांत छंदों के अतिरिक्त, अन्त्यानुप्रास के अनुसार गीत- तुकांत या अतुकांत होते हैं | अतुकांत गीतों को गद्य-गीत भी कहा गया | गीत तो सनातन व सार्वकालिक है ही अतः आगे कुछ कहने की आवश्यकता ही नहीं है| यहाँ अगीत नवगीत पर कुछ दृष्टि डालने का प्रयत्न किया जायगा|
अगीत --- एक अतुकांत गीत है, जिसमें मूलतः संक्षिप्तता को ग्रहण किया गया है | निराला जी द्वारा स्थापित लम्बे-लम्बे अतुकांत गीतों से भिन्न ये ५ से ८ पंक्तियों में पूरी बात कहने में सक्षम हैं | लय, गति, यति के साथ प्रवाह इनकी विशेषता है जो इन्हें गीतों की श्रेणी में खडा करती है एवं अतुकान्तता पारंपरिक पद्य-गीत से पृथक करती है और संक्षिप्तता प्रचलित पारंपरिक अतुकांत गीतों से भिन्नता प्रदर्शित करती है | इस प्रकार अगीत एक स्वतंत्र व स्पष्ट विधा है एवं उसका का एक स्पष्ट तथ्य-विधान व रचना संसार है ...उदाहरणार्थ ---
खोल दो घूंघट के पट
हटादो ह्रदय पट से,
आवरण
मिटे तमिस्रा
हो नव-विहान |”             ---- सुषमागुप्ता     

टूट रहा मन का विश्वास
संकोची हैं सारी
मन की रेखाएं |
रोक रहीं मुझ को,
गहरी बाधाएं |
अन्धकार और बढ़ रहा,
उलट रहा सारा आकाश ||”      --- डा रंगनाथ मिश्र सत्य

नवगीत उसका भ्रामक संसार --- नवगीत की बात काफी समय से एवं काफी जोर-शोर से कही जा रही है| नवगीत को प्राय: गीत के नवीन एवं आधुनिक स्थानापन्न रूप में प्रचारित किया जाता है|  नवगीतकार प्रायः यह कहते हैं कि अब गीत पुरानी विधा होगई है नवगीत का युग है | परन्तु यदि ध्यान से विश्लेषण किया जाय तो यह एक भ्रांत धारणा ही है | वस्तुतः नवगीत कोई नवीन विधानात्मक तथ्य नहीं है अपितु  पारंपरिक गीत को ही तोड़-ताड़ कर लिख दिया जाता है | इसमें मूलतः तो तुकांतता का ही निर्वाह होता है और मात्राएँ भी लगभग सम ही होती हैं,  कभी-कभी मात्राएँ असमान व अतुकांत पद भी आजाता है इसे गीत का सलाद या  खिचडी भी  कहा जा सकता है | इसका स्पष्ट तथ्य-विधान भी नहीं मिलता | वस्तुतः यह है पारंपरिक गीत ही जिसे टुकड़ों में बाँट कर लिख दिया जाता है | उदाहरणार्थ---- एक नवगीत है
जग ने जितना दिया
ले लिया
उससे कई गुना
बिन मांगे जीवन में
अपने पन का
जाल बुना |
सबके हाथ-पाँव बन
सब की साधें
शीश धरे
जीते जीते
सबके सपने
हर पल रहे मरे
थोपा गया
माथ पर पर्वत 
हमने कहाँ चुना         --मधुकर अस्थाना का नवगीत
            इसे  १२-१४  या१६-१०  या  २६ पंक्तियों वाला सामान्य गीत की भाँति लिखा जा सकताहै –-
जग ने जितना दिया,     ११              जग ने जितना दिया, लेलिया उससे कई गुना,   २६
लेलिया उससे कई गुना | १५     या      बिन मांगे जीवन में, अपने पन का जाल बुना|   २६
बिन मांगे जीवन में,    १२
अपने पन का जाल बुना |१४
                                                                      

सबके हाथ-पाँव बन,   १२                सबके हाथ पाँव बन सबकी-   १६
सबकी साधें शीश धरे | १४      या       साधें शीश धरे |            १०
.जीते जीते सबके –                      जीते जीते सबके सपने,
सपने हर पल रहे मरे |                  हर पल रहे मरे |
टेक-  थोपा गया माथ पर    १२     या     थोपा गया माथ पर पर्वत हमने कहाँ चुना २६
     पर्वत हमने कहाँ चुना ||  १४           जग ने जितना दिया लेलिया उससे कई गुना || २६
          कुछ  अन्य उदाहरण देखें ---
१-      
      ------ १४-१२ का पारंपरिक गीत है या नवगीत……
 विदा होकर जाते-जाते,    १४
बरस बीता कह गया।     १२
नवल तुम वो पूर्ण करना,   १४
जो नहीं मुझसे हुआ।    १२            ----कल्पना रमानी  का नवगीत
२-
टुकड़े टुकड़े 
टूट जाएँगे   १६
मन के मनके
दर्द हरा है    १६ = ३२
ताड़ों पर 
सीटी देती हैं 
गर्म हवाएँ    २४
जली दूब-सी 
तलवों में चुभती
यात्राएँ       २४
पुनर्जन्म ले कर आती हैं
दुर्घटनाएँ     २४
धीरे-धीरे ढल जाएगा                                                   
वक्त आज तक
कब ठहरा है?    ३२       ---- पूर्णिमा वर्मन का नवगीत ..
     
       ------ सीधा -सीधा 24 / ३२ मात्राओं का पारंपरिक गीत है ... इसे ऐसे लिखिए ....

ताड़ों पर सीटी देती  हैं गरम हवाएं ,   २४
जली दूब सी तलवों में चुभती यात्राएं | २४
पुनर्जन्म लेकर आती हैं दुर्घटनाएं |   २४
धीरे धीरे ढल जाएगा वक्त आज तक, कब ठहरा है ३२
टुकड़े-टुकड़े टूट जायंगे मन के मनके , दर्द हरा है  |  ३२

                  अतः इस प्रकार नवगीत कोई नवीन विधा नहीं ठहरती अपितु पारंपरिक गीत ही है जिसे गीत का सलाद  सा बना कर पेश किया जाता है | हाँ इस बहाने तमाम नवीन कथ्य तथ्यों के नाम पर दूर की कौड़ी के नाम पर , दूरस्थ व्यंजना के नाम पर ....असंगत कथ्य व तथ्य पेश कर दिए जाते हैं सिर्फ कुछ अलग दिखने हेतु | अब आप देखिये ---
जग ने जितना दिया
लेलिया
उससे कई गुना
बिन मांगे जीवन में
अपनेपन का
जाल बुना | ----   “

         क्या इस कथ्य का कोई अर्थ निकलता है ? अर्थात व्यक्ति को दुनिया कुछ देती नहीं वह ही दुनिया को देता है और जो कुछ वह अपने साथ पैदा होते ही लाता है दुनिया ले लेती है | हमें किसी( दुनिया, दोस्त, माता-पिता, भगवान ) का शुक्रगुज़ार होने की क्या आवश्यकता है |
होगयी है कर्मनाशा
समय की गंगा
नहाकर जिसमें हुआ
हर आदमी नंगा |   ---- यदि नदी कर्मनाशा है तो बुरा क्या है वह तो कर्मों का नाश हेतु होती ही है ...

                                                          

        और भी------
जली दूब-सी 
तलवों में चुभती
यात्राएँ   
पुनर्जन्म ले कर आती हैं
दुर्घटनाएँ   “                     ----- ??

आतंकों में-
शांति खोजना
केवल पागलपन 
लगता है।    “                     ---- यह कौन सा नया महान तथ्य है  सब जानते हैं |
शाखाओं का बोझ उठाये
बरगद उठ न सका
                   ---- फिर वह बरगद ही क्यों कहलाता है फिर अतिरिक्त शाखाएं तो उसका  बोझ स्वयं उठाती हैं क्या अर्थ है कथ्य का ?

सोने के पिंजरे में
हमने
हर पल दर्द धुना |    …... दर्द के कारण अंग धुना जाता है नकि स्वयं दर्द .कोइ धुनने की चीज़ है ..

               मुझे तो इन असंगत कथ्यों का अर्थ समझ आता नहीं है यदि आपको तार्किक अर्थ समझ आ रहा हो तो बताएं मेरे विचार में तो इस प्रकार की कविता ही कविता व साहित्य, कवि-साहित्यकारों को जन जन, सामान्य जन से दूर करती जा रही है