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Monday 30 July 2012

संघात्मक समीक्षा पद्दति द्वारा पुस्तक समीक्षा ....पार्थ सेन...

                             (प्रचलित समीक्षा -पद्दति में  किसी पुस्तक या कहानी आदि की समीक्षा करने में केवल उस पुस्तक के विषय  वस्तु  की ही समीक्षा की जाती है परन्तु संघात्मक समीक्षा पद्दति द्वारा पुस्तक समीक्षा ....में पुस्तक की सम्पूर्ण समीक्षा की जाती है अर्थात विषय-वस्तु के साथ-साथ उसके लेखक/ कवि के बारे में, लेखक द्वारा आत्म-कथ्य , समर्पण व आभार , पुस्तक की छपाई, आवरण-पृष्ठ, उसपर चित्र , मूल्य, अन्य विद्वानों द्वारा लिखी गयीं भूमिकाओं के तथ्यांकन एवं प्रकाशक आदि  द्वारा दिए गए विवरण व कथ्य इत्यादि की भी सम्पूर्ण समीक्षा की जाती है | यह विधा  हिन्दी कविता में अगीत -विधा के संस्थापक  डा रंगनाथ मिश्र 'सत्य' द्वारा प्१९९५ से प्रचलित की गयी ...देखिये एक समीक्षा...)

समीक्ष्य कृति --- इन्द्रधनुष ( उपन्यास)....लेखक -डा श्याम गुप्त ....मूल्य ....७५/- रु.....पृष्ठ--१०४.
संपर्क-- सुश्यानिदी, के-३४८, आशियाना, लखनऊ -२२६०१२ .
प्रकाशन वर्ष-- २०११. ई.... प्रकाशक.... सुषमा प्रकाशन , आशियाना, लखनऊ |
समीक्षक-- पार्थो सेन ..

                       डा श्याम गुप्त जी चिकित्सा जगत से सेवा-निवृत्त होने के पश्चात हिन्दी साहित्य जगत में पूर्णतया समर्पित हैं | मूलतः आप एक प्रसिद्ध कवि हैं एवं  अगीत विधा के  रचयिता हैं | उपन्यास क्रम में 'इन्द्रधनुष' आपका प्रथम प्रयास है | इसके पूर्व आप गीत व अगीत दोनों ही विधाओं में शूर्पणखा, सृष्टि, प्रेमकाव्य आदि  छ: काव्यों का सृजन कर चुके हैं | जो साहित्य जगत में सराहे गए | इस उपन्यास में इन्द्रधनुष के सात रंगों की तरह ही सात मुख्य बिंदु --स्त्री, पुरुष, अलौकिक-प्रेम, कविता, वेद-वेदान्त, चिकित्सा जगत व सामाजिक परिदृश्य हैं | अतः शीर्षक सार्थक है |
                        लेखक स्वयं एक शल्य-चिकित्सक भी है |अतः उपन्यास का प्रारम्भ मैडीकल कालेज के वातावरण से होता है | वे स्वयं एक कवि भी हैं तो यत्र-तत्र संवादों में कविता का का समावेश है | संवादों में चिकित्सा संबंधी चर्चाओं  के अतिरिक्त कई मूल्यवान परिचर्चाएं हैं | जैसे एक स्थान पर पात्र जयंत कृष्णा कहता है...
                  "...सदियों से भारत में दो प्रतिकूल विचार धाराएं चली आ रही हैं | 
                  एक ब्राह्मण वादी व  दूसरी   ब्राह्मण विरोधी , जो अम्बेडकरवादी  विचार धारा  है  |"
इसी चर्चा में भाग लेती हुई एक अन्य पात्र सुमि  कहती है....
                  " वास्तव में वे धाराएं देव-संस्कृति व असुर संस्कृतियाँ हैं | क्योंकि न तो राम ब्राह्मण                                     थे   न कृष्ण   ही जबकि रावण ब्राहमण था परन्तु ब्राह्मण-विरोधी |"

                          पूरा उपन्यास मैडीकल कालेज के छात्र कृष्ण गोपाल ...केजी  तथा  सुमित्रा ...सुमि ..के मध्य संवादों  पर आधारित है जिसका कुछ अंश अतीत है | दोनों सहपाठी हैं | एक आकर्षण दोनों के मध्य उत्पन्न होता है यद्यपि नायिका पहले से ही वाग्दत्ता है | दोनों का  पृथक-पृथक विवाह होता है और सफल भी  है | यद्यपि वे अलग अलग होजाते हैं व रहते हैं परन्तु एक आत्मिक  जुड़ाव व बौद्धिक-आत्मिक प्रेम सम्बन्ध जो सुमि  व केजी के मध्य था, सदा बना रहता है जो एक चर्चा में कवितामय संवाद  से परिलक्षित होता है... केजी का कहना है...
            "प्रियतम प्रिय का मिलना जीवन,
             साँसों का चलना है जीवन|
             मिलना और बिछुडना जीवन,
             जीवन हार भी जीत भी जीवन |"               
                                         सुमि  का कथन देखिये..... 
             प्यार है शाश्वत कब मारता है,
             रोम रोम में रहता है |
            अजर अमर है वह अविनाशी,
            मन में रच बस रहता है |"
                             उपन्यास का अंत दुखांत है | सुमि  की मौत एक हवाई दुर्घटना में हो जाती है , पाठक यहीं मर्माहत हो जाता है |  उपन्यास में शिक्षित वर्ग का परिवेश है, पात्र, संवाद तथा वातावरण उसी के अनुरूप है | यौन सम्बन्ध रहित अलौकिक प्रेम की महत्ता इस उपन्यास का सन्देश है |
                            भाषा मूलतः परिमार्जित हिन्दी है | आवश्यकतानुसार अन्य भाषाओं के शब्दों का समावेश है | शैली प्रभावशाली व संवाद सारगर्भित हैं |
                            कृति मनुष्य के आचार-विचार व समाज को शिक्षा देने वाली नारियों को समर्पित है |प्रोफ. बी . बै. ललिताम्बा ( बेंगलूरू ) , भू.पू अध्यक्ष, हिन्दी विभाग, इंदौर वि.वि (म.प्र.)  व  कवि श्री मधुकर अष्ठाना ने अपना आशीर्वाद  इस पुस्तक को प्रदान किया है | लेखक ने अशरीरी प्रेम को महत्त्व देते हुए उपन्यास का सृजन किया है जैसा कि उपन्यास में उल्लेख है|
                           आवरण पर एक सुन्दर लेखक द्वारा ही स्वनिर्मित हस्त-चित्र है |  मूल्य सर्वथा उचित है | एक डाक्टर मनुष्य जीवन को बहुत करीब से देखता है अतः उसका अलग ही अनुभव है |इस कृति को एक प्रेरणादायी प्रसंग मानना अधिक उचित प्रतीत होता है | डा श्याम गुप्त जी की सारी कृतियाँ शालीनता लिए होती हैं | आज के शारीरिक संबंध पर आधारित प्रेम के युग में इस उपन्यास का स्वागत अवश्य होना चाहिए | हार्दिक बधाई , मैं अपने एक अगीत से यह समीक्षा पूरी करता हूँ--
           "निहारूंगा मैं तुझे अपलक
            जैसे एक अबोध तकता है
            इन्द्रधनुष  एक टक |"                              
                                                         ----- .समीक्षक .... पार्थोसेन ...




          

Saturday 9 June 2012

संतुलित कहानी.. शुक्र का पारगमन .....

[ संतुलित-कहानी, लघु-कथा की  एक विशेष धारा है जो अगीत के प्रवर्तक डा रंग नाथ मिश्र द्वारा १९७५ में स्थापित की गयी|  इन कहानियों में  मूलतः सामाजिक सरोकारों को इस प्रकार संतुलित रूप में प्रस्तुत किया जाता है कि उनके किसी कथ्य या तथ्यांकन का समाज व व्यक्ति के मन-मष्तिष्क पर कोई विपरीत अनिष्टकारी प्रभाव न पड़े .. अपितु कथ्यांकन में भावों व विचारों का एक संतुलन रहे| (जैसे बहुत सी कहानियों या सिने कथाओं में सेक्स वर्णन, वीभत्स रस या आतंकवाद, डकैती, लूटपाट आदि  के घिनोने दृश्यांकन आदि से जन मानस में उसे अपनाने की प्रवृत्ति व्याप्त हो सकती है |) संतुलित कहानियों के कई संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं ..यथा..."संतुलित कहानी  के नौ रत्न," "संतुलित कहानी के पंचादश रत्न."..आदि ...सम्पादन डा रंगनाथ मिश्र सत्य | गिरिजाशंकर पाण्डेय,राजेन्द्रनाथ सिंह, सुरेन्द्र नाथ, मंजू सक्सेना, डा श्याम गुप्त  आदि की संतुलित कथाएं उल्लेखनीय हैं |]  

शुक्र का पारगमन --चित्र राजस्थान पत्रिका साभार
           

 
             शुक्र का पारगमन ---संतुलित कहानी... डा श्याम गुप्त

                 राम प्रसाद जी चाय की चुस्कियों के साथ टीवी के सम्मुख बैठे समाचार-पत्र भी पढते जारहे थे | अधिकांस चेनलों पर शुक्र के सूर्य से पारगमन को एक महत्वपूर्ण घटना बताया जारहा था और यह भी कि अब यह सुन्दर नज़ारा पुनः १०५ वर्ष बाद ही देखने को मिलेगा | इसे देखने सिर्फ खगोल वैज्ञानिक, ज्योतिषी ही नहीं एकत्र होरहे थे अपितु भारत भर में स्कूल, कालिज, विभिन्न संस्थाएं व संस्थानों के बच्चों, कर्मचारियों एवं सामान्य पब्लिक के लिए भी स्थान-स्थान पर दूरबीन, सोलर-फ़िल्टर, वाइड स्क्रीन आदि लगाई गयीं थी | देखने के लिए लोगों का हुजूम उमडा पड़ रहा था |
                 वे समाचार-पत्र पढने लगते हैं | प्रथम पृष्ठ पर बड़े-बड़े अक्षरों में आईपीएल व सचिन तेंदुलकर के छक्कों की चर्चा थी जिससे देश का नाम दुनिया में ऊंचा होता नज़र आ रहा था और सरकार उन्हें राज्यसभा के लिए मनोनीत कर दिल्ली में एक बड़ा बंगला एलाट करने का प्लान बना रही थी उनकी सुरक्षा हेतु भी चिंतामग्न थी | दूसरी ओर पेट्रोल-पम्प पर लगी कतारें व सड़क पर ट्रेफिक-जाम व आकाश छूती हुई कीमतों पर अनशन करते लोगों के सचित्र समाचार भी थे| वे पृष्ठ पलटते हैं| मुख्य-मंत्री द्वारा वर्ष में तीसरी बार अपनी कुर्सी व सरकार  बचाने हेतु विधायकों से मंत्रणा के समाचार के साथ ही नोएडा में डकैती व चार वर्ष की बच्ची से रेप का ह्रदय-विदारक समाचार पढकर चिंतामग्न हो जाते हैं |
                   वे टीवी चेनल बदलते हैं | एक नए सेटिलाईट की आकाश में स्थापना की जारही थी स्थापना सफल होते ही वैज्ञानिक, नेता, शासक सभी खुशी से उछल पड़े | अब आप टीवी और अधिक स्पष्ट देख सकते हैं, दुनिया भर के चेनल | अडवांस मोबाइल पर कम्प्युटर के सभी कार्य किये जा सकते हैं | आपका घर सारी दुनिया से जुड़ जायगा |
                    वे फिर समाचार-पत्र देखने लगते हैं | राजधानी के ही समीपवर्ती सुदूर-क्षेत्रों में सूखे के कारण किसानों द्वारा आत्महत्या, एक जून की रोटी के जुगाड हेतु कम्मो द्वारा अपनी बच्ची को बेचा गया, के समाचार मन को उद्विग्न कर देते हैं टीवी चेनल पर डांस-इंडिया-डांसप्रोग्राम् में बच्चे इन्हीं लोगों ने ले लीना दुपट्टा मेरापर डांस कर रहे हैं | ‘हंसी के फुहारेप्रोग्राम में निर्णायक बात-बेबात पर हँसती है| एक चेनल पर कुछ विचारक व मनीषी रिश्वतखोरी, भ्रष्टाचार व घोटालों पर अपने अपने विचार प्रस्तुत कर रहे होते हैं जिन्हें तेज-तर्रार संचालिका कभी पूरे नहीं होने देती है और किसी भी निर्णय पर पहुंचे बिना संचालिका के वक्तव्य के साथ शो समाप्त हो जाता है |
              वे समाचार-पत्र में किसी स्कूल में केजी में दाखिले हेतु २५ से ५० लाख तक डोनेशन माँगने का समाचार पढते हैं | अगले पृष्ठ पर बातूनी ताऊके हास्य-व्यंग्य कालम में देश की महान समस्याओं को सुलझाने के  हास्यास्पद उपाय सुझाए गए हैं अरबपति किलगेट’.... ‘कमोडको और अधिक उन्नत व सुविधाजनक बनाने हेतु निवेश करना चाहते हैं | अगले पृष्ठ पर किसी वृद्धजन का इंटरव्यू छापा है जिन्हें दो वर्ष हुए सेवा-निवृत्त हुए अभी तक पेंशन नहीं बंधी है |  यह पढकर उन्हें ध्यान आता है कि उन्हें तो दफ्तर के बाबू  ने चार बार लौटाने के बाद आज बुलाया है पेंशन-पत्र के लिए ११ बजे और साड़े-दश बज  चुके हैं ||
          तभी श्यामलाल जी आजाते हैं, कहते हैं अरे, चलिए-चलिए शुक्र, सूर्य को पार  कर रहा है देखते हैं, सामने मैदान में दूरबीन लगाई हुई है, सोलर फ़िल्टर भी है | फिर यह सुन्दर दृश्य अगले जन्म में ही देखने को मिलेगा |
         रामप्रसाद जी अचानक कह उठते हैं, वह तो ठीक है पर क्या यह पारगमन देखकर, उन्नत-टीवी, मोबाइल, सचिन के छक्के या मुख्यमंत्री की सरकार बच जाने से, बच्चों के डांस करने से...देश में   रेप बंद होजाएंगे,  किसान आत्महत्या करना बंद कर देंगे, भ्रष्टाचार से मुक्ति मिलेगी और मेरी पेंशन  शीघ्र ही मिलने लगेगी |

                           --------- डा श्याम गुप्त , ९४१५१५६४६४

श्याम स्मृति ....आधुनिक मनुस्मृति ...डा श्याम गुप्त के चार अगीत ...

       पुत्र
वे चलते थे ,
पिता के, अग्रजों के पदचिन्हों पर-
ससम्मान, सादर सानंद,
आग्यानत  होकर -
देश राष्ट्र समाज उन्नतिहित ,
सुपुत्र  कहलाते थे |
आज वे पिताको, अग्रजों को,
मनमर्जी से चलाते हैं ,एन्जॉय करने हेतु,
अवज्ञारत होकर ,
स्वयं को एडवांस्ड बताते हैं ,
सनी  कहलाते हैं |


सुख-चैन
 वह दिनरात ,
जी तोडकर,सुखचैन छोडकर -
सुख-साधन के -
उपकरण बनाने में जुटा है , ताकि-
 जी सके..सुख चैन से |


राजनीतिज्ञ
वह जो ठीक लगता था ,
वही करता था;
सत्य-नीति पर चलता था |
आज वह सभ्य  होगया है -
सत्य से शर्माता है,
सच को भी चासनी में लपेट कर बताता है ,
राजनीतिज्ञ कहलाता है |


ईश्वर 
वह ईश्वर व उसके गुणों को -
ह्रदय में धारण करता था ;
कहीं भी पूजा, आवाहन कर-
साक्षात् दर्शन पाता  था |
जब  उसने मंदिर-मूर्तियों को मन लगाया,
ईश्वर बताया ,
तब से आज तक-
ईश्वर को नहीं पाया |



Sunday 3 June 2012

श्याम गुप्त की पुस्तक समीक्षा : अमेरिकी प्रवासी भारतीय:हिदी प्रतिभाएं



  समीक्ष्य-पुस्तक- -अमेरिकी प्रवासी भारतीय : हिन्दी प्रतिभाएं ( प्रथम व द्वितीय भाग ),
  लेखिका -डा ऊषा गुप्ता , प्रकाशक -न्यू रायल बुक कंपनी , लालबाग , लखनऊ.
 समीक्षक --डा श्याम गुप्त.
           "
जननी जन्म भूमि स्वर्गादपि गरीयसी ", यही सच है; और यह सच पूरी तरह उभर कर आया है डा ऊषा गुप्ता, भू. पू. प्रोफ. हिन्दी विभाग लखनऊ वि. विद्यालय द्वारा दो भागों में रचित समीक्ष्य पुस्तक 'अमेरिकी प्रवासी भारतीय:हिदी प्रतिभाएं ' में। पुस्तक में लेखिका ने अपने देश से दूर बसे विभिन्न धर्म,व्यवसाय व क्षेत्र के व्यक्तियों के भावोद्गारों को उनकी कृतियों , काव्य रचनाओं , कहानियों द्वारा बड़े सुन्दर ढंग से प्रस्तुत किया है। जहां विभिन्न रचनाओं में देश की माटी की सुगंधित यादें हैबिछुड़ने का दर्द है, वहीं संमृद्धि   में मानवता के डूबने का कष्ट एवं अपने देश भारत की दुर्दशा की पीड़ा भी है। देखिये---   ----                  
 
 "वह बात आई ,
न बल्ख़ में न बुखारे में  ,
जो छज्जू के चौबारे में।" ---परिचय -प्र.१७.
                                                        *         *            *
यहाँ आदमी बहुत थोड़े हैं ,
फिर भी न जाने क्यों ,
इक दूजे से मुंह मोड़े हैं।------कैलाश नाथ तिवारी
                                                        *      *           *
कैसी थी माधुर्य प्रीति ,
पल पल के उस जीवन में ,
भूल गया हूँ आज,
मशीनी चट्टानों के वन में।----कैलाश नाथ तिवारी .
                                                     *             *                          *
   "
दूर छूट गया बचपन का वह युग जहां सचमुच डाल डाल पर सोने की चिडियाँ बसेरा करती थीं ; अब वह भारत कहाँ रहा। विज्ञान ने , समय की दौड़ ने भारत को विदेशों की स्पर्धा में लाकर खडा कर दिया है ? "  ---- निर्मला अरोरा .
                                                             *            *                   *
वैभवों को भोगते वे ही यहा,
जो यहाँ सन्मार्ग पर न चले कभी ।----- शकुन्तला माथुर .
 
और भी--- 
अमरीका में हमको आये, अपने ऊपर हांसी।
भारत में हम साहब थे, अमरीका में चपरासी।
अमरीका है ऐसा लड्डू , जो भी इसको खाए ,
खाए सो पछताए और न खाए सो पछताए।
    ---- देवेन्द्र नारायण शुक्ल .
                       *          *                 *
और तू कितना सोयेगा हिंद,  
हो गई आधी रात अब तो जाग।  -----देवेन्द्र नारायण शुक्ल .
 
         परिचय में यद्यपि लेखिका ने अमेरिका की प्राकृतिक सुषमा, भौतिक-सौन्दर्य, वैज्ञानिक प्रगति, समृद्धि व एश्वर्य का सांगोपांग वर्णन किया है जो वास्तव में व्यक्ति को दूर-दूर से खींच लाती है; परन्तु साथ में ही ...." नंदन कानन के सौन्दर्य .....", " कैसर बाग़ के इमली के पेड़ ....", कभी ऐसा ही था मेरा लखनऊ ...."  की याद तथा यहाँ अमेरिका में  "..बड़े अपनत्व से हाय हेलो! कहकर आपका मन जीत लेंगे , बस इतना ही , आगे फुल स्टाप। "  एवं   " भारत में जीवन की कठिनाइयों पर जोरों शोरों से विवाद, आध्यात्मिक चर्चा, गली मुहल्लों की गप-शप, - वयस्कों व वृद्धों के समय काटने के अच्छे साधन हैं। पर अमेरिका में क्या करें ?......"   कहकर समृद्धि व ऐश्वर्य की चमक धमक के पीछे जीवन के भयावह खोखलेपन के सत्य को भी उजागर किया है। कवि अंतर्मन निष्पक्ष होता है।

            
पशु -पक्षी के तरह सुबह-सुबह निकल जाना,और देर शाम को अपने अपने कोटरों में लौट आना ही जीवन है तो सारे ऐश्वर्य का क्या ऐसे में अपने देश के सुगंध बरबस याद आती ही है। यही भाव इस पुस्तक की आत्मा है। सबका मिलकर त्यौहार मनाना, होली, दिवाली, ईद व क्रिसमस भी; यही आत्मीयता .. " वसुधैव कुटुम्बकम " भारत हैजो कहीं नहीं है। सचमुच- सुदूर में भारत को जीवित रखना एक पुनीत कर्म हैहाँ यह स्पष्ट नहीं होता कि अमेरिकी भी उसी जोश से होली दिवाली, ईद मनाते हैं या नहीं ?

           
अभिव्यक्ति, काव्य प्रतिभा, या प्रतिभा किसी देश, काल, जाति, धर्म , व्यवसाय , उम्र व भाषा के मोहताज़ नहीं होती। यह सिद्ध किया है प्रस्तुत पुस्तक में लेखिका डा ऊषा गुप्ता ने; जिसमें अमेरिका स्थित प्रवासी भारतीयों के काव्य प्रतिभा, उनके भारत व अमेरिका के बारे में विचार के साथ साथ वहां हिन्दी के प्रचार प्रसार व भारतीय संस्कृति को जीवित रखने के प्रयासों को भी भारतीयों व विश्व के सम्मुख रखने का प्रयत्न किया है| यह एक महत्वपूर्ण बात है। प्रवासी भारतीयों के हिन्दी प्रेम, कृतित्व, काव्यानुभूति के विषद वर्णन के लिए वे विशेषतः बधाई के पात्र हैं। प्रस्तुत पुस्तक भारतीय व विश्व काव्यजगत में , विश्व साहित्य क़ी एक धारा के भांति प्रवाहित होकर अपना स्थान बनायेगी एवं प्रेरणा स्रोत होगी, ऐसा मेरा मानना है।

           
एक महत्व पूर्ण बात और है कि लगभग सभी कवियों ने छायावादी गीतों से लेकर अगीत विधा तक समान रूप से लिखा है। सभी गीत, अगीत, गद्य - पद्य सभी विधाओं में समान रूप से रचनारत हैं। विधाओं का कोई टकराव नहीं है । यह  "अतीत से जुड़ाव व प्रगति से लगाव " ही प्रगति का लक्षण है। समस्त कवि, कहानीकार, लेखक एवं प्रस्तुत कृति की लेखिका डा ऊषा गुप्ता जी बधाई की पात्र हैं।