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Saturday 20 October 2012

सृष्टि महाकाव्य..ईषत -इच्छा या बिग-बेंग ;एक अनुत्तरित उत्तर... प्रथम सर्ग ---डा श्याम गुप्त...

सृष्टि ..ईषत -इच्छा या बिग-बेंग ;एक अनुत्तरित उत्तर... प्रथम सर्ग ---डा श्याम गुप्त...

   

 

 

 

 

 

 सृष्टि -ईषत-इच्छा या बिग-बेंग; एक अनुत्तरित उत्तर ( अगीत विधा महाकाव्य)..प्रथम सर्ग ......


(यह महाकाव्य अगीत विधा में आधुनिक-विज्ञान ,दर्शन व वैदिक विज्ञान के समन्वयात्मक विषय पर सर्वप्रथम रचित महाकाव्य है, इसमें सृष्टि की उत्पत्ति, ब्रह्माण्ड व जीवन व मानव की उत्पत्ति के गूढ़तम विषय को सरल भाषा में व्याख्यायित किया गया है ....एवं अगीत विधा के लयबद्ध षटपदी छंद में निवद्ध किया गया है जो एकादश सर्गों में वर्णित है.... रचयिता )


सृष्टि -अगीत विधा महाकाव्य-

रचयिता----डा.श्याम गुप्त
प्रकाशक---अखिल भा.अगीत परिषद् ,लखनऊ.
प्रथम संस्करण -- मार्च,३०-२००६ , चैत्र शुक्ला .प्रतिपदा , नवसंवत्सर दिवस -२०६३ ( आदि सृष्टि दिवस ), मूल्य-   -७५/-
              अगीत विधा में ब्रह्माण्ड  की रचना एवं जीवन की उत्पत्ति  के वैदिक, दार्शनिक व आधुनिक वैज्ञानिक तथ्यों का विवेचनात्मक प्रबंध-काव्य
( छंद ----लय बद्ध,षटपदी अगीत छंद ---छह पंक्ति, १६ मात्रा, अतुकांत, लय-वद्ध )


प्रथम-सर्ग --वन्दना 
१-गणेश -
गण-नायक गज बदन विनायक ,
मोदक प्रिय,प्रिय ऋद्धि-सिद्धि के ;
भरें  लेखनी में गति, गणपति ,
गुण गाऊँ इस 'सृष्टि', सृष्टि के।
कृपा  'श्याम  पर करें उमासुत ,
करूं  वन्दना पुष्पार्पण कर।।

-सरस्वती --
वीणा के जिन ज्ञान स्वरों से,
माँ !  ब्रह्मा को हुआ स्मरण'' |
वही ज्ञान स्वर ,हे माँ वाणी !
ह्रदय तंत्र में झंकृत करदो |
सृष्टि ज्ञान स्वर मिले श्याम को,
करूं  वन्दना पुष्पार्पण कर॥

-शास्त्र -
हम  कौन, कहाँ से  आए हैं ?
यह जगत पसारा किसका,क्यों ?
है शाश्वत यक्ष-प्रश्न, मानव का।
देते  हैं, जो  वेद - उपनिषद् ,
समुचित उत्तर; श्याम' उन्ही की,
करूं  वन्दना पुष्पार्पण कर॥

४-ईश्वर-सत्ता --
स्थिति, सृष्टि व लय का जग के,
कारण-मूल जो  वह परात्पर;
सद-नासद में अटल-अवस्थित,
चिदाकास  में  बैठा - बैठा,
संकेतों से  करे  व्यवस्था,
करूं  वन्दना पुष्पार्पण कर ॥

५-ईषत-इच्छा --'२'
उस अनादि की ईषत-इच्छा
महाकाश के भाव अनाहत,
में, जब द्वंद्व-भाव भरती है ;
सृष्टि-भाव तब विकसित होता-
आदि कणों में,  उस इच्छा की,
करूँ  वन्दना पुष्पार्पण कर॥

६- अपरा -माया --
कार्यकारी  भाव-शक्ति है,
उस परात्पर ब्रह्म की जो;
कार्य-मूल कारण है जग की,
माया है उस निर्विकार की;
अपरा'३' दें वर,श्याम' सृष्टि को,
करूँ वन्दना पुष्पार्पण कर॥

७.चिदाकाश --
सुन्न-भवन'४' में अनहद बाजे ,
सकल जगत का साहिब बसता;
स्थिति,लय और सृष्टि साक्षी,
अंतर्मन में  सदा  उपस्थित,
चिदाकाश की, जो अनंत है;
करूँ वन्दना पुष्पार्पण कर॥

८-विष्णु --
हे ! उस अनादि के व्यक्त भाव,
हे! बीज-रूप हेमांड'५' अवस्थित;
जगपालक, धारक, महाविष्णु,
कमल-नाल  ब्रह्मा को धारे;
'श्याम-सृष्टि' को, श्रृष्टि धरा दें,
करूँ  वन्दना  पुष्पार्पण कर॥

९-शंभु-महेश्वर --
आदिशंभु - अपरा संयोग से,
महत-तत्व'६' जब हुआ उपस्थित,
व्यक्त रूप जो उस निसंग का।
लिंग रूप बन तुम्ही महेश्वर !
करते  मैथुनि-सृष्टि अनूप;
करूँ वन्दना पुष्पार्पण कर॥

१०-ब्रह्मा --
कमल नाल पर प्रकट हुए जब,
रचने   को  सारा ब्रह्माण्ड;
वाणी की स्फुरणा'७' पाकर,
बने रचयिता सब जग रचकर ।
दिशा-बोध मिल जाय 'श्याम,को;
करूँ  वन्दना  पुष्पार्पण कर॥

११-दुष्ट जन -वन्दना --
लोभ-मोह वश बन खलनायक,
समय-समय पर निज करनी से;
जो  कर देते व्यथित धरा को ।
श्याम, धरा को मिलता प्रभु का,
कृपा भाव,  धरते अवतार;
करूँ वन्दना पुष्पार्पण कर॥

( =सृष्टि-ज्ञान का स्मरण ,=सृष्टि-सृजन की ईश्वरीय इच्छा,  = आदि-मूल शक्ति,  ४=शून्य,अनंत-अन्तरिक्ष, क्षीर सागर, मन ; =स्वर्ण अंड के रूप में ब्रह्माण्ड;  =मूल क्रियाशील व्यक्त तत्व ;  = सरस्वती की कृपा से ज्ञान का पुनः स्मरण )

----------------सृष्टि महाकाव्य क्रमशः ---द्वितीय सर्ग  -- उपसर्ग ...अगली पोस्ट में 

अगीत साहित्य दर्पण -अध्याय -६-भाग़ दो व अंतिम -अगीत की भाव संपदा ---डा श्याम गुप्त

                                               अगीत का कला पक्ष - -भाग दो
पिछली पोस्ट से आगे ......अलंकार ......
               मुख्यतया अंग्रेज़ी साहित्य के अलंकार -----मानवीकरण व ध्वन्यात्मक  अलंकार भी देखें .......

" असफलता आज थक गयी है ,
गुजरे हैं हद से कुछ लोग ,
उनकी पहचान क्या करें ?
अमृत पीना बेकार,
प्राणों की चाह है अधूरी ,
विह्वलता  और बढ़ गयी है |"                        ------डा सत्य ( मानवीकरण )

" नदिया मुस्कुराई 
कल कल कल खिलखिलाई ,
फिर लहर लहर लहराई |"                            ----- डा श्याम गुप्त -प्रेम काव्य से-ध्वन्यात्मक )

                पुनुरुक्ति  प्रकाश व वीप्सा अलंकार ------
" श्रम से जमीन का नाता जोड़ें ,
श्रम जीवन का मूलाधार ,
श्रम से कभे न मानो हार ;
श्रम ही श्रमिकों की मर्यादा,
श्रम के रथ को फिर से मोड़ें | "                            ------ डा सत्य ( पुनुरुक्ति प्रकाश )

" एक रबड़ ,
खिंची खिंची खिंची -
और टूट गयी ;
ज़िन्दगी रबड़ नहीं ,
तो और क्या है ? "                                            -----राजेश कुमार द्विवेदी ( वीप्सा )

                       अन्योक्ति, स्मरण, वक्रोक्ति, लोकोक्ति, असंगति व अप्रस्तुत अलंकार ------
" बालू से सागर के तट पर ,
खूब घरोंदे गए उकेरे |
वक्त की ऊंची लहर उठी जब,
सब कुछ आकर बहा ले गयी |
छोड़ गयी कुछ घोंघे सीपी,
सजा लिए हमने दामन में || "                       ----- प्रेम काव्य से ( अन्योक्ति )

" अजब खेल हैं,  मेरे बंधु !
गड्ढे तुम खोदते हो ,
गिरता मैं हूँ ;
करते तुम हो-
भरता मैं हूँ |
फिर भी न जाने कौन सी डोर ,
खींच लेजाती है तुम्हारे पास ,
मेरे अस्तित्व को;
साँसें तुम्हारी निकलती हैं,
मरता मैं हूँ | "                                              ------ मंगल दत्त द्विवेदी 'सरस' ( असंगति

" घिर गए हैं नील नभ में घन,
तडपने  लग गए तन मन ;
किसी  की याद  आई है,
महक महुए से आयी है | "                             ---- डा श्रीकृष्ण सिंह 'अखिलेश' ( स्मरण )

" आँख मूद कर हुक्म बजाना,
सच  की बात न मुंह पर लाना ;
पड जाएगा कष्ट उठाना | "                          ---- डा श्याम गुप्त ( वक्रोक्ति )

" ओ मानवता के दुश्मन !
थोड़े से दहेज के लिए,
जलादी प्यारी सी दुल्हन;
ठहर ! तुझे पछताना पडेगा,
ऊँट को पहाड़ के नीचे 
आना पडेगा | "                                         ----- विजय कुमारी मौर्या ( लोकोक्ति )

" मन के अंधियारे पटल पर ,
तुम्हारी छवि,
ज्योति-किरण सी लहराई;
एक नई कविता,
पुष्पित हो आई | "                                  ------ डा श्याम गुप्त ( अप्रस्तुत )


( ब) काव्य  के गुण और अगीत ----
               आचार्य मम्मट के अनुसार काव्य के गुण उसके अपरिहार्य तत्व हैं |अलान्कारादी युक्त होने पर भी गुणों से हीं काव्य आनंददायी  नहीं होता | ये काव्य की आतंरिक शोभाकारक हैं | काव्य के उत्कर्ष में मुख्य तत्व होते हैं | यद्यपि काव्याचार्यों के विभिन्न मत हैं परन्तु मूल रूप में काव्य के समस्त गुणों का मुख्यतः तीन गुणों में समावेश करके वर्णन किया जाता है | ये हैं---माधुर्य, ओज व प्रसाद ---ये गुण चित्त की वृत्तियों को को विषय-भावानुसार प्रकट व प्रदीप्त करते हैं |  माधुर्य --- का सम्बन्ध आह्लाद से है जिसमें अंतःकरण आनंद से द्रवित हो जाता है | ओज -- से चित्त दीप्त, प्रदीप्त व सम्पूर्ण होकर जोश , आवेग व ज्ञान के प्रकाश से भर उठाता है | प्रसाद गुण --का सम्बन्ध व्याकपत्व, विकासमानता व प्रफुल्लता से है | अर्थात जो श्रवण मात्र से ही अपना अर्थ प्रकट कर दे | आचार्य विश्वनाथ के अनुसार --" स प्रसाद: समस्तेषु रसेषु रचनाषु च "..अर्थात प्रसाद गुण समस्त रसों व रचनाओं का सहज सामान्य व आवश्यक गुण है |
                       अगीत काव्य मुख्यतया: प्रसाद गुण द्वारा सहज भव-संप्रेषणीयता युक्त विधा है , परन्तु सामाजिक सरोकारों से युक्त होने के कारण तीनों ही गुण प्रचुर मात्रा में पाए जाते हैं | कुछ उदाहरण प्रस्तुत हैं-----माधुर्य गुण युक्त कुछ अगीत देखिये ------

" सपने में मिलने तुम आये,
धीरे  से तन छुआ,
आँखें भर आईं , दी  दुआ;
मौन  स्तब्ध साक्षात हुआ , 
सहसा विश्वास जमा -
मन को तुम आज बहुत भाये | "                        ------ डा सत्य 

" विविध रंगकी सुमन वल्लरी ,
विविध रंग की सुमनावालियाँ ;
एवं नव पल्लव लड़ियों से,
सीता ने विधि भांति सजाया |
हर्षित होकर लक्ष्मण बोले,
'करें पदार्पण स्वागत है प्रभु ! "                       ---- शूर्पणखा खंड काव्य से 

               ओज --अर्थात नवीन उद्बोधन, नवोन्मेष, उत्साह , ओज से पाठक का मन ज्ञानवान, स्फूर्त व दीप्त होजाय | वाणी, मन , शरीर , अंतस, बुद्धि व ज्ञान से व्यक्ति प्रदीप्त हो उठे ----- 
" रक्त बीज भस्मासुर ,
रावण अनेक यहाँ ;
शकुनी दुर्योधन-
कंस द्वार द्वार पर ;
चाहिए एक और -
नीलकंठ आज फिर | "                      -----श्रीकृष्ण द्विवेदी 'द्विजेश'

" नव युग का मिलकर
 निर्माण करें ,
मानव का मानव से प्रेम हो ,
जीवन में नव बहार आये | 
सारा संसार एक हो,
शान्ति औए सुख में-
 यह राष्ट्र लहलहाए "                                ----डा सत्य 

                 प्रसाद गुण के कुछ उदाहरण देखें | सीधी सीधी बात मन के अंदर तक विस्तार करती हुई, अर्थ- प्रतीति देती है----

" तुमे मिलने आऊँगा,
 बार बार आऊँगा |
 चाहो तो ठुकरादो, 
चाहो  तो प्यार करो |
भाव बहुत गहरे हैं,
इनको दुलरालो | "                                 --- डा सत्य 

" संकल्प ले चुके हम,
पोलियो मुक्त जीवन का,
धर्म और आतंक के ,
विष से मुक्ति का,
संकल्प भी तो लें हम | "                       ---जगत नारायण पांडे 


(स्) अभिधा, लक्षणा, व्यंजना ----- 

                    कथ्य की  तीन शक्तियाँ, कथ्यानुसार अर्थ-प्रतीति व भाव उत्पन्न करती हैं | कवि अपनी कल्पना शक्ति से कथ्य में विशिष्ट लक्षणा, शब्द व अर्थगत लाक्षणिकता उत्पन्न कर सकता है जो अर्थ-प्रतीति को रूपकों आदि द्वारा लाक्षणिकता देकर कथ्य-सौंदर्य प्रकट करता है ( लक्षणा ) अथवा दूरस्थ  भाव या अन्य विशिष्ट व्यंजनात्मक भाव देकर कथ्य में दूरस्थ सन्देश, छद्म-सन्देश या कूट-सन्देश या अन्योक्तियों द्वारा विशिष्ट अर्थ-प्रतीति से शब्द या भाव व्यंजना उत्पन्न करके कथ्य सौंदर्य बढाता है (व्यंजना ); अथवा वह सीधे सीधे शब्दों में अर्थ्वात्तात्मक भाव-कथ्य का वर्णन कर सकता है ताकि विषय की क्लिष्टता , अर्थ-प्रतीति में बाधक न बने और सामान्य से सामान्य जन में भी भाव-सम्प्रेषण किया जा सके (अभिधा ) |
                          यद्यपि अगीत मुख्यतया अभिधेयता को ग्रहण करता है तथापि विविध विषय-बोध के कारण व अगीत कवियों के भी प्रथमतः गीति व छंद विधा निपुण होने के कारण लक्षणाये  व व्यंजनाएं भी पर्याप्त मात्रा में सहज ढंग से पाई जाती हैं | यह प्रस्तुत उदाहरणों से और भी स्पष्ट होजाता है --

                       लक्षणात्मक अगीत ---- 

" शरद पूर्णिमा सुछवि बिखेरे ,
पुष्पधन्वा शर संधाने,
युवा मन पर किये निशाना;
सब  ओर छागई प्रणय गंध 
कामिनी के पुलके अंग् अंग् ,
नयन वाण आकर हैं घेरे | "                       ---- सोहन लाल सुबुद्ध ( अर्थ लक्षणा )

" स्वप्नों के पंखों पर,
 चढ कर आती है ;
नींद-
सच्ची साम्यवादी है | "                             --- डा श्याम गुप्त ( शब्द लक्षणा )

" निजी स्वार्थ के कारण मानव ,
अति दोहन कर रहा प्रकृति का | 
प्रतिदिन एक ही स्वर्ण अंड से ,
उसका लालच नहीं सिमटता |
चीर कलेजा एक साथ ही ,
पाना  चाहे स्वर्ण खजाना | "                     ---- सृष्टि महाकाव्य से     


                      व्यंजनात्मक  अगीतों के उदाहरण प्रस्तुत हैं.-----

" तुमने तो मोम का ,
पिघलना ही देखा है |
पिघलने के भीतर का,
ताप नहीं देखा |"                             -----डा सरोजिनी अग्रवाल 

" गीदड़ों के शोर में,
मन्त्रों की वाणी ,
दब गयी है ;
भीड़ की चीखों में,
मधुरिम्  स्वर,
नहीं मिलते | "                               ----डा मिथिलेश दीक्षित 


                     अभिधात्मक अगीतों के निम्न उदाहरण पर्याप्त होंगे -----

" कुछ नेताओं का,
वजूद कैसा;
स्वयं के लिए ही जीते ;
सत्य तुम बिलकुल रीते | "                       ---- क्षमा पूर्णा पाठक 

" मेरी मां ने मुझे पढ़ाया ,
मां न चाहती क्या पढ़ पाता ;
आजीवन  पछताता रहता |
मेरे हिस्से का श्रम करके,
उसने ही स्कूल पठाया ,
मुझको रचनाकार बनाया | "                    --- सोहन लाल सुबुद्ध 

" नीम ,
 जिसमें गुण है असीम ;
मानव हितकारी ,
हारता अनेक बीमारी ;
द्वार की शोभा है नीम ,
पारिवारिक हकीम है नीम | "                       ----- सुरेन्द्र कुमार वर्मा ( मेरे अगीत छंद से )

" गीत मेरे तुमने जो गाये,
मेरे मन  की पीर अजानी ,   
छलक उठी आंसू भर आये |
सोच रहा बस जीता जाऊं ,
गम् के आंसू पीता जाऊं | 
गाता रहूँ गीत बस तेरे ,
बिसरादूं सारे जग के गम्  | "                     --- प्रेम काव्य से ( डा श्याम गुप्त )                      



                                                         ---- इति ---
                                                    अगीत साहित्य दर्पण
         



 









           

अगीत साहित्य दर्पण, अध्याय ६ (अंतिम ) --अगीत का कला पक्ष.. भाग १ -- ... डा श्याम गुप्त

                                                     अगीत का कला पक्ष (भाग एक )

                          यद्यपि अगीत रचनाकार शब्द-विन्यास, अलंकार, रस, लक्षणाओं आदि काव्य के कलापक्ष पर अधिक आधारित नहीं रहता क्योंकि अगीत विधा--क्रान्ति व रूढिवादिता के विरुद्ध से उपजा है  तथा संक्षिप्तता, विषय वैविध्य, सहज भाव-सम्प्रेषणता व अभिधेयता से जन जन संप्रेषणीयता उसका मुख्य लक्ष्य है | तथापि छंद-विधा  व गीत का समानधर्मा होने के कारण अगीत में भी पर्याप्त मात्रा में आवश्यक रस, छंद, अलंकार व अन्य काव्य-गुण सहज रूप में स्वतः ही आजाते हैं |
                          वस्तुतः रचना की ऊंचाई पर पहुँच कर कवि सचेष्ट लक्षणा व अलन्कारादि  विधानों का परित्याग कर देता है | रचना के उच्च भाव स्तर पर पहुँच कर कवि अलन्कारादि  लक्षण विधानों की निरर्थकता से परिचित हो जाता है तथा अर्थ रचना के सर्वोच्च धरातल पर पहुँच कर भाषा भी  सादृश्य विधान के सम्पूर्ण छल-छद्मों का परित्याग कर देती है | तभी अर्थ व भाव रचना की सर्वोच्च परिधि दृश्यमान होती है | अगीत रचनाकार भी मुख्यतः भाव-संपदा प्रधान रचनाधर्मी होता है अतः सोद्देश्य लक्षणादि  में नहीं उलझता | परन्तु जहां काव्य है वहाँ कथ्य में कलापक्ष स्वतः ही सहज वृत्ति से  आजाता है, क्योंकि कविता व काव्य-रचना स्वयं ही अप्रतिम कला है | इस प्रकार  " अमित अरथ  आखर अति थोरे " की अभिधेयता के साथ-साथ अगीत काव्य में ..रस, छंद, अलंकार , लक्षणादि सभी काव्य-गुण प्रचुर मात्रा में पाए जाते हैं | प्रमुख अगीत रचनाकार व अगीत पर विभिन्न साहित्यिक-शास्त्रीय  आलेखों के लेखक श्री सोहन लाल सुबुद्ध , श्री पार्थो सेन, डा रंगनाथ मिश्र 'सत्य' एवं डा श्याम गुप्त आदि द्वारा अगीत विधा के विभिन्न भाव व कला पक्षों पर विविध आलेखों द्वारा समय समय पर प्रकाश डाला जाता रहा है | उदाहरणार्थ ----सोहन लाल सुबुद्ध द्वारा---'अगीत काव्य में  अलंकार योजना ' व  "काव्य के गुण व अगीत '...'हिन्दी काव्य में नारी चित्रण'...डा सत्य के अगीत; एक काव्यशास्त्रीय दृष्टि '.....पार्थोसेन  द्वारा..'अगीत कविता व वैचारिक क्रान्ति'.....तथा मेरे द्वारा ( डा श्याम गुप्त)...'विचार क्रान्ति व अगीत कविता'...'समष्टि व जन सामान्य हित काव्य गुण '..एवं 'हिन्दी साहित्य की विकास यात्रा में निरालायुग से आगे विकास की धारा है अगीत '...आदि |
                                काव्य का कला पक्ष काव्य की शोभा बढाने के साथ साथ सौन्दर्यमयता, रसात्मकता व आनंदानुभूति से जन-जन रंजन के साथ विषय-भाव की रुचिकरता व सरलता से सम्प्रेषणता  बढ़ाकर  अंतर की गहराई को स्पर्श करके दीर्घजीवी प्रभाव छोडने वाला बनाता है | परन्तु अत्यधिक सचेष्ट लक्षणात्मकता  भाषा व विषय को बोझिल बनाती है एवं विषय व काव्य जन सामान्य के लिए दुरूह होजाता है |एवं उसका जन-रंजन व वास्तविक उद्देश्य पीछे छूट जाता है , पाण्डित्याम्बर व बुद्धि-विलास प्रमुख होजाता है | अतः सहज व समुचित कलात्मकता अगीत का उद्देश्य है |
                                 शिल्पसौन्दर्य, शब्दसौन्दर्य व भाव सौंदर्य ( रस, छंद, अलंकार योजना ) द्वारा अर्थ- सौंदर्य की उत्पत्ति (अभिधा, लक्षणा, व्यंजना ) का उपयोग करके अर्थ-प्रतीति द्वारा विषय के भाव व विषय बोध को पाठक के मन में रंजित किया जाता है | इस प्रकार काव्य का कलापक्ष प्रमुखतः तीन वर्गों में विभाजित किया जा सकता है |
(अ ) रस, छंद, अलंकार योजना --शब्द-शिल्प व अनुभूति सौंदर्य |
(ब)  काव्य के गुण --माधुर्य , ओज , प्रसाद ---अर्थ व भाव सौंदर्य |
(स्) कथ्य-शक्तियाँ ---अभिधा , लक्षणा , व्यंजना ----शब्द व अर्थ-प्रतीति |
                    अगीत के कलापक्ष पर समुचित प्रकाश डालने के लिए उपरोक्त तीनों वर्गों पर संक्षिप्त व सोदाहरण विवरण समीचीन होगा |

(अ) अगीत में रस, छंद अलंकार योजना ----
                        अगीत कविता में लगभग सभी  रसों का परिपाक समुचित मात्रा में हुआ है | सामाजिक एवं समतामूलक समाज के उदेश्य प्रधान विधा होने के कारण यद्यपि शांत, करुणा, हास्य ..रसों को अधिक देखा जाता है तथापि सभी रसों का उचित मात्रा में  उपयोग हुआ है |
                   वीर रस का उदाहरण प्रस्तुत है ....
" हम क्षत्री है वन में मृगया,
करना तो खेल हमारा  है |
तुम जैसे दुष्ट मृग-दलों को,
हम  सदा  खोजते  रहते  हैं |
चाहे  काल स्वयं सम्मुख हो,
नहीं मृत्यु से डरते हैं हम || "                           ---शूर्पणखा काव्य उपन्यास से ( डा श्याम गुप्त )

         रौद्र रस का एक उदाहरण पं. जगत नारायण पांडे के महाकाव्य सौमित्र गुणाकर से दृष्टव्य करें --
" क्रोध देखकर भृगु नायक का,
मंद हुई  गति धारा-गगन की;
मौन  सभा मंडप में छाया |
बोले,' कौन दुष्ट है जिसने -
भंग किया पिनाक यह शिव का ;
उत्तर नहीं मिला तो तत्क्षण ,
कर दूंगा निर्वीर्य धारा को || "

             श्रृंगार रस का एक उदाहरण देखें -----
" नैन नैन मिल गए सुन्दरी,
नैना  लिए झुके भला क्यों ;
मिलते क्या बस झुक जाने को |"                        ----त्रिपदा अगीत ( डा श्याम गुप्त )

           भक्ति रस ---का एक उदाहरण प्रस्तुत है....
" मां वाणी !
मुझको ज्ञान दो 
कभी न आये मुझमें  स्वार्थ ,
करता  रहूँ सदा परमार्थ ;
पीडाओं को हर दे मां !
कभी  न सत्पथ से-
मैं भटकूं 
करता रहूँ तुम्हारा ध्यान | "                         ------डा सत्य

                हास्य कवि व व्यंगकार सुभाष हुडदंगी का एक हास्य-व्यंग्य प्रस्तुत है-----
" जब आँखों से आँखों को मिलाया 
तो  हुश्न और प्यार नज़र आया;
मगर जब नखरे पे नखरा उठाया ,
तो मान यूँ गुनुगुनाया --
'कुए में कूद के मर जाना,
यार तुम शादी मत करना |"

                वैराग्य, वीभत्स व करूण रस के उदाहरण भी रंजनीय हैं-----
" मरणोपरांत जीव,
यद्यपि मुक्त होजाता है ,
संसार से , पर--
कैद रहता है वह मन में ,
आत्मीयों के याद रूपी बंधन में ,
और होजाता है अमर | "                       ----डा श्याम गुप्त

" जार जार लुंगी में,
लिपटाये  आबरू ;
पसीने से तर,
 भीगा जारहा है-
आदमी |"                                        ----धन सिंह मेहता

" केवल बचे रह गए कान,
जिव्हा आतातायी ने छीनी ;
माध्यम से-
भग्नावशेष के ,
कहते अपनी क्रूर कहानी | "              ------गिरीश चन्द्र वर्मा 'दोषी '

" झुरमुट के कोने में,
कमर का दर्द लपेटे
दाने बीनती परछाई;
जमान ढूँढ रहा है 
खुद को किसी ढेर में | "                    ----जगत नारायण पांडे

                 अगीत के विविध छंद व उनका रचना विधान का वर्णन विस्तृत रूप से अध्याय चार में  किया गया है | लय व गति काव्य-विधा के अपरिहार्य तत्व व विशेषताएं हैं जो इसे गद्य -विधा से पृथक करती है  | यति --काव्य को संगीतमयता के आरोह-अवरोह के साथ कथ्य व भाव को अगले स्तर पर परिवर्तन की स्पष्टता से विषय सम्प्रेषण को आगे बढाती है | तुकांत बद्धता ..काव्य के शिल्प सौंदर्य को बढाती है परन्तु संक्षिप्तता, शीघ्र भाव सम्प्रेषणता व अर्थ प्रतीति का ह्रास करती है |अतः वैदिक छंदों व ऋचाओं की अनुरूपता व तादाम्य लेते हुए अगीत मूलतः अतुकांत छंद है | हाँ लय व गति इसके अनिवार्य तत्व हैं तथा तुकांत , यति, मात्रा व गेयता का बंधन नहीं है | अगीत वस्तुतः अतुकांत गीत है |

                   अलंकार , साहित्य को शब्द-शिल्प व अर्थ-सौंदर्य प्रदान करते हैं | साहित्य में आभूषण की भांति प्रयुक्त होते हैं | यद्यपि प्रत्येक वस्तु, भाव व क्रिया के अनिवार्य गुण-रूप-तत्व ...." सत्यं शिवम्  सुन्दरं " के अनुसार सौंदर्य अर्थात अलंकरण काव्य का अंतिम मंतव्य होना चाहिए , तथापि अलंकारों के योगदान को नकारा नहीं जा सकता | अतः अगीत में भी पर्याप्त मात्रा में अलंकार प्रयुक्त हुए हैं | मुक्य-मुख्य शब्दालंकार व अर्थालंकार के उदाहरण प्रस्तुत हैं |

                अनुप्रास अलंकार ----
" आधुनिक कविता  की 
सटीली, पथरीली, रपटीली -
गलियों के बीच ,
अगीत ने सत्य ही 
अपना मार्ग प्रशस्त किया है ;
अनुरोधों, विरोधों, अवरोधों के बीच 
उसने सीना तां कर जिया है | "                      ---- पाण्डेय रामेन्द्र ( अन्त्यानुप्रास )

" शिक्षित सज्जन सुकृत संगठित 
बने क्रान्ति में स्वयं सहायक | "                   ----- डा श्याम गुप्त (शूर्पणखा खंडकाव्य से )

                 उपमा अलंकार -----

" बिंदुओं सी रातें 
गगन से दिन बनें ,
तीन ऋतु बीत जाएँ ,
बस यूँही | "                                                 -----मंजू सक्सेना        

" बहती नदी के प्रबल प्रवाह सा,
उनीदी  तारिकाओं के प्रकाश सा,
कभी तीब्र होती आकांक्षाओं सा,
मैदानों पर बहती समतल धारा सा ,
नन्हे शिशुओं के तुतले बोलों सा ,
यह तो जीवन है  | "                                    -----स्नेह-प्रभा ( मालोपमा )


                     रूपक अलंकार ------

" खिले अगीत गीत हर आनन्,
तुम हो इस युग के चतुरानन |"                     ---- अनिल किशोर शुक्ल 'निडर'

" कामिनी के पुलके अंग् अंग्,
नयन वाण आकर हैं घेरे | "                         ---- सोहन लाल सुबुद्ध

" पायल छनका कर दूर हुए,
हम कुछ ऐसे मज़बूर हुए ;
उस नाद-ब्रह्म मद चूर हुए |"                       --- त्रिपदा अगीत ( डा श्याम गुप्त )


                    यमक अलंकार -----
" जब आसमान से
 झांका चाँद,
याद आई, आँखें डबडबाईं ,
आंसुओं में तैरने लगा
एक चाँद | "                                    --तथा ..         

" सोना,
रजनी में सजनी में सुहाता है,
मन को लुभाता है |
अत्यधिक  सोना घातक है ,
कलयुग में सोना पातक है | "                         ----सुरेन्द्र कुमार वर्मा

                      उत्प्रेक्षा अलंकार ------

" यह कंचन सा रूप तुम्हारा 
निखर उठा सुरसरि धारा में;
अथवा  सोन परी सी कोई,
 हुई अवतरित सहसा जल में ;
अथवा पद वंदन को उतरा,
स्वयं इंदु ही गंगाजल  में | "                               ----डा श्याम गुप्त

" क्या ये स्वयं काम देव हैं,
अथवा द्वय अश्विनी बंधु  ये |"                          ---- शूर्पणखा खंड-काव्य से


                        अगीत में श्लेष अलंकार के उदाहरण की एक झलक देखें -----
" दीपक देता है प्रकाश ,
स्वयं अँधेरे में रहता है | 
सुख-दुःख सहकर ही तो नर,
औरों को सुख देता है | "                                     ---राम प्रकाश राम

"चलना ही नियति हमारी है,
जलना ही प्रगति हमारी है |"                              ----डा सत्य 

                            संशय या संदेह अलंकार ------
" सांझ की गोधूली की बेला में ,
प्रफुल्लित चांदनी में ;
अमृत की अभिलाषा लिए ,
निहार रही थी एक टक,
झुरमुट में चकवा-चकवी का मिलन ;
प्रिया  प्रियतम से,
 मोह का पान कर रही थी ;
या यह कोरी कल्पना थी | "                                   ----- घनश्याम दास गुप्ता


                               अतिशयोक्ति अलंकार -----
' नव षोडशि सी इठला करके ,
मुस्काती तिरछी चितवन से |
बोली रघुबर से शूर्पणखा ,
सुन्दर पुरुष नहीं तुम जैसा ;
मेरे जैसी सुन्दर नारी,
नहीं जगत में है कोई भी ||"                          ---- डा श्याम गुप्त ( शूर्पणखा खंड-काव्य से )


          ---क्रमश: ......अगीत साहित्य दर्पण  अध्याय -६ -भाग दो ...अगली पोस्ट में ...






 







Thursday 11 October 2012

अगीत साहित्य दर्पण( क्रमश:) अध्याय-५ ..भाग दो...

                                    अगीत की भाव संपदा ( भाग दो )--पिछली पोस्ट से आगे ...

              अनियंत्रित विकास हो या जीवन व्यापार अति सभी की बुरी है | अगीतों  में इनकी  हानियों  व प्रभावों को खूब उजागर किया है | यांत्रिकता व सामयिक यथार्थ, पर्यावरण, प्रदूषण पर भी कलम चली है ----

" रात भर काल सेंटर पर,
जागते  हैं ,
भारत के युवक ;
दिन भर सोता है ,
भारत का भाग्य | "                                          -------स्नेह प्रभा

" मैले कुचले, फटे बसनों में,
लौह की एक शलाका,
लिए हाथों में --
यहाँ वहाँ कूडे  के ढेर में,
नंगे पग, दौड़-दौड़ 
ढूँढ  रहे जिंदगी | "                                             ----- राम कृपाल 'ज्योति'

"  सभ्यता की अटारी पर ,
जब आधुनिक नारी चढी ;
तो उसे पसीना छूटने लगा,
वह अपना लिबास ,
फैंकने लगी | "                                               ------ विनय शंकर दीक्षित

" सावन सूखा बीत गया तो,
दोष बहारों को मत देना ;
तुमने सागर किया प्रदूषित | "                        ---- डा श्याम गुप्त   

                         नारी-पुरुष व समाज का त्रिआयामी विमर्श  अगीतकारों की एक अन्य विशेष भूमि है | सिर्फ फैशन, स्मार्टनेस , कपडे-गहने , सजाने-सजाने, पुरुषों की बराबरी या उन्हें अपमानित करने में नारी स्वाधीनता निहित नहीं है | नियम-निषेध तीनों के लिए आवश्यक हैं तभी समन्वय होता है एवं समन्वयात्मक समाज की स्थापना -----
"  पुरुष ने नारीको,
देकर  केवल अपना नाम ;
छीन  ली बदले में
उसकी हर सुबह ,
हर शाम | "                                        -------मंजू सक्सेना 'विनोद'

" अज्ञान तमिस्रा मिटाकर,
आर्थिक रूप से,
समृद्ध होगी, सुबुद्ध होगी ;
नारी ! तू तभी-
स्वतंत्र होगी,
प्रबुद्ध होगी | "                                         ----- सुषमा गुप्ता

" नारी    केन्द्र - बिंदु   है   भ्राता !
व्यष्टि,समष्टि,राष्ट्र की,जग की |
इसीलिये तो वह अबध्य  है,
और  सदा सम्माननीय भी |
लेकिन वह भी तो मानव है,
नियम-निषेध मानने होंगे | "              ----- शूर्पणखा काव्य-उपन्यास से ( डा श्याम गुप्त )

" कर रहे हो ह्त्या तुम,
कन्या के भ्रूण की |
कर रहे पाप छीन के जीवन ,
भविष्य की मां का तुम |
जन्म कौन देगा फिर ,
पैगम्बरों को,
अवतारों को | "                                 ------ अगीतिका में ( पं.जगत नारायण पाण्डेय )

                    प्रकृति वर्णन, हास्य-व्यंग्य, लास्य व सौंदर्य, प्रेम आदि भावों से भी अगीत कविता अछूती नहीं रही है -----
" ओ बसंत ! फिर आना
सिहरन के साथ |
तेरे आने की 
आहट मिल जाती है;
पाहुन से मिलने की,
इच्छा तडपाती है ;
ओ  बसंत ! फिर आना ,
मनसिज के साथ | "                                     ---- डा सत्य

" चंचला ,
तेरी मधुर मुस्कान से 
मेरा ह्रदय पिघल जाता है |
तुझे पाने के लिए
मैं अपना ,
सर्वस्व लुटा देता हूँ | "                                 ------ सुरेन्द्र कुमार वर्मा

" नई वैज्ञानिक खोज 
आधुनिक स्टोव;
तेल खर्च सीमित 
समय बचाता है ;
सास नन्द सुरक्षित,
बहू जलाता है | "                                           ----- सुभाष हुडदंगी

" तेरे संग हर ऋतु  मस्तानी ,
हर बात लगे नई कहानी ;
 रात दिवानी सुबह सुहानी| "                          ---डा श्याम गुप्त

                                         संस्कृति, आस्था, मनोविज्ञान, धर्म, दर्शन  एवं दर्शन के उच्चतम रूप वेदान्त में अवस्थित भारतीय आस्तिकता,....   मानवता, शोषण ,साम्प्रदायिकता के भाव  प्रस्तुत हैं------   

" गरीब के पसीने से,
अपना घर सजाया है;
किसी ने तख़्त,
किसी ने -
ताज बनाया है | "                                      ----- धन सिंह मेहता

" मृत्यु देखकर 
हम अमरत्व चाहते हैं;
और मृत्यु के बिना 
अमरत्व अर्थ हीन होता है |
फिर  अनेक यत्न करते हैं,
लेकिन अमरत्व अप्राप्य है,
मृत्यु एक सत्य है,
अमरत्व एक आशा | "                               ----- नरेश चन्द्र श्रीवास्तव


" समस्त सौर प्रणालियाँ ,
 समस्त कार्बनिक सिद्धांत,
समस्त प्राकृतिक संपदा 
समस्त बुद्धिजीवी 
समस्त दिव्य अग्नि,
आपसे पाकर 
हम धन्य हुए,
अपनी कृपाओं से हमें कृतार्थ करें | "                ---- धुरेन्द्र स्वरुप बिसारिया ( दिव्य अगीत से )    

" क्यों पश्चिम अपनाया जाए,
सूरज उगता है पूरब में;
पश्चिम में तो ढलना निश्चित | "                     --- डा श्याम गुप्त   

" काश कोई ऐसा धर्म होता,
जो प्रबचन के साथ-
रोटी भी देता;
ताकि मनुष्य धर्म से-
अधर्म की ओर न जाता | "                               ----- पार्थो सेन

" आस्था के द्वार से,
आस्था के द्वार तक;
यात्रा  ही यात्रा है,
जीवन के पार तक | "                                        -----डा मिथिलेश दीक्षित,शिकोहा बाद 

" जिस दिन,
धर्म  से मुक्त राजनीति होगी:
उसी  दि साम्प्रदायवाद की 
अवनति होगी | "                                             --- जवाहर लाल 'मधुकर' चेन्नई

                       एतिहासिक सन्दर्भ, दृष्टांत, व्यंजनात्मक अन्योक्ति व अन्य दूरस्थ भाव भी अगीत कवियों ने खूब प्रयोग किये हैं -----
" दुर्योधन !
ठगे रह गए थे तुम, देखकर--
'सारी बीच नारी है
या नारी बीच सारी है '
आज भी सफल नहीं होपाओगे;
 साडी-हीन नारी देख,
ठगे रह जाओगे | "                                 ----डा श्याम गुप्त ( श्याम स्मृति से )

" अकेला मन,
कुछ तलाशता है ;
आस-पास कुछ समेटता है,
शायद इसी में मिल जाय-
खोई हुई खुशी;
पता नहीं क्यों नहीं की 
उसने खुद्कुशी | "                                 ---- विजय कुमारी मौर्या

                     अंत में शब्दमिति अर्थात संक्षिप्तता के साथ विभिन्न भावों पर नए नए विचार-भाव, नवीन सन्दर्भ व युवा-मन के भाव  भी  खूब प्रदर्शित हुए हैं ------

" असत्य ने 
सत्य के वक्ष पर,
तांडव किया;
औ चीख चीख कर कहा ,
देखो,
मैं विजित हुआ | "                                 ----डा योगेश गुप्त

" चित्र खिंचा,
मैं हुई निस्तब्ध ;
कलपना यथार्थ का मिश्रण ,
खड़ी खड़ी मैं हुई निरुत्तर;
मैं तटस्थ होकर भी -
निरुत्तर | "                                         ----गीता आकांक्षा

" पकड़ ली जब खाट
तब देखा कभी नहीं ,
मरने के बाद-
कह रहे,
अच्छा इंसान था | "                           ----- देवेश द्विवेदी ' देवेश" 

" यह अ.जा. का 
यह अ.ज.जा. का 
यह अन्य पिछडों का 
यह सवर्णों का,
कहाँ है --
मेरा राष्ट्र, मेरा देश ? "                       ---- डा श्याम गुप्त   

                 अतः  निश्चय ही अगीत-विधा भाव-पक्ष-प्रधान एक सशक्त काव्य-विधा है | अगीत रचनाओं व कृतियों में सशक्त, समर्थ व संपन्न भाव-संपदा के सम्यक दर्शन होते हैं |

                                                             अध्याय -५ समाप्त......
                                     क्रमश: अगीत साहित्य दर्पण -अध्याय -६ अगले पोस्ट में ....







अगीत साहित्य दर्पण (क्रमश:) अध्याय-५-भाग एक ..अगीत की भाव संपदा ...ड़ा श्याम गुप्त ..

                                             अगीत की भाव-संपदा (भाग एक )
        तत्कालीन कविता में संक्षिप्तता के साथ सहज भाव-सम्प्रेषण , सम-सामयिक समस्याओं से झूझने के साथ ही समस्या-समाधान का अभाव, कथ्य प्रदर्शन की दिशा ज्ञान का न होना, विधा की अस्वस्थता व सर्व-साधारण के लिए दुर्बोधता के कारण सर्वग्राही कविता के हित 'अगीत' का प्रादुर्भाव हुआ | भाव-संपदा अगीत का प्राण है |अगीत रचनाकार नए नए भाव, विषय, समाजोपेक्षी संस्कार, नवीनता, युगबोध, विचार क्रान्ति व आस्थामूलक भावों पर रचना करता है | भाषा की नई सम्वेदना व संवेग, कथ्य की विविधता व अनूठा प्रयोग, परिमाप की पोषकता, विश्वधर्मी प्रयोगों के साथ सहज एवं सर्वग्राही भाव सम्प्रेषणीयता अगीत का गुण धर्म है | कम से कम शब्दों व पंक्तियों में  पूरी बात कहने का श्रेय अगीत रचनाओं को ही है |   युग की हर संभावना का समावेश, विषय व कथ्य वैविध्यता अगीत की अपनी अभिज्ञानता  का प्रतीक है |  अतः अगीत प्रमुखतः अर्थ व भाव प्रधान काव्य संपदा विधा है | अगीत "  शब्दमिति "   अर्थात तुलसी  की भाषा में... "  अमित अरथ  आखर अति थोरे"    की भाव-भूमि पर आविर्भूत हुआ है |
                 कथ्य व भाषा की संवेदना, अनूठा प्रयोग व बिम्बधर्मी- संक्षिप्तता में एक प्रयोग प्रस्तुत है----
" बूँद बूँद बीज ये कपास के,
खिल-खिल कर पड रही दरार;
सडी-गली मछली के संग,
ढूँढ   रहा विस्मय विस्तार,
डूब गए कपटी विश्वास के | "                      ---- ड़ा रंग नाथ मिश्र 'सत्य'

                   अगीत के एक प्रमुख कवि व अगीत पर विभिन्न साहित्यिक लेखों के  लेखक श्री सोहन लाल सुबुद्ध के अनुसार ..." अगीत जमीन से जुडी वह कविता है जिसमें लय व गति हो, समाजोपयोगी स्वस्थ विचार व सम्यक दृष्टिबोध समाहित हो |" ( प्रतियोगिता दर्पण --उद्बोधन से ) |  अगीतकार पाश्चात्य प्रभाव के अन्धानुकरण में वर्ग संघर्ष की बजाय कर्तव्य के प्रति आष्टा, यथार्थ कर्तव्य-बोध , अपने भारतीय समाज , भारतीय भाव-भूमि पर आधारित शास्त्रीयता, राष्ट्रीयता,भाषाई एकता, दृष्टिबोध को अधिक महत्त्व देता है | शास्त्रीयता के साथ साथ नवोन्मेष, पुरा-नव समन्वयता, वर्ग भेद समाप्ति के लिए विचार मंथन अगीत की एक महत्वपूर्ण भाव-भूमि व विषय है |
                     एक साक्षात्कार में ड़ा सत्य ने कहा था --" अगीत विधा में भाव को प्रधानता दी जाती है | यदि गीत नियमों की बंदिश से मुक्त कोई तुकांत या अतुकांत रचना , चार से दश पंक्तियों में अपने भाव, लय,गति व्यक्त करने में सक्षम है तो वह अगीत है | " अगीत कविता के विभिन्न भावों, विषयों पर संक्षिप्त व सोदाहरण वर्णन से अगीत विधा की भाव-संपदा व उसके भाव-पक्ष को स्पष्ट किया जा सकता है |
                          सामाजिक सरोकार अगीत कविता का मुख्य भाव है .......
" सामजिक सरोकारों को ,
अपने में समाये ;
नव-प्रभात लाने,
नव-अगीत आये | "                           ------ड़ा श्याम गुप्त

" मां बीमार है,
रकम उसके नाम से
खाते से निकाल कर
स्वघोषित सुपुत्र,
खा रहे बाँट कर | "                         ----- पं. जगत नारायण पांडे

                           सामाजिक बदलाव की  पहल के लिए एक उद्बोधन देखें --
" मेरी एक सलाह है,
अबकी बार चुनाव में,
उनको वोट देकर जीतने का मौक़ा दीजिए ,
जो चरित्रवान हैं ;
ताकि एक बार वे भी,
सत्ता की कुर्सी पर बैठ सकें ,
शासन करने | "                                    -----जबाहर लाल 'मधुकर' चेन्नई ( राजनीति के रंग से )

                            वर्ग संघर्ष की अपेक्षा ...वर्ग-न्याय, मानवता आधारित सामाजिक सरोकार प्रमुख भाव होना चाहिए.....
" दलितों के प्रति मत करो अन्याय ,
उन्हें भी दो समानता से-
जीने का अधिकार , अन्यथा-
भावी पीढ़ी धिक्कारेगी, और-
लेगी प्रतिकार ;अतः --
ओ समाज के ठेकेदारो !
उंच-नीच की खाई पाटो ,
दो शोषितों को ही न्याय | "                                         ----- ड़ा सत्य

ठहरी हुई भीड़ में दौडना ,
दौडती हुई भीड़ में रोकना ,
क्या अर्थ रखता है ?
स्वतन्त्रता के लाभ में,
सबका समान हिस्सा है | "                                         -----तेज नारायण राही

                                समाजवाद के विकृत रूप व तथाकथित विकासमानता पर व्यंग्य भाव भी हैं-----
" सुनते सुनते बूढ़ी होगई ,
झिनकू की औलाद ;
परन्तु,
अभी तक नहीं आया,
समाजवाद | "                                                     ------वीरेंद्र निझावन

" विकसित व विकासशील देशों में ,
सबसे  बड़ा अंतर ,
एक में मानवता अवशेष ,
दूसरे में छूमंतर | "               ----- धन सिंह मेहता 'अनजान'( प्रवासी भारतीय, अमेरिका )

                              युग परिवर्तन अगीत का प्रिय भाव व अगीतकार का मुख्य ध्येय है ----
" खोल दो घूंघट के पट,
हटा दो ह्रदय-पट से,
आवरण;
मिटे तमिस्रा,
हो नव-विहान | "                             -----सुषमा गुप्ता

" घर घर में खुशहाली लाएं ,
जीवन साकार करें ;
नवयुग  निर्माण करें ,
सबको,
निज  गले लगाएं | "                        ----डा रंगनाथ मिश्र 'सत्य'

                           पश्चिम की  भांति रक्ताभ-क्रान्ति नहीं , अमानवीयता  नहीं वरन मानवता के साथ युग क्रान्ति , वर्ग न्याय के साथ सहज क्रान्ति हो -----
" आओ चलें ,
मानवता को साथ लें,
किसी  का भला करें ;
लोग जलें, जला करें ,
इस कृतघ्न समाज में ,
अपनी जगह बनायें-
क्रान्ति लाएं चारों ओर | "                      ------विजय कुमारी मौर्य ( सिसकता विजय पथ )

" मिटा सके भूखे की हसरत,
 दो रोटी भी उपलब्ध नहीं ;
क्या करोगे ढूँढ कर अमृत | "                  ------ त्रिपदा अगीत ( ड़ा श्याम गुप्त )

                         संस्कार क्रान्ति के परिपेक्ष्य में विचार-क्रान्ति का अनुपम व दूरगामी भाव अगेत में खूब उपलब्ध है ----
" जग की इस अशांति-क्रंदन का,
लालच  लोभ  मोह-बंधन का |
भ्रष्ट  पतित सत्ता गठबंधन,
यह सब क्यों, इस यक्ष -प्रश्न का |
 एक यही  उत्तर सीधा सा ;
भूल  गया नर आप स्वयं को || "            ------सृष्टि महाकाव्य से ( ड़ा श्याम गुप्त )

" अपनी ही विकृतियों की 
अंधी सुरंग में ,
भटक रहे हम;
भविष्य को क्या देंगे | "          -----अगीतिका से  ( पं. जगत नारायण पांडे )

                          विश्व  शान्ति, राष्ट्रवाद, देश-प्रेम, हिन्दी भाषा, स्वभाषा-प्रेम ---अगीताकार के  अन्य महत्वपूर्ण भाव हैं |  हिन्दी पूर्ण राष्ट्र -भाषा  बने भारतीय जन मानस  की यह इच्छा अगीतकार की जन-अभिलाषा है | वैज्ञानिक प्रगति भी अगीत कवि को खूब भाती है | इसके साथ ही राजनीति, न्याय व्यवस्था, प्रजातंत्र, सामाजिक विकृतियों पर भी अगीताकार कवि ने खूब कलम चलाई है ----यथा....
" अंग्रेज़ी आया ने,
हिन्दी मां को घर से निकाला;
देकर, फास्ट-फ़ूड ,पिज्जा, बर्गर -
क्रिकेट, केम्पा-कोला, कम्प्यूटरीकरण ,
उदारीकरण, वैश्वीकरण 
का  हवाला | "                                                  ------ड़ा श्याम गुप्त

" सबने देखा ,
पिटते चिल्लाते,
कोई न बोला, सब खामोश:
प्रत्यक्ष दर्शी के अभाव में,
छूटा मुकदमा ,
वाहरी न्याय व्यवस्था | "                                     -----रवीन्द्र कुमार 'राजेश'

" आया न्योता,
कर आये परमाणु समझौता:
लिए  हाथ में,
कठौता | "                                                         ----- नन्द कुमार मनोचा

" आओ हम अंधकार दूर करें ,
रात और दिन खुशी-खुशी बीते;
सारा संसार शान्ति पाए ,
अपना यह राष्ट्र प्रगतिगामी हो ;
वैज्ञानिक उन्नति से ,
इसको भरपूर बनाएँ | "                                      -----डा सत्य

" रात्रि  गयी, दिन आया,
जगह  दी परस्पर को,
मान  दिया समय को,
क्या यही प्रवृत्ति,
प्रजातंत्र है ?"                                                   -----राम दरश मिश्र

" कुछ कितना विलासप्रिय,
जीवन जी रहे हैं;
हम,
ईर्ष्या में भरे हुए,
दांत पीस रहे हैं | "                                         -----नरेश चन्द्र श्रीवास्तव

                नवीन परिवर्तन, युग परिवर्तन, अपरिहार्य है |  यह युगसंधि का सम सामयिक परिवर्तन है अतः युग-परिवर्तन के अँधेरे पक्ष को समझते हुए भी अगीत कवि, युग नवीनता के लिए उसे गले लगाता है ......

"टूट रहा मन का विश्वास ,
संकोची   हैं सारी 
मन की रेखाएं|
रोक  रहीं मुझको
गहरी बाधाएं |
अंधकार और बढ़ रहा ,
उलट रहा सारा इतिहास | "                            -------- ड़ा रंग नाथ मिश्र 'सत्य'


                  क्रमश:-- अध्याय-५-भाग  ..अगीत की भाव संपदा(भाग दो ) अगले पोस्ट में ....


















Tuesday 2 October 2012

अगीत साहित्य दर्पण(क्रमश:) अध्याय ४ - अगीत छंद एवं उनका रचना विधान .....

                     अगीत साहित्य दर्पण (क्रमश:)  अध्याय ४ - अगीत छंद एवं उनका रचना विधान

               अतुकांत कवितायें व गीत प्रायः बृहदाकार  होते हैं | उनमें संक्षिप्तता, वर्ण्य-सटीकता, तीब्र भाव- सम्प्रेषण के साथ ही विषय विशेष की संप्रेषणीयता के अभाव में अगीत का जन्म  हुआ और वह फला-फूला | जैसी भविष्य वाणी की गयी थी तदनुसार आज अगीत न केवल कवियों, रचनाओं व कृतियों से समृद्ध है अपितु विविध नए-नए छंदों से भी निरंतर समृद्ध होता जा रहा है | इसका प्रचार-प्रसार अंतर्राष्ट्रीय जगत में भी  हुआ है | अब अगीत हिन्दी साहित्य व विश्व साहित्य में एक सुस्थापित व समृद्ध  विधा है |
                 वर्तमान में अगीत कविता विधा न केवल हिन्दी  कविता व साहित्य की विभिन्न परम्पराओं में  एक प्रमुख धारा के रूप में जानी जाती है अपितु उत्तरोत्तर नवीन उप-धाराओं से आप्लावित होती  हुई हिन्दी व साहित्य को समृद्ध बनाने में महत्वपूर्ण योगदान कर रही है |
                   अगीत कविता का मुख्य अभिप्राय: है राष्ट्र, समाज व जमीन से जुडी वह छोटी अतुकांत कविता जो पांच से दस पंक्तियों से कम या अधिक की न हो | जिसमें लय व गति हो , गेयता का बंधन न हो एवं मात्रा- बंधन भी आवश्यक नहीं |  वर्तमान में अगीत काव्य-विधा में प्रचलित व प्रयोग होरहे विविध छंदों का नीचे वर्णन किया जा रहा है | वे छंद ये हैं-----
(१)- अगीत छंद
२-लयबद्ध अगीत
३-गतिमय सप्तपदी अगीत
४-लयबद्ध षटपदी अगीत
५-नव-अगीत
६-त्रिपदा अगीत
७-त्रिपदा अगीत गज़ल |

(१)- अगीत छंद ---सन १९६६ में डा रंगनाथ मिश्र 'सत्य' द्वारा स्थापित अगीत विधा का मूल छंद , अतुकांत कविता में संक्षिप्तता की कम से उत्पन्न व अचूक भाव संप्रेषणीयता, सामान्य भाषा में कविता की जन-जन तक पहुँच के अभाव की पूर्ति-हित प्रचालन में आया, जिसमे दोहे जैसी सम्प्रेषण शक्ति, उर्दू के शेर जैसी प्रभावोत्पादकता निहित है | अगीत छंद के मुख्य रचना-विधान नियम ये हैं----
१-अतुकांत कविता
२.सामान्यतया पांच से आठ ( अधिकतम दस ) पंक्तियों से कम व अधिक नहीं |
३.मात्रा बंधन नहीं
४.गति, यति व लय होनी चाहिए
५.गेयता, अगेयता का बंधन नहीं |
             .यथा---

"इधर उधर जाने से
 क्या होगा ;
मोड़ मोड़ पर जमी हुईं  हैं ,
परेशानियां |
शब्द -शब्द अर्थ सहित
कह  रहीं कहानियां
मन को बहलाने से
क्या होगा |"                                      ----- डा रंगनाथ मिश्र 'सत्य'

"आज उन्हें चलना होगा
शान्ति के पथ पर ,
जिन्होंने कल
हमारे खून की,
होली खेली है |"                               ------डा सुरेशचंद्र शुक्ल, नार्वे

" झरबेरी के कांटे
तुमने क्यों बांटे ?
सुबह शाम दोनों -
बोल उठे राम-राम ;
सच्चाई के गाल पर
पड़ते हैं चांटे |"                                 --- वीरेंद्र निझावन

" प्रेम विह्वलता,विरह, भावातिरेक की धारा ,
 बहती है जब मन में ,
अजस्र, अपरिमित, प्रवाहमान; तब-
गीत निस्रत  होते हैं.
सरिता की अविरल धारा की तरह  |
वही  धारा, प्रश्नों को उत्तरित करती हुई
व्याख्या, विश्लेषण, सत्य को
जन -जन के लिए उद्घाटित करती हुई,
निस्रत  निर्झरिणी बन कर -
अगीत बन जाती है |"                                     ---डा श्याम गुप्त

(२)- लयबद्ध अगीत छंद ... सन २००७  में, मैंने ( डा श्याम गुप्त ) अपना गीति-विधा महाकाव्य -प्रेम-काव्य' लिखा जो अमूर्त भाव प्रेम को नायक बनाकर लिखा गया प्रथम महाकाव्य था | इस काव्य में मैंने... प्रेम-अगीत ( प्रेम भाव खंड ) में लयबद्ध अगीतों की रचना की जो गेय -अगीत थे | इनका रचना-विधान निम्न होना चाहिए ---
१-अतुकांत गीत
२.सात से दश तक पंक्तियाँ
३.गति, लय व गेयता आवश्यक
४. प्रत्येक पंक्ति में सोलह निश्चित मात्राएँ |

उदाहरण-----
"तुम जो सदा कहा करती थीं 
मीत सदा मेरे बन रहना |
तुमने ही मुख फेर लिया क्यों 
मैंने  तो कुछ नहीं कहा था |
शायद तुमको नहीं पता था ,
मीत भला कहते हैं किसको |
मीत शब्द को नहीं पढ़ा था ,
तुमने मन के शब्दकोश में ||"                 ----प्रेम काव्य से ( डा श्याम गुप्त )

(३)-गतिमय सप्तपदी अगीत --  सन २००३ में अगीत परिषद के वरिष्ठ सदस्य व ख्याति-प्राप्त कवि श्री जगत नारायण पाण्डेय 'एडवोकेट' ने अगीत विधा में सर्वप्रथम खंड काव्य ' मोह और पश्चाताप  लिखा, उसमें पांडे जी ने अगीत के प्रचलित छंद से अन्यथा एक नवीन छंद  " गतिमय सप्तपदी अगीत" का प्रयोग किया जो उनकी स्वयं की परिकल्पना थी | इसका रचना विधान यह है ----
१.अतुकांत कविता
२.सात पंक्तियों से कम व अधिक नहीं
३.गतिमयता आवश्यक
४.गेयता होनी चाहिए |                    --एक उदाहरण देखें ....

" छुब्ध हो रहा है हर मानव
पनप रहा है बैर निरंतर ;
राम और शिव के अभाव में ,
विकल हो रहीं मर्यादाएं ;
व्याप्त  होरहा विष, चन्दन में |
पीड़ायें हर सकूं जगत की,
ज्ञान मुझे दो प्रभु, प्रणयन का ||"                 -------- मोह व पश्चाताप से (श्री जगत नारायण पाण्डेय )

(४)  लयबद्ध षट्पदी अगीत ....सन २००५  में मैं ( डा श्याम गुप्त ) डा रंगनाथ मिश्र 'सत्य'  व  पं. जगत नारायण पाण्डेय के संपर्क में आया  तथा अगीत छंदों से प्रभावित होकर अपना अगीत विधा महाकाव्य " सृष्टि"   लिखा जो अमूर्त ईश्वर व मूर्त जीव, माया, जगत को नायकत्व देकर रचा गया प्रथम अगीत महाकाव्य था | इस कृति में मैंने एक और नवीन अगीत छंद ' लयबद्ध षट्पदी अगीत ' की  परिकल्पना व प्रयोग किया जिसे बाद में  शूर्पणखा काव्य-उपन्यास में भी  प्रयोग किया गया  | इस छंद का रचना विधान इस प्रकार है ----
१.अतुकांत कविता
२.लयबद्धता व गेयता अनिवार्य
३.गतिमयता आवश्यक
४.छ : पंक्तियों से कम व अधिक नहीं
५.प्रत्येक पंक्ति में सोलह निश्चित मात्राएँ |

उदाहरण----
" परम व्योम की इस अशान्ति से ,
द्वंद्व भाव कण-कण में उभरा ;
हलचल से गति मिली कणों को ,
अप:तत्व  में  साम्य जगत के |
गति से  आहत नाद बने ,फिर -
शब्द वायु ऊर्जा जल और मन ||"                               ----सृष्टि महाकाव्य से |

       एवं ....

लोलुप भ्रमरों की बातें क्या ,
ललचाते  अतुलित  शूर वीर |
इस  तन की कृपा, प्रणय भिक्षा ,
हित, कितने ही पद-दलित हुए |
पर आज मुझे क्यों लगता है,
संगीत फूटता कण कण से ||"                          ---- ( शूर्पणखा काव्य-उपन्यास से...डा श्याम गुप्त )

५-नव-अगीत ....सन २००६ में कवयित्री श्रीमती सुषमा गुप्ता द्वारा लिखे गए एम् अत्यंत लघु अगीत पर मेरी टिप्पणी ' इतना छोटा अगीत ' के प्रत्युत्तर में अचानक उनका कथन कि ..'यह नव-अगीत' है -- से प्रेरित होकर डा रंगनाथ मिश्र सत्य की प्रेरणा व परामर्श से एक नयी धारा के अगीत छंद का सूत्रपात हुया जो पारंपरिक अगीत से भी लघु होता है | इसे नव-अगीत का नाम दिया गया | इस छंद का रचना विधान निम्न है.....
१.अतुकांत लघु अगीत छंद
२.तीन से कम व पांच से अधिक पंक्तियाँ नहीं
३.लय, गति व मात्रा बंधन से मुक्त
४. मुख्यतया: सामाजिक सरोकारों ,कटु सत्य, नवीन विचारों से युक्त परन्तु अनिवार्यता व बंधन नहीं |
 उदाहरण-----

" बेडियाँ तोडो 
ज्ञान दीप जलाओ ;
नारी ! अब-
तुम्हीं राह दिखाओ,
समाज को जोड़ो |"                               ------सुषमा गुप्ता

"मुस्तैद मित्र पुलिस 
हरदम तैयार ;
फिर भी नहीं मिली ,
उत्तम प्रदेश में-
चोरी गयी कार |"                                  -----डा श्याम गुप्त

"सावधान होजायें 
ऐसे दुमुहे 
मुझे न भाएँ ;
जो खाएं और गुर्रायें
इन दुमुहों के पास न जाएँ |"                     ---- सोहन लाल सुबुद्ध

"शब्द वेधी वाण ने 
हरे श्रवण के प्राण ;
कैकयी की वाणी ने .
वन  भेजा सुकुमार |"                                  --- पार्थो सेन  |


(६) त्रिपदा अगीत .... क्रांतिकारी,  पत्रकार, साहित्यकार , समाजसेवी व कवि पद्मश्री पं.वचनेश त्रिपाठी जो अगीत आंदोलन व अगीतायन से जुड़े थे एवं वरिष्ठ परामर्शदाता थे ; उनके निधन ( सन २००६ई) पर श्रृद्धांजलि समारोह के अवसर पर उनकी स्मृति में मैंने ( डा श्याम गुप्त ) एक अन्य नवीन अगीत छंद का सृजन किया | इसे 'त्रिपदा अगीत ' का नाम दिया गया | इस छंद को पं. वचनेश त्रिपाठीजी को ही समर्पित किया गया | इस छंद का रचना विधान यह है ----
१.अतुकांत छंद
२.तीन पंक्तियों से कम व अधिक नहीं
३.गतिबद्ध परन्तु गेयता का बंधन नहीं
४. सोलह-सोलह निश्चित मात्राओं की तीनों पंक्तियाँ |

यथा----

"श्वेत धवल दाडी लहराती,
भाल  विशाल, उच्च आभामय ;
सच्चे निस्पृह युग-ऋषि थे वे |"                      ---- वचनेश त्रिपाठी के प्रति ( डा श्याम गुप्त )

"""    प्यार बना ही रहे हमेशा ,
ऐसा सदा नहीं क्यों होता ;
सुन्दर नहीं नसीब सभी  का |"                       ----- सुषमा गुप्ता 

७- त्रिपदा अगीत गज़ल .... सन २००७ ए में मैंने ( डा श्याम गुप्त ) हिन्दी में त्रिपदा गज़ल लिखना प्रारम्भ किया , जिसे त्रिपदा अगीत गज़ल का नाम दिया | इसका रचना विधान निम्न है .....
१.त्रिपदा अगीत छंदों  की मालिका जिसमें तीन या अधिक छंद होने चाहिए |
२.प्रथम छंद की तीनों पंक्तियों के अंत में वही शब्द आवृत्ति होनी  चाहिए |
३.शेष छंदों में वही शब्द आवृत्ति अंतिम पंक्ति में आना आवश्यक है |
४.अंतिम छंद में कवि अपनी इच्छानुसार अपना नाम या उपनाम रख सकता है |

उदाहरण देखें ....

          पागल दिल 
क्यों पागल दिल हर पल उलझे ,
जाने क्यों किस जिद में उलझे ;
सुलझे कभी, कभी फिर उलझे |

 तरह-तरह से समझा देखा ,
पर दिल है उलझा जाता है ;
क्यों  ऐसे पागल से उलझे |

धडकन बढती जाती दिल की,
कहता  बातें किस्म किस्म की ;
ज्यों काँटों में आँचल उलझे  ||                         ---डा श्याम गुप्त


         बात करें
भग्न अतीत की न बात करें ,
व्यर्थ बात की क्या बात करें ;
अब नवोन्मेष की बात करें |

यदि महलों में जीवन हंसता ,
झोपडियों में जीवन पलता ;
क्या उंच-नीच की बात करें |

शीश झुकाएं क्यों पश्चिम को,
क्यों अतीत से हम भरमाएं ;
कुछ आदर्शों की बात करें |

शास्त्र बड़े-बूढ़े और बालक ,
है सम्मान देना, पाना तो;
मत श्याम' व्यंग्य की बात करें ||                     ---डा श्याम गुप्त  |



                                              ---  इति अध्याय ४  ---

                          अगीत साहित्य दर्पण ( क्रमश:) अध्याय ५ ...अगली  पोस्ट में



















Monday 1 October 2012

बेंगलूर में अखिल भारतीय साहित्य साधक मंच की काव्य गोष्ठी व मुशायरा संपन्न ..



                       दिनांक ३०-९-१२ रविवार को अखिल भारतीय साहित्य साधक मंच की मासिक काव्य गोष्ठी  व मुशायरा लायंस क्लब, सरक्की, जेपी नगर  के सभागार में  वरिष्ठ गीतकार  डा श्याम गुप्त की अध्यक्षता में संपन्न हुई | गोष्ठी के अतिथि शायर मुश्ताक अहमद शाह एवं कवि भागीरथ अग्रवाल थे |  मंच संचालन समिति के अध्यक्ष श्री ज्ञान चंद मर्मज्ञ ने किया |
               गोष्ठी के प्रथम  सत्र में कश्मीरी साहित्य के विद्वान श्री त्रिलोकी नाथ धर ने 'कश्मीरी साहित्य व उसका लालित्य ' विषय पर व्याख्यान देते हुए कश्मीरी भाषा, साहित्य व कवियों के बारे में  विस्तार से बताया|
कश्मीरी साहित्य पर  कविवर श्री धर का अभिभाषण
उपस्थित कवि, शायर व श्रोतागण
                द्वितीय सत्र में उपस्थित युवा व वरिष्ठ कवियों, गीतकारों व शायरों ने श्रेष्ठ ग़ज़लों, कविताओं व  गीतों से श्रोताओं को भाव विभोर किया |  युवा कवि श्री दिवस गुप्ता ने  आधुनिक सभ्यता, अति-विकास  व अनियंत्रित विकास के दुष्परिणामों पर ध्यान खींचते हुए   कहा...


"छतें ही छतें है दूर तक
जहां नज़र भी हांफने लगे |"
युवाकवि दिवस गुप्त का काव्य-पाठ
           

            अध्यक्षीय अभिभाषण में डा श्याम गुप्त ने अगीत विधा के छंद-विधान पर अपनी नवीन काव्य-कृति " अगीत साहित्य दर्पण"   रचनाकारों व श्रोताओं के सम्मुख रखते हुए काव्य की अगीत विधा  से अवगत कराया  तथा लंबी कविता व संक्षिप्त कविता की अपनी-अपनी विशेषताओं का उल्लेख किया |
कवयित्री मंजू व्यंकट द्वारा काव्य-पाठ साथ में मंच संचालक श्री मर्मज्ञ