इस चिट्ठे पर हिन्दी की अतुकान्त कविता धारा की एक विशेष विधा " अगीत- कविता " व उसके साहित्य के विविध रूप-भाव प्रस्तुत किये जायेंगे.....
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Wednesday, 12 September 2012
Tuesday, 11 September 2012
अगीत साहित्य दर्पण..क्रमश:...आभार..डा श्याम गुप्त...
आभार
" तत्सवितुर्वरेण्यं " उस तेजपुन्ज परब्रह्म की प्रेरणा एवं माँ वाग्देवी की कृपा-भिक्षा के आभार से कृत-कृत्य मैं सर्वप्रथम लखनऊ नगर व देश-विदेश बसे अगीत-विधा के समर्थक, सहिष्णु, सद्भावी, तटस्थ, आलोचक, प्रतिद्वंद्वी एवं अगीत की प्रतिष्ठा व प्रगति के द्वारा हिन्दी भाषा व साहित्य की सेवा व उन्नति के आकांक्षी व सहयोगी कवियों, साहित्यकारों, साहित्याचार्यों, समीक्षकों, विद्वानों व प्रवुद्ध पाठकों का आभारी हूँ जो अपनी खट्टी, मीठी, तिक्त उक्तियों, कथनों, वचनों, संवादों, आक्षेपों, आलेखों व टिप्पणियों रूपी सुप्रेरणा द्वारा इस रचना की परिकल्पना व कृतित्व में सहायक हुए ।
अगीत के संस्थापक, प्रवर्तक डा रंगनाथ मिश्र 'सत्य' के सद्भावनापूर्ण सत्परामर्श व विषय वैविध्य पर विवेचनात्मक व तथ्यपूर्ण जानकारी प्रदायक सहयोग के बिना अगीत कविता-विधा के छंद-विधान पर यह प्रथम कृति " अगीत साहित्य दर्पण " कब आकार ले पाती । कृति के लिए श्रमसाध्य प्रस्तावना लिखने के लिए भी मैं उनका आभारी हूँ ।
लखनऊ विश्व विद्यालय, लखनऊ के “ हिन्दी तथा आधुनिक भारतीय भाषा विभाग” की विभागाध्यक्ष प्रोफ. कैलाश देवी सिंह पी.एच.डी., डी.लिट. द्वारा अगीत काव्यान्दोलन पर एतिहासिक दृष्टि व उसके महत्त्व पर प्रकाश डालते हुए लिखी गयी विद्वतापूर्ण ”शुभाशंसा” के लिए मैं उनका आभारी हूँ | उन्होंने अपने अति व्यस्त समय में से कुछ समय का दान देकर मुझे कृत-कृत्य किया |
मैं अपने गुरुवासरीय गोष्ठी के कवि संगी व समर्थ कवि, साहित्यकार एवं कविता की छंद-विधा पर ’छंद-विधान’ के लेखक श्री राम देव लाल 'विभोर' द्वारा इस कृति के लिए विद्वतापूर्ण व विवेचनात्मक भूमिका " दो शब्द " लिखने के लिए उनका आभारी हूँ । मैं अपने गुरुवासरीय गोष्ठी, प्रतिष्ठा, प्राची , चेतना, अखिल भारत विचार क्रान्ति मंच, बिसरिया शिक्षा संस्थान व सृजन साहित्यिक व सांस्कृतिक संस्थाओं की गोष्ठियों के कवि मित्रों का भी आभारी हूँ जिनके विभिन्न अमूल्य विचार इस कृति की रचना में सहायक हुए ।
डा .रंगनाथ मिश्र 'सत्य', श्री सोहन लाल 'सुबुद्ध', अनिल किशोर 'निडर', विनय सक्सेना, तेज नारायण 'राही' सुभाष 'हुड़दंगी', श्रीमती सुषमा गुप्ता, अगीत गोष्ठी के संयोजक व समीक्षक श्री पार्थो सेन, युवाओं की साहित्यिक संस्था 'सृजन' के अध्यक्ष डा योगेश गुप्त, महाकवि पंडित जगत नारायण पाण्डेय एवं श्री सुरेन्द्र कुमार वर्मा का विशेष आभारी हूँ जिनके आलेख, कृतियाँ व रचनाएँ इस कृति की रचना में सहायक हुईं । साथ ही साथ मैं अखिल भारतीय अगीत परिषद्, लखनऊ के सभी कवि, कवयित्रियों व मित्रों एवं 'अगीतायन' पत्र के सम्पादक श्री अनुराग मिश्र का भी आभारी हूँ जिनकी रचनाओं व प्रकाशनों का उदाहरण स्वरुप इस कृति में उल्लेख किया गया है ।
मैं सभी पुरा, पूर्व व वर्तमान कवियों, आचार्यों, साहित्याचार्यों, काव्याचार्यों, विद्वानों व रचनाकारों का आभारी हूँ ..मेरे अंतस में भावित, जिनके विचारों व भावों ने इस कृति में समाहित होकर मुझे कृत-कृत्य किया तथा जिनके विचार, आलेख, कथन, शोधपत्र आदि का इस कृति " अगीत साहित्य दर्पण " में उल्लेख किया गया है|
------डा श्यामगुप्त ...
Monday, 10 September 2012
अगीत साहित्य दर्पण..क्रमश:...दो शब्द ...राम देव लाल 'विभोर'....
दो शब्द
काव्य-विद्या
की उत्पत्ति लौकिक ही नही पारलौकिक भी बताई गयी है । प्रथम
काव्य-ग्रन्थ ’नाट्य-शास्त्र’ को ब्रह्म-निर्मित
माना गया है । उसे
पन्चम वेद भी कहागया है । ’काव्य-मीमान्सा’ में
कहा गया है कि काव्य-विद्या
का सर्वप्रथम उपदेश भगवान श्रीकंठ ने अपने शिष्यों को दिया। सरस्वती-पुत्र ’काव्य पुरुष’ ने
दिव्य-स्नातकों
द्वारा तीनों लोकों में काव्य-विद्या
के प्रचार की आज्ञा दी। काव्य-विद्या
की लौकिक उत्पत्ति का बीज हमारे ’वेदों’ में मिलता है। पिन्गलाचार्य के बहुत पहले स्वर-वृत्त
आ चुका
था, जिनकी
संगीत सृष्टि --उदात्त, अनुदात्त और स्वरित ध्वनि-प्रकारों
पर आधारित है। ऋग्वेद के सात छंद इसी प्रकार के हैं, जिनमें
गायत्री व उष्णिक
के तीन-तीन
पाद, अनुष्टुप, त्रिष्टुप आदि के चार पाद और पंक्ति के पांच पाद निर्धारित किये गये। धीरे-धीरे
वर्णों के लघु-गुरु
उच्चारण की विशिष्ट योजना द्वारा लौकिक वर्ण-वृत्त
आया और फ़िर मात्रा-वृत्त
व ताल-वृत्त भी क्रमश: मात्रिक-गणॊं व ताल-गणों के आधार पर आये। छंदों के सम, विषम
व अर्ध-सम मात्रिक स्वरूप आये। उनके चरण संख्या के आधार पर द्विपदी से लेकर षोडष-पदी
तक संरचना की गयी । उनमें
तुकान्त व भिन्न-तुकान्त का भी प्रयोग हुआ। छंद-चरणों
में यति, गति, सुर, लय
आदि का भी यथायोग्य निर्धारण किया गया। इस प्रकार से काव्य-धारा
का विविध छंदों में अजस्र प्रवाह हो रहा है। काव्य- मुक्तक
व प्रबन्ध
रूप में भी प्रवाहित है। गज़ल, गीत, नवगीत व जनगीत
भी अपनी छटा बिखेर रहे हैं। सबके अपने अपने नियम व ढांचे
हैं किन्तु लय-बद्धता
सब में समाहित है जो काव्यानंद का श्रोत है। सब का अपना-अपना
तर्ज़, लहज़ा, रौब व रुतवा
है। इन्हीं आधार पर इनकी अपनी-अपनी
विशिष्ट पहचान है। इन्हीं सब बातों को दृष्टि में
रखकर इनके विधान भी नियोजित किये गये हैं। वास्तव में शब्द-ब्रह्मांड
में व्यवस्थित रूप में यति, गति, सुर, लय
से रक्षित जो भी काव्य-विधा
होगी वह आनंददायी होगी। इसी कडी से जुडी बात को डा श्याम गुप्त ने व्यवस्थित रूप में अपनी इस प्रस्तुत पुस्तक “अगीत
साहित्य दर्पण” में
रखने का प्रयास किया है, जिसमें
अगीत साहित्य के सूत्रपात से लेकर उसकी अद्यतन अवधि तक उसकी उपलब्धि, उसका
स्वरूप, रचना-विधान व उसकी
उपयोगिता वर्णित है।
“ अगीत साहित्य दर्पण” में
डा श्याम गुप्त ने लिखा है कि सन १९६६ई. में
राष्ट्र-भक्ति
से ओत-प्रोत
उत्साही कवि डा. रंगनाथ
मिश्र ’सत्य’ ने लखनऊ विश्व-विद्यालय
के हिन्दी विभाग में रीडर व सुधी
साहित्यकार डा ऊषा गुप्ता की सुप्रेरणा से इस नवीन धारा ’अगीत’ का सूत्रपात किया। रचना-विधान
में बताया गया है कि ’अगीत’ एक पांच से आठ पन्क्तियों की अतुकान्त कविता है। जिसमें मात्रा बंधन नहीं, गतिमयता
हो एवं गेयता का बन्धन नहीं होता। इसमें अगीत के विविध छंद – अगीत-छंद, लयबद्ध-अगीत, गतिमय
सप्तपदी, लयबद्ध
षटपदी, नव-अगीत, त्रिपदा-अगीत व त्रिपदा-अगीत हज़ल आदि का भी उल्लेख किया गया है। स्व. पन्डित
जगत नारायण पांडे कृत ’सौमित्र-गुणाकर’ व डा
श्याम गुप्त कृत “सृष्टि “ प्रबन्ध काव्यों के रसास्वादन से विदित हुआ कि अगीत-विधा
में रचे गये ये ग्रन्थ आनंदवर्धक हैं। डा श्याम गुप्त को इस रचना हेतु बधाई।
राम देव लाल 'विभोर'
महामंत्री काव्य-कला
संगम, लखनऊ
५६५क/१४१
’गिरिज़ा
सदन’ अमरूदहीबाग,
आलमबाग, लखनऊ-२२६००५
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